अगर पिछले महीने कच्छ की यात्रा पर नहीं गया होता तो शायद आपको आज बांद्रा ना ले जा रहा होता। दरअसल राँची से मुंबई की हवाई यात्रा के बाद जब वहाँ से कच्छ के लिए रेल का टिकट लेने लगा तो देखा कि कच्छ के लिए सभी रेलगाड़ियाँ बांद्रा टर्मिनस से ही रवाना होती हैं।
पेट्रोल को मारो गोली रख लो चप्पलों की जोड़ी :) |
मुंबई पहले भी कई बार जा चुका हूँ और पुरानी यादों में जूहू और बांद्रा का
इलाका फिल्मी कलाकारों का घोसला माना जाता था। पर हाल फिलहाल में बांद्रा , बांद्रा वर्ली सी लिंक के बनने से भी बराबर चर्चा में आता रहा था।
पर अपनी आभासी ज़िंदगी में यात्रा लेखकों की सोहबत में रहते हुए इस जगह के बारे में जो एक नई
बात मालूम हुई वो थी चैपल रोड के आसपास दीवारों पर जहाँ तहाँ फैली चित्रकला
जिसे पश्चिमी जगत में स्ट्रीट आर्ट भी कहा जाता है। तभी इसे देखने की इच्छा मन में घर कर गयी थी।
चैपल रोड में सबसे पहले दिखनी वाली चित्रकारी थी ये ट्रिपल आप्टिक्स : अब इन त्रिनेत्र की नज़रों से कौन बचेगा? |
कच्छ से लौटते वक़त
मेरे पास सुबह छः से दस बजे का वक़्त था सो मैंने मन ही मन अपनी एक सुबह
बांद्रा की गलियों में देने का निश्चय कर लिया। जाते समय ही क्लोक रूम की
स्थिति की जानकारी ले ली थी ताकि साथ का सामान सुबह सुबह ठिकाने लगाने में
सुविधा रहे।
तेरह जनवरी की सुबह जब हमारी ट्रेन बांद्रा स्टेशन पर पहुँची तो बाहर घुप्प
अँधेरा था। सात बजे जब हल्की हल्की लालिमा क्षितिज पर उभरी तो मैं अपने
मित्र के साथ मुंबई के चैपल रोड की ओर निकला। सूरज से पहले हमें मुंबई
की सड़कों से पूर्णिमा के चाँद के दर्शन जरूर हो गए।
बांद्रा टर्मिनस के आस पास के इलाके से गुजरते ये आभास ही नहीं होता कि हम उसी मायानगरी में हैं जहाँ बनी फिल्में अथाह सपनों के जाल बुन हमें लुभाती हैं। ऐसा लगा मानों हम एक कस्बे से गुज़र रहे हों। छोटे मँझोले घर जिनमें बरसों से रंग रोगन ना हुआ हो। घरों के सामने बेतरतीबी से रखे वाहन और बाजारों के निकट यत्र तत्र सर्वत्र फैली गंदगी।
बांद्रा टर्मिनस के आस पास के इलाके से गुजरते ये आभास ही नहीं होता कि हम उसी मायानगरी में हैं जहाँ बनी फिल्में अथाह सपनों के जाल बुन हमें लुभाती हैं। ऐसा लगा मानों हम एक कस्बे से गुज़र रहे हों। छोटे मँझोले घर जिनमें बरसों से रंग रोगन ना हुआ हो। घरों के सामने बेतरतीबी से रखे वाहन और बाजारों के निकट यत्र तत्र सर्वत्र फैली गंदगी।
सुबह की उस बेला में दफ्तर जाने की तैयारी में लोग जुटे थे। कुछ दुकानें खुल गयी थीं। पर माहौल अब भी अलसाया हुआ था और हम थे कि चैपल रोड के किनारे बसे हर घर की दीवारों को घूरते और गलियों में झाँकते गुजर रहे थे। शुरु के पाँच दस मिनटों में हमें इक्का दुक्का ही कलाकृतियाँ नज़र आयीं और तब समझ आया कि इन गली कूचों के अंदर से झाँकते इन कार्टून सदृश चरित्रों को देख पाना इतना आसान नहीं है।
अब दीवार पर बनी हरी शर्ट पहने ये जनाब तो नज़र आए पर इनके ठीक बगल में
बिल्डिंग की ऊँचाई पर बाल्टी से पानी गिराती महिला का चित्र हमारी नज़रों
