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मंगलवार, 5 जून 2012

रंगीलो राजस्थान : आइए करें माउंट आबू के बाजारों की सैर !

माउंट आबू का ये सफ़र अधूरा रहेगा अगर मैं आपको यहाँ के बाजारों की सैर ना कराऊँ। वैसे तो शिमला. मसूरी और दार्जीलिंग जैसे हिल स्टेशनों की तुलना में माउंट आबू के बाजारो में वो चमक दमक नहीं पर यहाँ की दुकानों में महिलाओं की भीड़ को देखकर आप ये जरूर अंदाजा लगा सकते हैं कि यहाँ उनके काम का सामान बहुतायत में  मिलता होगा। 

आबू का मुख्य बाजार यहाँ नक्की झील को जाने वाली सड़क पर लगता है। इसलिए यहाँ रात की चहल पहल का अंदाजा लगाने के लिए और अपनी भार्या का मूड सफ़र के अगले पड़ाव तक दुरुस्त रखने के लिए रोज़ शाम को एक चक्कर मार लिया करते थे। 

दरअसल मुख्य राजस्थान से ज्यादा गुजरात से पास होने का असर यहाँ की दुकानों पर साफ़ दिखाई देता है। यही वज़ह है कि यहाँ कि दुकानों में गुजरात की कढ़ाई और शीशे का काम राजस्थानी कला से कम नहीं दिखाई देता। तो चलिए ले चलते हैं आपको यहाँ के बाजारों में शापिंग कराने..

वैसे खरीददारी की शुरुआत अगर मुन्ना भाई की इस दुकान से की जाए तो कैसा रहे?
माउंट आबू के मुख्य माल पर पर्यटकों की भारी भीड़ रहती  है। लाज़िमी है कि इसमें सबसे ज्यादा हिस्सा गुजराती पर्यटकों का है। भीड़ के केंद्र में है चूड़ियों की दुकानें। ढेर सारी फ्लोरोसेंट लाइटों की जगमाहट के बीच जब किन्हीं हाथों में ये चूड़ियाँ उतरती हैं तो दुकान की चकमकाहट और भी बढ़ जाती है। दुकानदार एक बार जब अपना माल दिखाना शुरु कर दे तो रंग और चमक के इस दोहरे आकर्षण का जादू ऐसा कि शायद ही कोई ग्राहक खाली हाथ लौटे।



बुधवार, 30 मई 2012

रंगीलो राजस्थान : ब्रह्मकुमारी,अचलेश्वर महादेव और माउंट आबू का सूर्यास्त

नक़्की लेक, गुरुशिखर और देलवाड़ा मंदिर की सैर तो आपने पिछली प्रविष्टियों में की। आज के सफ़र की शुरुआत करते हैं माउंट आबू के विश्व प्रसिद्ध ब्रह्मकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय से। ब्रह्मकुमारी संप्रदाय के इतिहास पर नज़र डालें तो इसकी उत्पत्ति का श्रोत एक सिंधी, लेखपाल कृपलानी को दिया जाता है । दादा लेखपाल या ब्रह्मा बाबा पेशे से हीरों के व्यापारी थे जिन्होंने ने 1930 के दशक में आध्यात्मिक मार्ग पर चलने के लिए पाकिस्तान के सिंध प्रांत में ओम मंडली के नाम से एक सत्संग की शुरुआत की। देश के विभाजन के बाद 1950 में उन्होंने अपना मुख्यालय हैदराबाद, सिंध से माउंट आबू बना दिया। 1969 में बाबा के निधन के बाद विदेशों में भी इस संस्था का फैलाव तेजी से हुआ। 


पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए देलवाड़ा मंदिर से गुरुशिखर के रास्ते में ब्रह्मकुमारियों द्वारा एक शांति उद्यान यानि पीस पार्क बनाया गया है। यहाँ पर्यटकों को तीस चालिस की टोलियों में इकठ्ठा कर पहले इस समुदाय की विचारधारा के बारे में बताया जाता है। वैसे अगर आपने कभी ब्रह्मकुमारियों के मूलमंत्र को ना सुना हो तो उसे पहली बार सुनना थोड़ा अजीब जरुर लगेगा।

