पिछली दीपावली नागपुर में बीती। दीपावली के बाद हाथ में दो दिन थे तो लगा क्यूँ ना आस पास के राष्ट्रीय उद्यानों में से किसी एक की सैर कर ली जाए। ताडोबा और पेंच ऍसे दो राष्ट्रीय उद्यान हैं जो नागपुर से दो से तीन घंटे की दूरी पर हैं। अगर नागपुर से दक्षिण की ओर निकलिए तो चंद्रपुर होते हुए लगभग डेढ़ सौ किमी की दूरी तय कर आप ताडोबा पहुँच जाएँगे। दूसरी ओर नागपुर से पेंच के सबसे नजदीकी गेट सिल्लारी की दूरी मात्र 70 किमी है।
पेंच और तडोबा बाघों के मशहूर आश्रयस्थल हैं पर मेरी दिलचस्पी बाघों से कहीं ज्यादा सुबह सुबह जंगल में विचरण करने की थी। वैसे भी किसी जंगल में मेरे जैसे यात्री के लिए सबसे सुखद पल वो होता है जब आप शांति से एक जगह बैठ कर उस की आवाज़ों को आत्मसात करें। फिर चाहे वो अनजाने पक्षियों की बोली हो, पत्तों की सरसराहट हो, कीट पतंगों का गुंजन या फिर अनायास ही किसी जंगली जानवर के आ जाने की आहट।
ताडोबा में जहाँ मैंने रुकने का सोचा था वहाँ जगह नहीं मिली तो पेंच का रुख किया। महाराष्ट्र में जितने भी राष्ट्रीय उद्यान हैं उनमें अंदर के विश्राम स्थल पर्यटकों के लिए बंद कर दिए गए हैं। यानी रुकने की व्यवस्था जंगल के बाहर ही है। पेंच राष्ट्रीय उद्यान का ज्यादातर हिस्सा मध्यप्रदेश और कुछ महाराष्ट्र में पड़ता है। इस उद्यान में प्रवेश करने के कई द्वार हैं। नागपुर से सिल्लारी गेट सबसे पास है और अन्य लोकप्रिय द्वारों की तुलना में अपेक्षाकृत अछूता है इसलिए मैंने इसे ही चुना।
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पेंच राष्ट्रीय उद्यान के मुख्य द्वार की ओर जाती सड़क |
दीपावली के दो दिन बाद भरी दुपहरी नें अपने दल बल के साथ हमने पेंच की ओर कूच कर दिया। एक घंटे से ऊपर का समय नागपुर के ट्रैफिक को साधने में ही लग गया। नतीजन सिल्लारी तक पहुँचते पहुँचते दिन के दो बज गए।
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अमलतास, जंगल के बाहर बना वन विभाग का रिसार्ट |
सिल्लारी गेट के पास महाराष्ट्र पर्यटन और वन विभाग के दो अच्छे ठिकाने हैं। रहने के लिए मैंने वन विभाग के इको रिसार्ट अमलतास को चुना था। नाम के अनुरूप वहाँ अमलतास के पेड़ तो नज़र नहीं आए पर परिसर के पीछे का हिस्सा घने जंगलों से सटा मिला। अब जंगल पास होंगे तो बंदर और लंगूर कहाँ पीछे रहने वाले हैं। वो भी हमारे आशियाने का आस पास अपनी धमाचौकड़ी मचाने में व्यस्त थे। अपने कमरों को खोलकर हमने घर से लाए भोजन को खोलना शुरु किया ही था कि कमरे के दरवाजे पर हल्की सी आहट हुई। जब तक मैं कुछ समझ पाता कमरे का दरवाजा खुला और एक बंदर ने झाँकते हुए अंदर आने की इच्छा प्रकट की। समझ आ गया कि इन्होंने भोजन की गंध भाँप ली है। ख़ैर वो तो भगाने से भाग गया पर उसके बाद कमरे में बैठने पर किसी ने भी अपना द्वार खुला रखने की जुर्रत नहीं की।
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रिसार्ट वाले कमरे में भी जंगल वाली 'फील' लाना नहीं भूलते। |
वन विभाग ने इन कमरों को बड़ी खूबसूरती से सजाया है। हर पलंग के सिराहने यहाँ के मुख्य आकर्षण बाघ की छवि तो बनी ही है, साथ ही हर कमरे की सामने की दीवार पर कोई ना कोई वन्य प्राणी जैसे मोर, सियार, लोमड़ी आदि बड़ी खूबसूरती से चित्रित किए गए थे। वन विभाग ने ये सुनिश्चित कर रखा है कि अगर जंगल में इन जीवों से मुलाकात ना भी हो तो वापस लौट कर रिसार्ट में तो मुलाकात होगी ही।
