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शनिवार, 10 फ़रवरी 2024

बनलता जोयपुर जंगलों के किनारे बसा फूलों का गाँव

पश्चिम बंगाल में ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे विख्यात जगह है तो वो है बिष्णुपुर। वर्षों पहले बांकुरा जिले में स्थित इस छोटे से कस्बे में जब मैं यहाँ के विख्यात टेराकोटा मंदिरों को देखने गया था तो ये जगह मुझे अपनी ख्याति के अनुरूप ही नज़र आई थी। तब बिष्णुपुर एक छोटा सा कस्बा था जहां एक मंदिर से दूसरे मंदिर तक जाने के लिए संकरी सड़कों की वज़ह से ऑटो की सवारी लेनी पड़ती थी। अब सड़कें तो अपेक्षाकृत चौड़ी हो गई हैं पर इतनी नहीं कि ऑटो को उनकी  बादशाहत से हटा सकें।

पिछले हफ्ते एक बार फिर बिष्णुपुर जाने का मौका मिला पर इस बार कुछ नया देखने की इच्छा मुझे जोयपुर के जंगलों की ओर खींच लाई। मैंने सुना था कि इन जंगलों के आस पास की ज़मीन पर फूलों के फार्म हैं जिसे एक रिसार्ट का रूप दिया गया है। नाम भी बड़ा प्यारा बनलता। तो फिर क्या था चल पड़े वहाँ जंगल और फूलों के इस मिलन बिंदु की ओर। 


बांकुड़ा वैसे तो एक कृषिप्रधान जिला है पर अपने टेराकोटा के खिलौनों, बालूचरी साड़ियों और डोकरा कला के लिए खासा जाना जाता है। बांकुरा में टेराकोटा से बने घोड़ा की पूछ तो पूरे देश में होती ही है, आस पास के जिलों में यहाँ का गमछा भी बेहद लोकप्रिय है। बांकुड़ा जिले में आम के बागान और सरसों के खेत आपको आसानी से दिख जाएँगे। चूँकि जाड़े का मौसम था तो सरसों के पीतवर्ण खेतों को देखने का मौका मिला। कुछ तो है इन सरसों के फूलों में कि लहलहाते खेतों का दृश्य मन को किसी भी मूड से निकाल कर प्रसन्नचित्त कर देता है।


बांकुड़ा और बिष्णुपुर के बीचों बीच एक जगह आती है बेलियातोड़। चित्रकला के प्रशंसकों को जानकर सुखद आश्चर्य होगा कि ये छोटा सा कस्बा एक महान कलाकार की जन्मभूमि रहा है। जी हाँ, प्रसिद्ध चित्रकार जामिनी राय का जन्म इसी बेलियातोड़ में हुआ था। वैसे आज लोग बेलियातोड़ से गुजरते वक़्त जामिनी राय का नाम तो नहीं पर लेते पर यहाँ की मलाईदार लालू चाय और ऊँट के दूध से बनने और बिकने वाली चाय का घूँट भरने के लिए अपनी गाड़ी का ब्रेक पेडल जरूर दबा देते हैं।

बेलियातोड़ से निकलते ही रास्ता सखुआ के जंगलों में समा जाता है। सड़क पतली है पर है घुमावदार। मैं तो वहाँ समय की कमी की वज़ह से नहीं उतर सका पर मन में बड़ी इच्छा थी कि जंगल के बीच चहलकदमी करते हुए जाड़े की नर्म धूप का लुत्फ़ उठाया जाए।

बेलियातोड़ वन क्षेत्र 

बिष्णुपुर शहर से जोयपुर का वन क्षेत्र करीब 15 किमी दूर है। इन वनों के एक किनारे बना है बनलता रिसार्ट जो कि रिसार्ट कम और फूलों का गाँव ज्यादा लगता है। इस रिसार्ट में पहुँचने पर जानते हैं सबसे पहला फूल हमें कौन सा दिखा? जी हाँ गोभी का फूल और वो भी नारंगी और गुलाबी गोभी का जिन्हें ज़िंदगी में मैंने पहली बार यहीं देखा।

सच पूछिए तो इनकी ये रंगत देख कर एकबारगी विश्वास ही नहीं हुआ कि इनका ये प्राकृतिक रंग है। ऐसा ही अविश्वास राजस्थान से गुजरते हुए लाल मूली को देख कर हुआ था।
बाद में पता चला कि विश्व में फूलगोभी नारंगी, सफेद, और जामुनी रंग के अलावा हल्के हरे रंग में भी आती है। नारंगी फूलगोभी मूलतः सत्तर के दशक में कनाडा में उगाई गई थी। आम सफेद फूलगोभी और इसमें मुख्य फर्क ये है कि इसमें बीटा कैरोटीन नामक पिगमेंट होता है जो इसे नारंगी रंग के साथ साथ सामान्य गोभी की तुलना में पच्चीस फीसदी अधिक विटामिन ए उपलब्ध कराता है। जामुनी गोभी का गहरा गुलाबी रंग एक एंटी ऑक्सीडेंट एंथोसाइनिन की वज़ह से आता है। इस गोभी में विटामिन C प्रचुर मात्रा में विद्यमान है।
आलू गोभी की भुजिया में नारंगी गोभी का स्वाद चखा तो लगभग सफेद गोभी जैसी पर थोड़ी कड़ी लगी। जामुनी गोभी तो खाई नहीं पर वहां पूछने पर पता चला कि उसका ज़ायक़ा हल्की मिठास लिए होता है।