इस संप्रदाय का मानना है कि मानवता अपने अंतिम चरण में आ पहुँची है। कुछ ही समय बाद पूरे विश्व का विनाश हो जाएगा। और फिर सतयुग का स्वर्णिम काल पुनः लौटेगा। पर इसमें हम और आप नहीं होंगे। होंगे तो वैसे ब्रह्मकुमारी जिन्होंने अपनी आध्यत्मिक शिक्षा से अपने मन का शुद्धिकरण कर लिया है। सभ्यता का ये नया केंद्र भारतीय उपमहाद्वीप होगा जहाँ से संपूर्ण विश्व इन पवित्र आत्माओं द्वारा शासित होगा। ब्रह्मकुमारी, दुनिया में भगवान शिव को सर्वोच्च आत्मा मानते हैं।  


सोमवार, 14 मई 2012

पत्थरों पर बहती कविता : दिलवाड़ा (देलवाड़ा) के जैन मंदिर

याद पड़ता है कि पहली बार माउंट आबू का नाम,  सामान्य ज्ञान की किताबों में  यहाँ दिलवाड़ा मंदिर (Dilwada Temple) होने की वज़ह से ही पढ़ा था । इसलिए मन में इस शहर का नाम सुनते ही पर्वतीय स्थल से ज्यादा  दिलवाड़ा मंदिर की छवि ही उभरती थी। वैसे किताबों में पढ़ा दिलवाड़ा, माउंट आबू में आकर देलवाड़ा (Delwada) हो जाता है।

पर भारत सरकार तो इसे दिलवाड़ा ही मानती है क्यूँकि डाक तार विभाग द्वारा ज़ारी मंदिर के डाक टिकट पर तो यही लिखा है। जैसा कि आपको पहले ही बता चुका हूँ, मैं माउंट आबू जाने के पहले राणकपुर के जैन मंदिरों से हो के आया था। वहाँ की शिल्प कला से अभिभूत हो जाने के बाद मेरे दिमाग में ये प्रश्न उठ रहा था कि जब राणकपुर इतना सुंदर है तो फिर देलवाड़ा कैसा होगा ?

गुरुशिखर से लौटने के बाद तो हम सीधे अचलगढ़ से होते हुए दिन के करीब डेढ़ बजे देलवाड़ा मंदिर पहुँचे। जैन धर्मावलंबियों के लिए ये मंदिर दिन के बारह बजे तक के लिए खुला रहता है। सामान्य पर्यटकों को इसे देखने की सुविधा इसके बाद ही उपलब्ध होती है। इसलिए यहाँ आकर सीधे सुबह में मंदिर के दर्शन का कार्यक्रम ना बना लीजिएगा।  गाड़ी से उतर कर मंदिर की पहली छवि बहुत उत्साहित नहीं करती। मंदिर की ऊँची चारदीवारी के पीछे सफेद रंग से पुते  मंदिर का शिखर ही दिखता है जो स्थापत्य की दृष्टि से कोई खास आकर्षित नहीं करता। मुझे बाद में पता चलता है कि ऐसा संभवतः मुस्लिम आक्रमणकारियों की नज़रों से मंदिर को बचाने के लिए किया गया था। इसके बावज़ूद 1511 ईं में इस मंदिर को अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण का शिकार होना पड़ा था।

चमड़े के सामान. मोबाइल और कैमरे को जमा कर हमारा समूह मंदिर के बाहर लगी पर्यटकों की कतार में शामिल हो गया था। मंदिर द्वारा नियुक्त गाइड बारी बारी से बीस पच्चीस के समूह को अंदर ले जा रहे थे। हमें अपनी बारी के लिए ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी और शीघ्र ही हम इस मंदिर समूह के अंदर थे। देलवाड़ा मंदिर समूह मुख्यतः पाँच मंदिरों से मिलकर बना है। ये मंदिर हैं विमल वसही, लूण वसही, पीतलहर , पार्श्वनाथ व महावीर स्वामी मंदिर। इनमें से प्रथम दो गुजरात के सोलंकी शासकों के समय की स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूने हैं।


गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

माउंट आबू : आइए देखें गुरुशिखर का नैसर्गिक सौन्दर्य ...