अमलतास में तब पर्यटकों की अच्छी खासी हलचल थी। शाम की सफारी के लिए वन विभाग की गाड़ियाँ तैयार खड़ी थीं। नागपुर से पास होने की वजह से कई लोग यहाँ बिना रात बिताए सिर्फ सफारी का आनंद ले कर लौट जाते हैं पर हमें तो अगले दिन तक रुकना था तो सोचा कि क्यूँ ना सिल्लारी गेट तक के इलाके में थोड़ी चहलकदमी की जाए।
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स्लेटी रामगंगरा (Cinereous Tit) |
रिसार्ट के आगे एक रास्ता वहीं गाँव की ओर मुड़ता था। गाँव में बीस तीस घर और एक छोटा सा मंदिर और एक चबूतरा था। शाम के वक़्त शायद वो चबूतरा बतकही का अड्डा बनता हो पर उस दुपहरी में वहाँ सन्नाटा पसरा था। खेतों में चारा चरती गायें और उनका अनुसरण करते बगुले, दाने की तलाश में उड़ते कपोतक और गौरैया ही उस निस्तब्धता को तोड़ रहे थे। राह में टुइयाँ तोते के साथ
सलेटी रामगंगरा भी दिखाई पड़ीं।
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सागरगोटी या सागरगोटा |
चलते चलते मुझे एक अजीब सा पौधा दिखा जिसकी अंडाकार फलियों पर ढेर सारे काँटे उगे थे। पूछने पर पता चला कि स्थानीय भाषा में इसे सागरगोटी कहते हैं और इसका इस्तेमाल लोग मलेरिया सहित कई रोगों के उपचार के लिए करते हैं।
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सुबह सुबह जंगल के अंदर जाने को तैयार |
मुझे बताया गया कि अगली सुबह की सफारी के लिए टिकट साढ़े पाँच बजे से ही मिलने लगते हैं। वन विभाग का महकमा भोर होते ही काउंटर पर मुस्तैद दिखा। पूरी गाड़ी, गाइड व कैमरे के साथ करीब साढ़े तीन हजार की रकम चुकता कर हमारा कुनबा सिल्लारी गेट की ओर बढ़ गया। ठंड तो गुनगुनी थी पर हल्के हल्के बादलों ने जंगल के बीच सूर्योदय को देखने के आनंद से हम सबको वंचित रखा। जंगल में घुसते ही जो पहला पक्षी दिखा वो धनेश (Grey Hornbill) था। पेड़ की ऊँचाइयों पर आराम से आसन जमा रखा था उसने। थोड़ा और आगे बढ़े तो कोतवाल के जंगली सहोदर रैकेट टेल ड्रैंगो (Racket Tail Drongo) की लहराती उड़ान दिखी। ये पक्षी जब उड़ान भरता है तो पंखों के दोनों ओर लतरों की तरह हवा में लहराती हुई डंडियाँ देखते ही बनती हैं।
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जंगल के अंदर... |
इधर मैंने अपनी नज़रें आसमान में पक्षियों की तलाश में टिकाई थीं और उधर हमारा गाइड जंगल में पाए जाने वाले पेड़ों की चर्चा कर रहा था। झारखंड, ओडीसा और छत्तीसगढ़ में जहाँ साल के पेड़ों की प्रधानता वाले जंगल ज्यादा हैं वहीं पेंच का जंगल सागवान (सागौन) यानी टीक के पेड़ों की प्रचुरता है। चौड़े पत्तर और क्रीम रंग के फूलों से लदे इसके पौधे बहुत सुंदर तो नहीं लगते पर अपनी कीमती लकड़ी की वज़ह से गर्व से इतराए खड़े दिखे। सागौन की अधिकता यहाँ भले अधिक हो पर पेंच के जंगल को मिश्रित जंगल कहना ज्यादा उचित होगा क्यूँकि यहाँ इसके आलावा बेर, गूलर, तेंदू पत्ता, बरगद, बाँस और अन्य कई जंगली पेड़ और लताएँ भी दिखाई पड़ीं।
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माँ का प्रेम |
गाइड बड़े मजे से घोस्ट ट्री के बारे में बता रहा था। ये पेड़ अपनी छाल का रंग बदलता रहता है। घुप्प अँधेरे में अपनी चमकती सफेद छाल की वजह से अंग्रेजों के समय से इसका ये नाम प्रचलित हो गया। ऐसे ही मगरमच्छ के कवच जैसी छाल रखने वाले पेड़ का यहाँ क्रोकोडाइल ट्री नाम सुनने को मिला।
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बाँस की झाड़ियाँ |