एक नारंगी गोभी की कीमत चालीस रुपये

बनलता परिसर में घुसते ही बायीं तरफ एक छोटा सा जलाशय दिखता है जिसके पीछे यहां रहने की व्यवस्था है। बाकी इलाके में छोटे बड़े कई रेस्तरां हैं जो बंगाल का स्थानीय व्यंजन परोसते दिखे। पर खान पान में वो साफ सफाई नहीं दिखी जिसकी अपेक्षा थी। ख़ैर मैं तो यहां के फूलों के बाग और जंगल की सैर करने आया था तो परिसर के उस इलाके की तरफ चल पड़ा जहां भांति भांति के फूल लहलहा रहे थे।

गजानिया के फूलों से भरी क्यारी 

कुछ आम कुछ खास


ऊपर चित्र में आप कितने फूलों को पहचान पा रहे हैं। चलिए मैं आपकी मदद कर देता हूं। ऊपर सबसे बाएँ और नीचे सबसे दाहिने गज़ानिया के फूल हैं। यहां गज़ानिया की काफी किस्में दिखीं। इनमें एक किस्म ट्रेजर फ्लावर के नाम से भी जानी जाती है। फ्लेम वाइन के नारंगी फूलों को तो आप पहचान ही गए होंगे। इनकी लतरें तेजी से फैलती हैं और इस मौसम में तो मैने इन्हें पूरी छत और बाहरी दीवारों को अपने रंग में रंगते देखा है। नास्टर्टियम की भी कई प्रजातियां दिखीं।

पर जिस फूलने अपने रंग बिरंगे परिधानों में हमें साबसे ज्यादा आकर्षित किया वो था सेलोसिया प्लूमोसा। सेलोसिया का मतलब ही होता है आग की लपट। इसके लाल, मैरून नारंगी व  पीले रंगों के शंकुधारी फूलों  की रंगत ऐसा ही अहसास कराती है।   

सेलोसिया प्लूमोसा (Silver Cockscomb)


अब जहां फूल होंगे वहां तितलियां तो मंडराएंगी ही:) चित्र में दिख रही है निंबुई तितली (Lime  Butterfly )


गुलाबी और नारंगी फूलगोभी की खेती यहां का विशेष आकर्षण है।

नास्टर्टियम  और स्नैपड्रैगन 



गजानिया

पुष्पों से मुलाकात के बाद मैंने जोयपुर के जंगलों का रुख किया। दरअसल बनलता जोयपुर वन क्षेत्र के एक किनारे पर बसा हुआ है। विष्णुपुर की ओर जाती मुख्य सड़क के दोनों और सखुआ के घने जंगल हैं। मुख्य सड़क के दोनों और कई स्थानों पर हाथियों और हिरणों के आने-जाने के लिए पगडंडियां बनी हैं। थोड़ा समय हाथ में था तो मैं अकेले ही जंगल की ओर बढ़ चला। थोड़ी दूर पर जंगल के अंदर जाती एक कच्ची सड़क दिखी। 

जोयपुर के जंगल और बनलता रिसार्ट

मुझे लगा के इस रास्ते को थोड़ा एक्सप्लोर करना चाहिए पर जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया वैसे-वैसे वनों की सघनता बढ़ती गई और फिर रह रह के पत्तों से आई सरसराहट से मेरी हिम्मत जवाब देने लगी।  मुझे ये भान हो गया कि यहां छोटे ही सही पर जंगली जीव कभी भी सामने आ सकते हैं

जोयपुर जंगल की कुछ तस्वीरें

साथ में कोई था नहीं तो मैंने वापस लौटना श्रेयस्कर समझा। वैसे दो-तीन लोग इकट्ठे हों तो सखुआ के जंगलों से गुजरना आपके मन को सुकून और अनजाने इलाकों से गुजरने के रोमांच से भर देगा। 

इस इलाके के जंगलों के सरताज गजराज हैं। वर्षों से इस इलाके में उनके विचरण और  शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का ही प्रमाण है कि पेड़ों के नीचे स्थानीय निवासियों द्वारा बनाई गई मूर्तियां रखी दिखाई दीं। उनके मस्तक पर लगे तिलक से ये स्पष्ट था कि यहां उनकी विधिवत पूजा की जाती है। गजराज हर जगह अकेले नहीं बल्कि अपनी पूरी सेना के साथ तैयार दिखे।

यहाँ जंगल का राजा शेर नहीं बल्कि हाथी है

जोयपुर के जंगल से लौटते हुए कुछ वक्त बिष्णुपुर के रासमंच में बीता। रासमंंच सहित बिष्णुपुर के अन्य प्रसिद्ध मंदिरों की यात्रा यहां आपको पहले ही करा चुका हूं। वैसे इस क्षेत्र में अगर दो तीन दिन के लिए आना हो तो आप मुकुटमणिपुर पर बने बांध और बिहारीनाथ  की  पहाड़ियों पर स्थित शिव मंदिर का दर्शन भी कर सकते हैं।


बिष्णुपुर की पहचान रासमंच

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रविवार, 29 सितंबर 2019

अयोध्या पहाड़ से चांडिल बाँध : याद रहेगी वो भूलभुलैया Ayodhya Hills to Chandil Dam

राँची से अयोध्या पहाड़ तक की यात्रा तो आपने की थी मेरे साथ पिछले हफ्ते और ये भी जाना था कि किस तरह हम ऐसे ठिकाने में फँस गए थे जहाँ आती जाती बिजली के बीच जेनेरेटर की व्यवस्था भी नहीं थी। समझ में मुझे ये नहीं आ रहा था कि जहाँ दो दो बाँध का निर्माण बिजली उत्पादन के लिए हुआ है वहीं बिजली क्यूँ आ जा रही है। रात भर की कच्ची नींद तड़के ही टूट गयी। बाहर अभी भी अँधेरा था। बारिश की टीप टाप ही उस शांत वातावरण को चीरती हुई कानों तक आ रही थी।