सोलह नवंबर की सुबह बादलों से भरी थी। सुबह तरो ताज़ा होने के बाद हमारा पहला लक्ष्य गुरुशिखर था। माउंट आबू आने के पहले मैंने गुरुशिखर के बारे में खास सुन नहीं रखा था। पर जो मानचित्र मुझे स्थानीय पर्यटन केंद्र से मिला था उसमें देलवाड़ा मंदिर  के आगे गुरु शिखर की ओर जाती सड़क का उल्लेख अवश्य था। नक़्शे को ध्यान से देखने से स्पष्ट था कि अगर सबसे पहले हम माउंट आबू से पन्द्रह किमी दूर स्थित इस शिखर को देख लें तो वापस लौटते समय इसी रास्ते में पड़ने वाले ब्रह्माकुमारी शांति उद्यान (पीस पार्क) और देलवाड़ा मंदिर को देख सकते हैं। 

पिछला दिन और शाम हमने नक्की झील के आस पास के इलाके में गुजारी थी। सच कहूँ तो शहर का मुख्य हिस्सा आपको इस बात का अहसास नहीं करा पाता कि आप एक सुंदर से हिल स्टेशन में पधारे हैं। पर सुबह हम मुख्य मार्ग छोड़ कर जैसे ही शहर से चार पाँच किमी आगे बढ़े तब जाकर वो खूबसूरती दिखाई दी जिसकी उम्मीद हम पिछले दिन से ही लगाए बैठे थे। अरावली की छोटी छोटी पहाड़ियों के बीच पतली सी सड़क पर बढ़ती हमारी गाड़ी जब इस झील की बगल से गुजरी तो इसे देखकर मन प्रसन्न हो गया। चारों ओर से हरे भरे पेड़ों से घिरी इस झील का जल बिल्कुल शांत था। न पर्यटकों की भीड़ , ना नौकाओं की हलचल। ऐसा लगता था मानो इस हरियाली के बीच वो अपने आप में ही रमी हुई हो।

यहाँ के लोग इसे छोटी नक्की झील (Mini Nakki Lake) या ओरिया झील (Oriya Lake) भी  कहते हैं। ये प्राकृतिक झील नहीं है। दशकों पहले इस इलाके में लगातार आ रहे अकालों से निबटने के लिए यहाँ सरकार ने झील के लिए खुदाई शुरु करायी। मजदूरों को इस खुदाई के बदले निर्माण अवधि में रसद मुहैया कराई गयी। इस झील से थोड़ा आगे बढ़ने पर ओरिया का चेक पोस्ट आ जाता है। यहाँ से दो रास्ते अलग होते हैं एक दाहिनी ओर अचलगढ़ (Achalgarh) को चला जाता है।  

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

दास्तां नक्की झील की : आख़िर क्यूँ याद आए मुझे 'बलम रसिया' ?

पिछली पोस्ट में उदयपुर से चलते हुए हम जा पहुँचे थे माउंट आबू में। शाम का वक़्त था । नक्की झील हमारे सामने थी। एक रास्ता गाँधी घाट को जा रहा था जहाँ बोटिंग करने के लिए भारी भीड़ जुटी थी। नक्की झील कोई बहुत बड़ी झील नहीं है। हमें लगा कि जितना समय कतार में लगकर नौका की प्रतीक्षा में लगेगा उससे अच्छा वक़्त झील के किनारे किसी शांत सी जगह पर काटा जा सकता है। घाट से थोड़ी दूर छोटे छोटे दुकानदार लोक लुभावन  वस्तुओं के साथ पर्यटकों को आकर्षित कर रहे थे। हमने भी थोड़ी मोड़ी खरीददारी की और पास ही पानी में बने जहाजनुमा रेस्टोरेन्ट में चल पड़े। ये भोजनालय झील के दक्षिण पूर्वी किनारे पर स्थित है।


दरअसल रेस्टोरेंट उस वक़्त बिल्कुल खाली था। सारी भीड़ नौका विहार का आनंद लेने में मशगूल थी। चूंकि भीड़ के आने का समय नहीं हुआ था इसलिए बैरे भी इधर उधर थे। पानी के समीप शांति से बैठने का ये अनुकूल अवसर था।

सरोवर रेस्टोरेन्ट के डेक से झील का रमणीक दृश्य दिख रहा था। झील की दूसरी ओर की पहाड़ियों के नीचे उठते श्वेत फ्व्वारे और उन फव्वारों के बीच  चलती भांति भांति आकारों से सुसज्जित छोटी बड़ी नावें। कुछ दिखने में शाही तो कुछ बेहद आम। नावों से थोड़ी दूर  झील का गश्त लगाती प्यारी प्यारी बत्तखों के ढेर सारे परिवार। वैसे देश की कई अन्य झीलों की तरह यहाँ की पहाड़ियों पर के जंगल घने नहीं हैं।

सोमवार, 9 अप्रैल 2012

उदयपुर से माउंट आबू का सफ़र : कैसे बना आबू पर्वत ?