के दायरे में आया ही नहीं। यहाँ तक कि हम इस इलाके की सबसे विख्यात मधुबाला की पेटिंग के नीचे से निकल गए और हमें पता ही नहीं चला। बाद में उसी सड़क
पर लौटते हुए वो मुस्कुराती दिखाई दीं तो उनके खूबसूरत चेहरे से नज़रें
हटाना मुश्किल हो गया।
स्ट्रीट
आर्ट के केंद्र की तरह बांद्रा का उभरना अपने आप में आश्चर्य से कम
नहीं हैं। चैपल रोड में घर की दीवारों पर बने ये चित्र ज्यादातर विदेशी
मूल के कलाकारों ने बनाए हैं। ये कलाकार छुट्टियों में भारत आते हैं और इन
बेनाम गलियों की इन दीवारों को अपनी कूचियों से रोशन कर देते हैं।
पर एक बात यहाँ आकर स्पष्ट हो जाती है कि जिन घर की दीवारों पर ये
चित्रकारी है वहाँ या उसके आस पास के लोग इनसे कोई जुड़ाव नहीं महसूस करते। यही वज़ह है कि
यहाँ की अनेक कलाकृतियाँ घर की गाड़ियों के बीच अपना मुँह छुपाती फिरती हैं।
कला को कला दीर्घाओं से निकालकर आम जनमानस के बीच ले जाने का विचार तो
अनुकरणीय है पर कला का विषय ऐसा हो कि स्थानीय संस्कृति उसे अपनी धरोहर
समझे तभी ऐसे प्रयोग पूरी तरह सफल हो सकते हैं।
बांद्रा की अनारकली |
चैपल रोड. हिल रोड और फिर बांद्रा बैंडस्टैंड के रास्ते से गुजरते हुए स्ट्रीट आर्ट का जो सबसे रोचक पहलू सामने आया वो था बॉलीवुड आर्ट प्रोजेक्ट ( BAP)। मुंबई के बाहर सारा देश इसे फिल्मनगरी समझता आँकता आया है। पर अपनी इस छवि को निखारना तो दूर इस शहर ने तो अपनी पहचान को समझने की ढंग से कोशिश ही नहीं की है। तभी तो हरियाणा के सोनीपत से ताल्लुक रखने वाले एक अदने से पेंटर को ये काम अपने जिम्मे लेना पड़ा।
हम्म, कभी इन नज़रों की पूरी पीढ़ी दीवानी हुआ करती थी ! |
ग्यारहवीं में पढ़ाई छोड़ पुताई के काम में लगे रंजीत दहिया को स्कूल की दीवार रँगते समय माँ सरस्वती की पेटिंग बनाने का मौका मिला और तभी से उनकी रुचि चित्रकारी में बृढ़ गयी। बाद में उन्होंने चित्रकला की विधिवत पढ़ाई पूरी की और मुंबई में इंटरफेस डिजाइनर बन गए। बॉलीवुड आर्ट प्रोजेक्ट के तहत शहर की दीवारों को बॉलीवुड के ऐतिहासिक लमहों को क़ैद करने का विचार उन्हें 2013 में आया। तबसे वो अमिताभ, मधुबाला, राजेश खन्ना व नादिरा जैसे कलाकारों को अपनी कूची से दीवारों पर ढ़ाल चुके हैं।
दादा साहब फालके |
बांद्रा रिक्लेमेशन के पास MTNL की इमारत पर मशहूर निर्माता निर्देशक दादा साहब फालके का चित्र BAP का नवीनतम प्रयास है। कहा जाता है कि 125 फीट लंबी और 150 फीट चौड़ी इस पेंटिंग पर तकरीबन चार सौ लीटर का पीला पेंट इस्तेमाल किया गया। अब आप ही बताइए जिसके नाम पर फिल्म उद्योग का इतना बड़ा पुरस्कार हो उसके चित्र को मुंबई के कितने लोग पहचानते थे अब तक ? फिलहाल BAP दिलीप कुमार की तस्वीर पर काम कर रहा है। वहीं का स्टूडियो गुरुदत्त की पेटिंग से गुलज़ार है। जरूरत है कि ऐसे प्रयासों की गति तेज़ करने की। मुंबई के रईस कलाकारों का फ़र्ज़ बनता है की वो इस मुहिम में अहम भूमिका निभायें ।
दीवार पर टिका दीवार का हीरो |