आधे घंटे बाद कमरे से निकल कर छत पर पहुँचे तो सूरज को बादलों के लिहाफ में अँगड़ाई लेता पाया। बारिश रुक तो गयी थी पर फिज़ा से नमी अब भी बरक़रार थी।
पास बसा एक गाँव
हमारी लॉज के ठीक पीछे घरों को देख कर लगता था कि हम गाँव के बीचों बीच हैं। सच पूछिए तो अयोध्या पहाड़ का इलाका ग्रामीण आदिवासी इलाका ही है।  जंगलों से सटे गाँवों में ज्यादातर संथाल, मुंडा और बिरहोर जनजाति के लोग निवास करते हैं। अंग्रेजों ने अठारहवीं शताब्दी में जब बिहार, बंगाल और उड़ीसा की दीवानी ली तब जंगल महल नाम से एक जिला बनाया गया जिसमें पुरुलिया भी शामिल था। 1833 में अंग्रेजों ने फिर इस जिले को तोड़ कर मनभूम नाम का जिला बनाया जिसका मुख्यालय पहले मानबाजार और फिर पुरुलिया बना। इस जिले में बंगाल, बिहार और उड़ीसा के इलाके मिले हुए थे। 

आजादी के बाद भाषायी आधार पर जिले के हिस्से बिहार, बंगाल और ओड़ीसा में बाँट दिए गए। इन्हीं आदिवासी जिलों को मिलाकर वृहद झारखंड बनाने के लिए आंदोलन चला पर अंत में झारखंड के हिस्से में वही भूभाग आया जो पहले से बिहार के पास था। पुरुलिया बंगाल को चला तो गया पर यही वज़ह है कि इसके पहाड़ी इलाकों पर जाते ही झारखंडी संस्कृति की खुशबू आने लगती है।

पुरुलिया की ओर जाती सड़क
छत पर खड़ा मैं बादल और सूरज की आँखमिचौनी देख रहा था कि एक बंगाली सज्जन भी वहाँ आ गए। गपशप शुरु हुई तो बताने लगे कि करीब दस बारह साल पहले जब वो यहाँ आए थे तो ये पूरा इलाका घने जंगलों से भरा था। होटल के नाम पर सिर्फ पश्चिम बंगाल पर्यटन का निहारिका गेस्ट हाउस यहाँ हुआ करता था। तब इस जंगल में हाथियों की काफी आवाजाही थी। उन्होंने खुद हाथियों की लंबी कतार को उस वक्त देर तक रास्ता पार करते हुए देखा था। आज अयोध्या पहाड़ का मुख्य आकर्षण यहाँ बिजली उत्पादन के लिए बनाए गये दो बाँध हैं। लगभग दस वर्ग किमी में फैले इन दोनों बाँधों को बनाने में जंगलों का एक हिस्सा नष्ट हो गया और उसकी वज़ह से अब हाथियों ने भी अपना रास्ता बदल लिया है। अन्य जंगली जानवरों की संख्या में भी कमी आई है।

हल्की बारिश में हरियाते खेत खलिहान
बहरहाल आसपास के जंगलों में कदम नापने का हो रहा था तो सुबह की सैर के लिए चल पड़े। आज भी अयोध्या पहाड़ मैं छोटे बड़े सिर्फ दर्जन भर होटल और लॉज हैं। इन होटलों और कुछ सरकारी इमारतों का ये सिलसिला एक से दो किमी में ही निपट जाता है और जिन्हें पार कर आप साल के जंगलों के बिल्कुल करीब आ जाते हैं। जंगल की शुरुआत में ही सुनहरे पीलक (Golden Oriole) का एक जोड़ा अपनी मीठी बोली में चहकता दिखाई पड़ा। मुख्य सड़क को छोड़ हमने एक पगडंडी की राह पकड़ी और थोड़ी ही देर में धान के खेतों के बीच चले आए। अचानक गाय की घंटियों की आवाज़ कानों में गूँजी तो देखा कि एक किसान पहाड़ी ढलान पर हल बैलों से अपने खेत जोत रहा है। एक ज़माना था जब यहाँ के आदिवासी मूल रूप से जानवर व पक्षियों का शिकार कर ही अपना जीवन यापन करते थे। थोड़ी बहुत धान की खेती और पशुपालन इनके लिए आज भी जीविका का आधार है। 


पहाड़ी ढलानों पर भी हल बैलौं से खेती
वापस लौटते हुए यहाँ के प्रसिद्ध और सबसे मँहगे आश्रय स्थल कुशल पल्ली को देखने की इच्छा हुई। इसके बगल में यहाँ का यूथ हॉस्टल भी है। खेत खलिहानों के बीच से निकलते हुए रास्ते के आस पास तेलिया मुनिया और कोतवाल के आलावा कई और पक्षी दिखाई दिए जिनकी पहचान करने से पहले ही वे फुर्र हो गए। रिसार्ट तो वाकई बड़ा खूबसूरत था पर अक्सर मैंने महसूस किया है कि यहाँ आने वाले लोग इसी के अंदर इतना रम जाते हैं कि अगल बगल के जंगलों और ग्रामीण संस्कृति को समझने के लिए शायद ही कोई वक़्त देते हैं । 


कुशल पल्ली का आकर्षक परिसर

शुक्रवार, 13 सितंबर 2019

चलिए आज मेरे साथ पुरुलिया के अयोध्या पहाड़ पर Monsoon Trip to Ayodhya (Ajodhya) Hills, West Bengal