जब हमने अपनी राजस्थान यात्रा का कार्यक्रम बनाया था तो यही सोचा था कि यात्रा की शुरुआत माउंट आबू से करें और उसके बाद उदयपुर होते हुए जोधपुर की ओर बढ़ चलें। पर होटल की अनुपलब्धता की वज़ह से हमें शुरुआत उदयपुर से करनी पड़ी। उदयपुर में रहते हुए हमने चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़ और राणकपुर के मंदिरों को देख लिया। पर तीन रातें उदयपुर में बिताने के बाद भी ये मुगालता रह ही गया कि आज के उदयपुर को बाजारों, मोहल्लों, लोगोंके माध्यम से देखने व महसूस करने का मौका कम ही मिल पाया।

सज्जनगढ़ की ओर जाते वक़्त हम जरूर शहर के अंदर से निकले और सिटी पैलेस से नीचे उतरती सड़क पर बनी छोटी बड़ी दुकानों और बेतरतीब ट्राफिक से भी कई बार सामना हुआ। यहाँ के बाजार देखने का मौका ही नहीं मिला और रही खाने की जगहों की बात तो रात का खाना हमने हर दिन एक ही भोजनालय (जोधपुर रेस्ट्राँ) में किया क्यूँकि दिन भर मिर्च के चक्कर में आँसू बहाने वाले पुत्र को वहीं का भोजन रास आया था।

इस पूरी यात्रा में मेरे मन में उदयपुर और जैसलमेर को देखने का बड़ा रोमांच था और उदयपुर मुझे अपनी आशा के अनुरूप ही बेहद सुंदर लगा था। खासकर रात के समय जगमगाते उदयपुर की अद्भुत आभा को मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा। अपने राजस्थान भ्रमण की चौथी सुबह जब हम उदयपुर को छोड़ रहे थे तो मन में यही भाव उठ रहे थे कि यहाँ दोबारा भी आना अच्छा लगेगा।


माउंट आबू से आने वाले यात्रियों से हमने वहाँ की नक्की झील और दिलवाड़ा मंदिर का जिक्र बारहा सुना था। इसके आलावा पिताजी को वहाँ के ब्रह्मा कुमारी के आध्यात्मिक संगठन के मुख्यालय में जाने की बड़ी उत्सुकता थी। सुबह के करीब दस बजे हमारा समूह उदयपुर छोड़ चला था। शीघ्र ही हम राष्ट्रीय राजमार्ग 27 ( NH 27) पर आ गए थे। चार लेनों वाले इस राजमार्ग पर आप आसानी से 80-90 किमी प्रति घंटे की रफ़्तार से गाड़ी दौड़ा सकते हैं। पर राजस्थान में ये बात आम है कि जितनी अच्छी सड़क होगी उतने ही ज्यादा नाके आएँगे। उदयपुर और माउंट आबू के बीच कम से कम पाँच छः बार टौल लेने देने की प्रक्रिया से गुजरना पड़ा। मन ही मन सोचता रहा कि दस, बीस पचास के पत्तों को लाइन में लग कर बार बार सरकाने की बजाए अगर एक या दो बार में ही एकमुश्त पैसे ले लिए जाएँ तो कितना अच्छा रहे। सफ़र में रुकावट भी कम और इतने टौल प्लाजा (Toll Plaza)  की जरूरत भी नहीं रहेगी तब तो।

ख़ैर मौसम साफ था और रास्ते में आबादी बहुत ही कम थी। अरावली की पहाड़ियाँ रह रह कर सड़क के कभी एक तो कभी दोनों तरफ़ आ रही थीं। पहाड़ को तोड़ कर बनाए गए रास्ते का यह दृश्य सफ़र के कई महिने बाद भी मन में अंकित रहा।