कारो और कोयल ये दो प्यारी नदियां कभी सघन वनों तो कभी कृषि योग्य पठारी इलाकों के बीच से बहती हुई दक्षिणी झारखंड को सींचती हैं। बरसात में उफनती ये नदियां बाकी समय में अपनी दुबली पतली निर्मल धाराओं में अपने पाट में हौली हौली चाल से एक छोर से दूसरे छोर तक डोलती रहती हैं।
कारो और कोयल की भी दो अलग अलग शाखाएं हैं जो उत्तरी और दक्षिणी के नाम से विभक्त की जाती हैं। उत्तरी कारो दक्षिण दक्षिण पूर्व की ओर बहती हुई दक्षिणी कोयल से मिल जाती है। यही कोयल नदी फिर ओडिशा में राउरकेला के पास वेद व्यास में छत्तीसगढ़ से आ रही शंख नदी से मिलकर ब्राह्मणी का रूप धरती है।
किसी ज़माने में इनकी जलराशि को बांध कर कोयल कारो परियोजना के तहत बिजली उत्पादन की एक बड़ी योजना बनाई गई थी। पर नेहरू युग से आज तक स्थानीय ग्रामीणों के सतत विरोध के चलते थोड़ा बहुत काम होने के बाद ये परियोजना पटरी पर नहीं आ सकी और न भविष्य में आयेगी क्योंकि पुनर्वास के सरकारी वादों पर यहां बसने वाले मुंडा जनजाति के लोगों को कभी भरोसा नहीं रहा।
इसी उत्तरी कारो नदी के तट पर पिछले हफ्ते जाने का अवसर मिला। ये नदी रांची के पठारी इलाकों से निकलकर खूंटी जिले से होती हुई दक्षिणी छोटानागपुर के सिंहभूम जिले की ओर बहती है। इससे मुलाकात करने की सबसे अच्छी जगह तोरपा है जो झारखंड की राजधानी रांची से करीब साठ किमी दूरी पर स्थित है। तोरपा पहुंचने के लिए एक रास्ता रांची खूंटी मार्ग से होकर जाता है जबकि दूसरा लोधमा होते हुए कर्रा तोरपा रोड से होकर पहुंचता है। हमने इन दोनों में कम व्यस्तता वाला दूसरा मार्ग अपनाया।
झारखंड में सर्दियां चाहे जितनी पड़े जाड़ों की धूप शानदार होती है। तोरपा के पास उतर पड़े नदी के जल में। ऊपर से आती तीखी धूप नदी के ठंडे जल का स्पर्श पाकर मुलायम हुई जा रही थी। नदी में कहीं कहीं गहराई थी पर अधिकांश हिस्सों में घुटनों से भी नीचे पानी था। थोड़ी दूर नदी के किनारे फैले जंगल और फिर चट्टानों से कूदते फांदते हम आगे बढ़े। हमारा पहला लक्ष्य उत्तरी कारो और छाता नदी के संगम तक पहुंचना था।
नदी में नहाने का मन तो नहीं था पर उसके साथ साथ भ्रमण करने की इच्छा दिल में जोर मार रही थी। सो ऊंचाई से नीचे की ओर जाती पगडंडी का सहारा लेकर चल पड़े नदी के बीचों बीच। नंगे पैर पहाड़ी नदियों में चलना तकलीफ़ को आमंत्रण देना है। ये नदियां अपनी तलहटी में ढेर सारे छोटे छोटे टेढ़े मेढे नुकीले पत्थर समोये रहती हैं। जब तक बालू वाला हिस्सा आपके पैरों के नीचे रहता है तब तक तो आनंद है पर फिर इन कंकड़ पत्थरों की चुभन आपकी यात्रा में साथ बनी रहती है। पर बिना कष्ट सहे आप प्रकृति के नैसर्गिक सौंदर्य को कहां महसूस कर पाएंगे? नरेश सक्सेना जी ने यूं ही तो ये कविता नहीं लिख दी
पुल पार करने से, पुल पार होता है
नदी पार नहीं होती
नदी में धँसे बिना
पुल का अर्थ भी समझ में नहीं आता
थोड़ी ही देर में हम छाता और उत्तरी कारो के संगम पर थे। ।
छाता नदी में अपेक्षाकृत कम पानी था इसलिए हम उसे छोड़ कारो नदी वाले रास्ते पर आगे बढ़ गए। बालू दोहन की समस्या इन पहाड़ी नदियों के अस्तित्व के लिए काल बनी हुई हैं।
उत्तरी कारो नदी का पाट कहीं समतल, कही अचानक से ऊंचा नीचा तो कहीं चट्टानी है। यही वज़ह है कि ये नदी अपने पथ में पेरवा घाघ, चंचला घाघ और पांडू पुडिंग जैसे मनोरम स्थलों का निर्माण करती है जहां साल के शुरू में आगंतुकों की भीड़ लगी रहती है।
हल्का बहता पानी सूर्य की रोशनी में बालू के ऊपर खूबसूरत आकृतियां बना रहा था। जल की स्वच्छता देखते ही बन रही थी। चलते चलते मैं कहीं रुक जाता तो ऐसा लगता मानो मैं भी विपरीत दिशा में बहा चला जा रहा हूं। नदी के किनारे किनारे घने वृक्षों की छाया उसकी गहराई के साथ मिलकर पानी को हर रंग दिए दे रही थी। चलते हुए हम इस बात के लिए अतिरिक्त सावधानी बरत रहे थे कि उस हरे रंग की परिधि के बाहर ही रहें। हालांकि दोपहर होने को थी पर पक्षियों का कलरव अभी भी उस स्थान की नीरवता में मिठास घोल रहा था।
नदी के बीच बीच की चट्टानें पन कौवों की आरामगाह होती हैं जहां वो अपने पंख सुखाने के साथ शिकार पर भी नज़र बनाए रखते हैं। हम उनके इलाके में प्रवेश कर गए थे सो वो आकाश में ही चक्कर लगा रहे थे कि कब ये श्रीमान यहां से हटें तो मैं अपना आसान जमाऊं।
घंटे भर यूं ही चलने के बाद हम नदी पार कर पुल के रास्ते वापस आए।
कम पानी में इसी तरह चलने का मौका इससे पहले ओडिशा में मुझे चांदीपुर में मिला था। पर वहां बालू का कुशन हमेशा हमारे साथ था। पर ये अनुभव उससे अलग था। उत्तरी कारो की ये स्मृतियां हमेशा दिल में रहेंगी।