अयोध्या नाम लेने से हम सबके मन में सीधे सीधे राम जन्म भूमि का ख्याल आता है। सच ये है कि राम तो पूरे भारतीय जनमानस के हृदय में बसे हैं। उनकी भक्ति का प्रभाव भारत ही नहीं आस पास के पड़ोसी देशों तक जा पहुँचा। यही वज़ह है कि थाइलैंड में राम की याद में राजधानी बैंकाक से अस्सी किमी दूर एक भरा पूरा शहर अयुत्थया ही बन गया जिसकी ऐतिहासिक इमारतों को देख आज भी लोग दाँतों तले ऊँगलियाँ  दबा लेते हैं। अब विदेशों की छोड़िए। क्या आपको पता है कि भारत में एक पहाड़ का नाम भी अयोध्या पहाड़  है। जी हाँ ये पहाड़ है पश्चिम बंगाल के झारखंड से सटे पुरुलिया जिले में। जिन लोगों के लिए पुरुलिया नया नाम है उन्हें याद दिलाना चाहूँगा कि ये वही जिला है जहाँ नब्बे के दशक में एक विदेशी विमान से तथाकथित रूप से आनंद मार्गियों के लिए भारी मात्रा में हथियार गिराए गए थे। 

दरअसल छोटानागपुर के पठार का पूर्वी सिरा इसी जिले में जाकर खत्म होता है। यानी अपने भौगोलिक स्वरूप और संस्कृति के लिहाज से इस इलाके की झारखंड से काफी समानता है।  यही वज़ह है कि वृहद झारखंड के शुरुआती आंदोलन में बंगाल के इस हिस्से को भी नए राज्य में शामिल करने की बात थी।


हर साल मानसून में मेरी कोशिश रहती है कि किसी ऐसे इलाके से गुजरा जाए जो अपेक्षाकृत अछूता हो और प्रकृति की गोद में बसा हो। नेतरहाट, लोध, पारसनाथ पिछली मानसूनी यात्राओं के साथी रह चुके थे तो इस बार मन हुआ कि अयोध्या पहाड़ का रुख किया जाए जिसे स्थानीय अजोध्या पहाड़ (Ajodhya Hills) के नाम से भी बुलाते हैं।

राम के वनवास के मार्ग को लेकर ना जाने देश में कितनी किंवदंतियाँ हैं। यहाँ के ग्रामीणों का मानना है कि श्री राम बनवास के समय सीता माता के साथ इधर से गुजरे थे। यहाँ से गुजरते वक़्त सीता जी को प्यास लगी तो राम जी ने चट्टानों पर तीर चला कर ज़मीन से एक जल स्रोत निकाल दिया जिसे आज सीता कुंड के नाम से जाना जाता है। राम के वनवास की इसी कथा की वज़ह से इस पहाड़ का नाम अयोध्या पहाड़ पड़ गया।

किता से झालदा के बीच
अगस्त के दूसरे हफ्ते में राँची से मूरी और झालदा होते हुए हमें अयोध्या पहाड़ की राह पकड़नी थी। एक वक़्त था जब इस पूरे रास्ते में मूरी तक नाममात्र की आबादी मिलती थी। आज के दिन में सड़कों के बेहतर होने से जहाँ आवाजाही बढ़ी है वहीं सड़कों के दोनों ओर नए निर्माण अपने पाँव पसारने लगे हैं।

सड़क यात्रा में आनंद की पहली घड़ी तब आई जब हम झारखंड के किता से पश्चिम बंगाल के झालदा की ओर अग्रसर हुए। सड़क के दाँयी ओर रह रह कर रेल की पटरियाँ आँखमिचौनी का खेल खेल रही थीं तो दूसरी ओर नीले गगन में हरी भरी पहाड़ियों का समानांतर जाल मन को लुभा रहा था।

मुरगुमा जलाशय, अयोध्या पहाड़
तुलिन से झालदा में घुसते सड़क अचानक से संकरी हो जाती है। कस्बाई भीड़ और भाषा के बदलते स्वरूप को देख आप समझ जाते हैं कि आप पश्चिम बंगाल की सरज़मीं पर कदम रख चुके हैं। सहयात्रियों को चाय की तलब परेशान कर रही थी पर इतनी भीड़ भाड़ में गाड़ी खड़ा करना ट्राफिक जाम को आमंत्रण देना था। लिहाजा हम बढ़ते गए और कस्बे के बाहर ही निकल आए।  अयोध्या पहाड़ के लिए एक सड़क कस्बे के चौराहे से भी मुड़ती है पर मैंने वो रास्ता चुना था जो मुरुगमा जलाशय होते हुए जंगलों के बीच से निकलता है।

झालदा से निकलते हुए जैसे ही ग्रामीण अंचल मिला वहाँ गाड़ी रोकी गयी। छोटी सी गुमटी पर चाय के पतीले को देख लोगों की जान में जान आई। पाँच रुपये में गिलास भरी चाय का जो लुत्फ़ था वो सौ दो सौ की कैपेचीनो में भी नहीं मिलता। चाय की दुकान से पीछे ही एक मंदिर था जिसके सामने वृक्ष के नीचे चबूतरे पर लोग बोल बतिया रहे थे। धूप कड़क थी और झालदा की चिल पों के बाद तरुवर की छाँव में सुस्ती भरा माहौल भी मन को रुच रहा था।

जलाशय के ऊपर बादलों का खेल
थोड़े विश्राम के बाद हम मुरगुमा की राह पर थे। जलाशय में बारिश के इस मौसम में जितने पानी की अपेक्षा थी उतना पानी नहीं था। दरअसल इस साल झारखंड और बंगाल में उतनी बारिश नहीं हुई जितनी हर साल होती थी। उस  प्रचंड धूप में भी पानी को छू कर आने के लिए मेरे मित्र नीचे उतर गए। 

पंख  सुखाता छोटा पनकौआ (Little Cormorant)

मैं सड़क के दूसरी ओर बाँध के किनारे किनारे चल पड़ा। जलाशय से एक नहर सिंचाई के लिए निकाली गयी है। उसी ओर से कुछ पक्षियों का कलरव सुनाई पड़ा। थोड़ी दूर आगे बढ़ा ही था कि सड़क के पीछे के जंगलों से एक लहटोरे (Shrike ) ने उड़ान भरी और नीचे की झाड़ियों में लुप्त हो गया। तभी मेरी नज़र पानी के बीचो बीच बैठे पनकौवे पर पड़ी।  पनकौवा पत्थर पर चारों ओर घूमता हुआबड़ी अदा के साथ अपने पंख सुखा रहा था। पनकौवे को वो धूप भले ही भा रही हो पर बीस पच्चीस मिनट के बाद वहाँ उस गर्मी में और रुकना सबके लिए मुश्किल था। नतीजन मुरगुमा से हम सबने विदा ली।

मुरगुमा से आगे बढ़ते ही चढ़ाई शुरु हो जाती है। जंगलों के बीच से एक कोना ऐसा मिला जहाँ से पूरा जलाशय दिखाई देता है। रास्ता मनोहारी हो चला था। सड़क के दोनों ओर झाड़ियों और लतरों का साम्राज्य छाया था। उनके कंधे पकड़े कोई कोई पेड़ कभी उचक उचक कर देख लेता था। आसमान दोरंगा था... एक ओर धूप से कुम्हलाया फीका सा तो दूर पहाड़ियों के ऊपर मटमैले रंग में अपने तेवर बदलता हुआ। 

ऐसी हरी भरी राह पर कदमताल करने का मन किसे ना करे?
इतनी खूबसूरत डगर का मजा पैदल चलकर ही लिया जा सकता था। कभी धूप कभी छाँव में पड़ती इन पहाड़ी ढलानों पर चलना दिन के सबसे खूबसूरत लमहों में से था। पुटुस ने सड़क के दोनों ओर मजबूती से अपना खूँटा गाड़ रखा था। बस हम सब यही सोच रहे थे कि इस सड़क पर चलते हुए बारिश की फुहार साथ मिल जाती तो आनंद आ जाता। शाम को पता चला कि भगवन उस वक़्त बारिश करा तो रहे थे पर पहाड़ियों के उस पार।

अयोध्या पहाड़ से बीस किमी पहले
जंगलों  के बीच छोटे छोटे गाँवों का आना ज़ारी रहा। ज्यादातर घर खपड़ैल के दिखे जबकि कुछ की छत पुआल की थी। दो अलग अलग रंगों से लीपी गयी मिट्टी की दीवारों को उनके बीच एक रंग बिरंगी पट्टी और आकर्षक बना रही थी। घर के बरामदे की छाँव में कूद फाँद करते बच्चों के बीच आराम करती बकरियाँ, मुर्गी और बत्तख के चूजों की घर घर भटकती कतारों को देख कर लग रहा था कि कहीं हम वापस झारखंड में तो नहीं आ गए। दो दिन के प्रवास में मुझे ऐसा लगा धान की थोड़ी बहुत खेती के आलावा पशु और मुर्गी पालन ही यहाँ के गाँवों की जीविका का आधार है।

पुटुस  (Lantana Camara) की लताओं के बीच 
अयोध्या पहाड़ का कस्बाई इलाका बड़ा छोटा सा है। पश्चिम बंगाल पर्यटन के अतिथि गृह निहारिका के आलावा दस बारह छोटे बड़े लॉज, होटल व गेस्ट हाउस हैं। आरक्षण कर के तो हम गए नहीं थे। सोचा था कि ठिकाना नही मिला तो दूसरे रास्ते से जमशेदपुर की ओर बढ़ जाएँगे।

ख़ैर सप्ताहांत की छुट्टी में पश्चिम बंगाल में कहीं भी जगह मिल पाना टेढ़ी खीर है। भटकते भटकते एक लॉज मिली जहाँ सुविधा के नाम पर एक कमरा भर था। भोजन के लिए सड़क के किनारे ले देकर एक ढाबा था। वहीं अपनी क्षुधा पूरी की। शाम ढलने में अभी दो घंटे का वक़्त था। अपने रहने के ठिकाने के सबसे पास मयूर पहाड़ दिखा।  निर्णय लिया गया कि सबसे पहले पास के मयूर पहाड़ की चढ़ाई की जाए।

मयूर पहाड़ से दिखते आस पास के घने जंगल
पहाड़ ज्यादा ऊँचा नहीं था। पहाड़ी की चोटी पर एक छोटा सा हनुमान मंदिर है जहाँ से आप दूर दूर तक फैले जंगलों और घाटी में बसे खेत खलिहानों का विस्तार देख सकते हैं।

बारिश में नहाए खेत खलिहान

सूरज की रोशनी में निखरे धान के खेत
मयूर पहाड़ के बाद हमारा अगला मुकाम था मार्बल लेक। झील की ओर जाने वाला रास्ता गढ्ढों से भरा हुआ था। जिस बारिश की फरियाद हमने दिन में की थी वो शायद यहाँ बरस गयी थी। धान के खेत पानी से लबालब थे।बरसाती नालों का उफान मारता पानी सड़कों को भी जगह जगह से लील गया था। एक दो गढ्ढों को लाँघते हुए गाड़ी में सबने राम नाम जपना शुरु ही किया था कि उल्टी दिशा से आती एक गाड़ी को देख संबल मिला। बताया गया कि मार्बल लेक तक तो चले जाएँगे पर बामनी जलप्रपात तक जाना मुश्किल है।

बारिश में उफनते नाले
मार्बल लेक का ऐसा नाम क्यूँ पड़ा वो उसे देखकर समझ आया। संभवतः ये झील यहाँ बनाए गए बाँधों के निर्माण के लिए निकाले पत्थर की वजह से इस रूप में आयी है। शाम के पाँच बजे के आस पास जब हम वहाँ पहुंचे तो झील में ग्रामीण बच्चों और युवाओं का दल पानी में पहले से ही डुबकी लगाए बैठा था। झील की एक ओर कटे फटे पहाड़ अब भी अपनी बची खुची ताकत के साथ खड़े थे तो दूसरी ओर के पहाड़ों पर झूमती हरियाली झील की सुंदरता को नया रूप दे रही थी।
मार्बल लेक
पत्थरों के सानिध्य में अपने नाम को सार्थक करती भूरे रंग की पत्थरचिड़ी भी बैठी थी। नीचे झील की ओर उतरती पगडंडी जा रही थी पर सूर्यास्त का समय पास होने की वज़ह से ऊपर की चट्टानों पर ही अपनी धूनी रमा ली। 

पत्थरचिड़ी (Brown Rock Chat)
मार्बल लेक की संरचना ऐसी है कि यहाँ ईको बड़ा जबरदस्त होता है। ज़ोर से किसी का नाम लीजिए और फिर उसी आवाज़ को गूँजता सुनिए। अपना नाम आकाशवाणी की तरह गुंजायमान होते देख मैं और मेरे मित्र फूले ना समाए। सबका बाल हृदय जाग उठा और सबने बारी बारी से अपने गले की जोर आजमाइश की।


सूर्य देवता से विदा लेते हुए हम वापस उसी रास्ते से लौटे। लौटते हुए अपर डैम की एक झलक देखी और शाम की चाय का स्वाद लेते हुए विश्राम के लिए अपने लॉज पहुँचे।

अपर डैम, अयोध्या पहाड़
बाँध पर उतरती नीली शाम
थोड़ी ही देर में बिजली गुल हुई और कमरे में घना अंधकार छा गया। तभी पता चला कि हमारा  ये ठिकाना जेनेरेटर की सुविधा से महरूम है। संचालक ने किसी भी ठहरने वाले यात्री को लॉज की ये खूबी नहीं बताई थी। ख़ैर बिजली आती जाती रही और हमने जैसे तैसे रात बिताई। अगले दिन हम किन नज़ारों से रूबरू हुए और कैसे भटकी हमारी राह ये जानिएगा इस आलेख की अगली कड़ी में..

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रविवार, 17 मार्च 2019

दहकते पलाश और खिलते सेमल के देश में In the land of Palash & Semal

यूँ तो पलाश का फैलाव भारत के हर कोने में है पर पूर्वी भारत में इनके पेड़ों का घनत्व अपेक्षाकृत ज्यादा है और इसका प्रमाण तब मिलता है जब आप रोड या रेल मार्ग से मार्च और अप्रैल के महीने में इन इलाकों से गुजरते हैं। झारखंड और उत्तरप्रदेश का तो ये राजकीय पुष्प भी है। टैगोर की रचनाओं में भी पलाश का कई बार जिक्र हुआ है। झारखंड तो ख़ैर वन आच्छादित प्रदेश है ही । यहाँ के पर्णपाती वन जब वसंत के आगमन के साथ पत्तियाँ झाड़कर पलाश की सिंदूरी आभा बिखेरते है तो जंगल की लालिमा देखते ही बनती है। 


जंगल की आग पलाश को इस लाली को हर तरफ बिखेरने में साथ मिलता है अपने बड़े भ्राता सेमल का जो कि फरवरी महीने के आख़िर से ही अपने सुर्ख लाल फूलों के साथ खिलना शुरु कर देते हैं। पिछले हफ्ते जब झारखंड और बंगाल के कुछ इलाकों से गुजरने का मौका मिला तो पलाश और सेमल की ये जुगलबंदी किस रूप में नज़र आयी चलिए आपको भी दिखाते हैं। 

गौरंगपुर, बर्धमान में एक झील के किनारे खड़ा मिला मुझे ये पूरी तरह खिला पलाश
तो बात पहले बंगाल की। शांतिनिकेतन जो टैगोर की कर्मभूमि थी  वहाँ पलाश के पेड़ों का अच्छा खासा जमावड़ा है। वसंत के समय ये पलाश के फूल टैगौर की मनोदशा पर क्या असर डालते होंगे ये उनकी लिखी इन पंक्तियों से पता चल जाता है

ओ रे गृहोबाशी, खोल दार, खोल लागलो जे दोल
स्थोले, जोले, बोनो तोले लागलो जे दोल
दार खोल दार खोल
रंग हाशी राशी राशी अशोके पोलाशे
रंग नेशा मेघे मेशा प्रोभातो आकाशे
नोबीन पाते लागे रंग हिलोल, दार खोल दार खोल

अर्थात ओ घर में रहने वालों, अपने घर के द्वारों को खोल दो ! देखो बाहर ज़मीं पर, जल और आकाश में वसंत की कैसी बयार छाई है। प्रकृति के रेशे रेशे में एक हँसी है जो पलाश और अशोक वृक्षों से बिखर रही है। सुबह के आसमान में बादलों की चाल में एक नशा सा है। पेड़ों पर आए नए पत्ते रंगों का नया संसार रच रहे हैं तो तुमने  क्यों अपने द्वार बंद कर रखे हैं ?

शांतिनिकेतन तो नहीं पर उसी के पड़ोसी जिले बर्धमान के जंगलों से गुजरते हुए पिछले हफ्ते पलाश हमें अपने पूर्ण यौवन के साथ दिखाई दिया।

पलाश तो अपना है तुम कहाँ से आए हो?  यही प्रश्न था आँखों में उस बछड़े के :)
पलाश देश के अलग अलग हिस्सों में कई नामों से जाना जाता रहा है। पलाश के आलावा पूर्वी भारत में इसे किंशुक, टेसू व ढाक के नाम से भी पुकारे जाते सुना है। ढाक  से याद आया कि पलाश के पेड़ के पत्तों की खासियत है कि वो साथ में हमेशा तीन के तीन रहते हैं उससे कम ज़्यादा नहीं, इसलिए हिंदी का एक प्रचलित मुहावरा है ढाक के तीन पात यानी स्थिति हमेशा वही की वही रहना।

इसका वैज्ञानिक नाम Butea Monosperma है और अपने औषधीय गुणों और रंग  रँगीले रूप की वज़ह से ये बड़ा उपयोगी पेड़ है । मैंने इन पेड़ों को 5 से 15 मीटर तक लंबा देखा है। झारखंड के जंगलों में इनकी ऊँचाई सेमल के पेड़ों की तुलना में काफी कम होती है। राँची से बोकारो, मूरी, जमशेदपुर जिस दिशा में आप बढ़ेंगे सड़क या रेलवे ट्रैक के दोनों ओर पलाश के पेड़ों को कतारबद्ध पाएँगे।

पलाश के पेड़ों को देखते हुए कई कवियों की रचनाएँ याद आ जाती हैं जिनमें से कुछ का उल्लेख मैंने अपने इस आलेख में कुछ वर्षों पहले किया थानरेंद्र शर्मा ने भी पलाश के खिलने से आए प्रकृति में परिवर्तनों को अपनी एक कविता में बखूबी चित्रित किया है। प्रकृति में पलाश की मची धूम पर उनकी लिखी ये पंक्तियाँ मुझे लाजवाब कर जाती हैं। गौर फरमाइएगा

लग गयी आग; बन में पलाश, नभ में पलाश, भू पर पलाश
लो, चली फाग; हो गयी हवा भी रंगभरी छू कर पलाश

नीचे के चित्रों के साथ नरेंद्र जी की पंक्तियाँ  सटीक बैठ रही हैं या नहीं  इसका निर्णय आप पर छोड़ देता हूँ ।
पतझर की सूखी शाखों में लग गयी आग, शोले लहके
चिनगी सी कलियाँ खिली और हर फुनगी लाल फूल दहके 
मार्च में कभी गोमो या धनबाद से रेल मार्ग से बोकारो आना हो तो बीच रास्ते में दिखता ये दृश्य आपका जरूर मन मोहेगा।
चम्पई चाँदनी भी बीती, अनुराग-भरी ऊषा आई।
जब हरित-पीत पल्लव वन में लौ-सी पलाश-लाली छाई

सोमवार, 19 फ़रवरी 2018

सृजनी शिल्पग्राम, शांतिनिकेतन : जहाँ का हर घर आपसे कुछ कहता है.. Srijani Shilpagram, Shantiniketan

देश के पूर्व और उत्तर पूर्व में अगर आप गए हों तो आपने देखा होगा कि इन इलाकों में कई जनजातियाँ निवास करती हैं। इनकी अपनी एक जीवन शैली है। एक अलग संस्कृति है जिसके बारे में देश के बाकी हिस्सों के लोग ज्यादा नहीं जानते। देश के विभिन्न भागों की सांस्कृतिक धरोहरों को आम जनता से परिचित कराने के लिए आरंभ में सात क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्रों की स्थापना की गयी जो आज बढ़कर आठ हो गयी है। पूर्वी क्षेत्र के लिए इसका गठन अस्सी के दशक में शांतिनिकेतन की ज़मीन पर किया गया था। बाद में ये कार्यालय कोलकाता में स्थानांतरित हो गया पर पूर्वी और उत्तर पूर्वी राज्यों की संस्कृति को झलकाता सृजनी शिल्प ग्राम तब तक यहाँ आकार ले चुका था।

इस रथचक्र से ये तो समझ ही गए होंगे कि किस प्रदेश का आशियाना है?

26 बीघे जमीन में फैले इस केंद्र में असम, सिक्किम, मणिपुर, झारखंड, ओड़ीसा, बिहार, बंगाल, अंडमान निकोबार और त्रिपुरा जैसे राज्यों की सहभागिता है। इन राज्यों के ग्रामीण परिवेश की झलक दिखलाने के लिए यहाँ नौ झोपड़ीनुमा घर बनाए गए हैं जिसके अंदर इन इलाकों में प्रयुक्त होने वाली करीब एक हजार से ज़्यादा जरुरत की सामग्रियाँ और शिल्प यहाँ प्रदर्शित हैं। 

सृजनी शिल्पग्राम जो शांतिनिकेतन जाने वाली सड़क पर आश्रम आने के दो तीन किमी पहले ही आ जाता है।

शांतिनिकेतन की यात्रा के बाद जब मैं इस परिसर में घुसा तो अंदर का वातावरण मन को मंत्रमुग्ध कर गया। यहाँ का हर घर आपसे कुछ कहता है। तो आइए आपको लिए चलते हैं इन झोपड़ीनुमा कमरों के अंदर अपनी विरासत की एक झलक दिखाने आज के इस फोटोफीचर में..


ओड़ीसा की झोपड़ी.. दीवारों की चित्रकला मेरा तो मन मोह गयी !

ये हैं घर के अंदर का दृश्य : चूल्हा, टोकरी और लटकती मटकी
ओड़ीसा में भी अलग अलग जनजातीय समूह पूरे राज्य में बिखरे हैं। वहाँ की सबसे जानी मानी चित्रकला है सौरा चित्रकला। छोटी छोटी ज्यामितीय आकृतियों से बनी ओड़ीसा की ये कला आज इतनी लोकप्रिय हो गयी है कि इसे आप हर हस्तशिल्प मेले का अभिन्न अंग पाएँगे। सौरा  भारत की प्राचीनतम जनजातियों में से एक हैं। मुख्यतः ओड़ीसा के दक्षिणी जिलों गंजाम, रायगढ़ा और कोरापुट में निवास करने वाली ये जनजाति पुरातन समय से अपने घर की मिट्टी की दीवारों पर बाँस की मुलायम कूचियों से इस कला को अंजाम देती रही है।

ओड़ीसा आदिवासी चित्रकला
इस चित्रकला के मूल भाव में आम जनमानस और उनके क्रियाकलाप और प्रकृति के विविध रूपों जैसे सूरज, चाँद, हाथी घोड़ों का अक्सर  चित्रण होता है।  इन चित्रों को आप भूरे या मिट्टी के रंग की पृष्ठभूमि में सफेद रंग से बना पाएँगे।

खपड़ैल के घर और पल पल थिरकने का माहौल ये है मेरे प्रदेश झारखंड की एक कुटिया।
अब बात झारखंड की जिसकी संस्कृति पूरी तरह प्रकृति से जुड़ी है। आप ही बताइए कि जिस प्रदेश का नाम ही जंगलों से पड़ा हो उसके रहन सहन का तरीका, खान पान और उद्यम भी तो हर तरह से अपने आस पास के वातावरण से जुड़े होंगे। अब प्रकृति पर्व सरहुल को ही लीजिए जो झारखण्ड का सबसे लोकप्रिय पर्व है।  ये पर्व यहाँ जंगल में साल वृक्षों पर पहले फूल आने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है।


ढोल, नगाड़े और मांडर की थाप के बिना झारखंड का कोई त्योहार पूरा नहीं होता। लोग नाचते भी हैं तो समूह में। बहुत कुछ दीवाल पर प्रदर्शित इस चित्रकला की तरह।
ऊपर चित्र में झोपड़ी के ऊपर जिस मुद्रा में स्त्रियाँ  दिख रही हैं उसी में नृत्य होता है। फर्क सिर्फ इतना है कि नृत्य के दौरान सफेद रंग और लाल पाड़ की साड़ी पहनी जाती है और स्त्रियाँ एक दूसरे की कमर में बाहें डाल कर खड़ी होती हैं । पुरुष भी भांति भांति के ताल वाद्यों और बाँसुरी को बजाते  हुए  साथ साथ ही थिरकते हैं।

और ये है  त्रिपुरा में पहने जाने वाले वस्त्रों की झांकी
त्रिपुरा और मणिपुर में अभी तक मेरे कदम नहीं पड़े हैं। इसलिए इन राज्यों में पहने जाने वाले वस्त्रों और संस्कृति को पास से देखने समझे की उत्कंठा यहाँ आने के बाद बढ़ गयी। मणिपुर की संस्कृति में प्राचीन काल से भगवान विष्णु की पूजा की जानकारी मुझे चौंकाने वाली थी। बाद में इस बारे में पढ़ा तो पता चला कि पन्द्रहवीं शताब्दी में मणिपुर के राजाओं के प्रश्रय से वैष्णव मतावलंबियों का यहाँ प्रचार  प्रसार हुआ। फिर चैतन्य महाप्रभु के भक्त नरोत्तम दास ठाकुर और उनके अनुयायिओं ने अठारहवीं शताब्दी में लोकगायन से इस परंपरा को और मजबूत किया।

मणिपुर में कृष्ण की स्तुति में गाए जाने वाले गीत लोक संस्कृति का हिस्सा हैं।
झारखंड के बाद अगली कुटिया थी बिहार की जिसका मुख्य आकर्षण था मिथिला की चित्रकला।
बिहार का जिक्र आए और यहाँ की मधुबनी वाली चित्रकला की बात ना हो ऐसा हो सकता है क्या?
आज इस चित्रकला को मधुबनी पेंटिग्स के नाम से जाना जाता है। इसका प्रसार भारत और नेपाल के मिथिला भाषी इलाकों में हुआ। पर मुख्य केंद्र बिहार का मधुबनी इलाका रहा। पारंपरिक रूप से इन्हें घर पर मिट्टी की दीवारों पर बनाया जाता रहा पर अब कपड़ों और कैनवास पे भी ये कला उकेरी जा रही है ।

इस चित्रकला की मुख्य थीम मानव और प्रकृति के साथ उसका संबंध रहा है। सामाजिक समारोह और देवी देवता भी इस तरह की पेंटिग का प्रायः हिस्सा रहे हैं। इस चित्रकला की एक खासियत ये भी है कि इसमें कोई  जगह खाली नहीं छोड़ी जाती। अक्सर खाली हिस्सों को फूलों व बेल बूटों से भर दिया जाता है।

और ये है पूजा घर और सूप में रखा प्रसाद। छठ पर्व में भी ये सूप पूजा के केंद्र में होता है बिहार में.

अंडमान की एक झोपड़ी
अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में आदिम जनजातियों के अनेक समूह हैं। पोर्ट ब्लेयर में जब मैं गया था तो इनके रहन सहन की विविधता को विस्तार से देख पाया था। सृजनी शिल्पग्राम में अंडमान निकोबार से जुड़ी जनजातियों के रहन सहन का ज्यादा विस्तार से चित्रण नहीं हुआ है। आशा है इस संबंध में यहाँ का प्रशासन जरूरी कदम उठाएगा।
पानी की मार से बचने के लिए निकोबार में ऐसे बनाए जाते हैं घर..
अब बंगाल में हों और वहीं के घर आँगन की झाँकी नहीं देखी ऐसा कैसे हो सकता है?
और ये है एक बंगाली आहाता

कठपुतली का नाच तो ख़ैर राजस्थान की विशेषता है पर गुड्डे गुड़िया बनाना तो पूरे भारत में ही लोकप्रिय है। बंगाल में इन पुतलों को "पुतुल घर" में रखा जाता है।

बंगाल, ओड़ीसा और झारखंड के सटे हुए इलाके संथाल, मुंडा और उराँव जन जातियों के गढ़ रहे हैं। इनके वीर बांकुड़ों की प्रतिमाएँ भी लगी हैं शिल्पग्राम में।

सृजनी शिल्पग्राम, शांतिनिकेतन का मुख्य द्वार
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