जंगल अब घना होता जा रहा था। हमारा वाहन पक्की से कच्ची सड़क की राह लेता हुआ अब लगातार हिचकोले ले रहा था। मोर, हिरण और सांभर अपने दर्शन दे चुके थे। एक भूरी फैन टेल कैमरे का ट्रिगर दबाने से पहले ही फुर्र हो गयी थी। लाल भूरा कठफोड़वा भी अपनी आवाज़ के साथ हल्की झलक दिखाकर जाने कहाँ अदृश्य हो गया था। गाड़ी का इंजन जहाँ शांत होता पक्षियों की आवाज़े गूँजने लगतीं पर उतने घने जंगल में उन्हें ढूँढ पाना दुसाध्य काम था।
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दर्शन मोर का |
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चीतल (Spotted Deer) |
आसमान छूते पेड़ों पर अचानक से हरियल का एक झुंड दिखा। गाड़ी रोककर नीचे से किसी तरह उनकी तस्वीर ली। अब महाराष्ट्र के राजकीय पक्षी से अपनी मुलाकात का सबूत तो अपने पास रखना ही था।
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हरियल (Green footed Pigeon) |
सड़क के किनारे अब पानी की एक धारा का स्वर जंगल के स्वर में एकाकार हो चुका था कि तभी हमें झाड़ियों के बीच एक विशाल गौर दिखाई पड़ा। भूरे घुटने के नीचे इसके सफेद रंग के पैर होने की वजह से गाइड इसे अक्सर सफेद मोजे पहनने वाला बताते हैं। ये गौर खा पीकर इतना मोटा ताजा हो गया था कि इसका अपने झुंड से साथ छूट गया था। पानी की धारा अब हमें पेंच नदी के बिल्कुल करीब ले आई थी जिसके ऊपर इस पार्क का नाम पड़ा है। ये नदी उत्तर से दक्षिण की ओर बहती हुई इस उद्यान को दो बराबर भागों में बाँटती है।
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भारतीय गौर (Indian Bison) |
नदी को छू कर हम लौट ही रहे थे कि पता चला कि हमारे पीछे आने वाली गाड़ी में से एक के सामने से एक बाघ छलाँग लगाता हुआ जंगल में ओझल हो गया। वापस लौटते हुए उस स्थान पर थोड़ी देर रुके भी पर बाघ के पैरों के ताज़ा निशान के आलावा हमारे हाथ कुछ ना लगा।
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बाघ के पद चिन्ह |
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टुइयाँ तोता मादा |
जंगलों की भूल भुलैया में करीब तीन चार घंटे बिताने के बाद अब बारी वापस लौटने की थी।
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सफ़र वापसी का
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लौटते वक्त मंदिरों के शहर रामटेक का एक छोटा सा चक्कर लगा। जैसे कि नाम से ही स्पष्ट है रामटेक यानी जहाँ कभी भगवान राम टिके थे। नागपुर से पचास किमी दूरी पर स्थित ये शहर मंदिरों का शहर है। ऐसी किंवदंती है कि वनवास के दौरान भगवान राम का ठिकाना यहाँ भी था। आज भी हजारों लोग प्रतिदिन पहाड़ पर बने राम मंदिर जिसे गड मंदिर भी कहा जाता है में भगवान राम के दर्शन करने आते हैं। राम मंदिर के आलावा यहाँ प्राचीन जैन मंदिर भी हैं।
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खिंडसी झील |
पेंच नेशनल पार्क से वापस लौटते हुए मैं इस शहर से गुजरा जरूर पर ज्यादा समय ना होने के चलते खिंडसी झील होकर ही वापस नागपुर लौट आया। खिंडसी में धूप तेज़ होने की वजह से नौकायन का आनंद नहीं उठाया। भूखे पेट में मीठी चाशनी में डूबे सूखे बेरों के साथ चटकीली झालमुड़ी का भोग तो सबको रास आया। साथ ही सफेद गोलाकार चीज भी बिकती दिखी जिसका नाम मैं अब भूल गया। कोई 'मराठी माणूस' मदद करे याददाश्त ताज़ा करने में तो कृपा होगी।
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बोलो बोलो बोलो बोलो ना.. क्या है मेरा नाम ? :) |
ये तो मेरा भी दुखड़ा है, क्लिक करने से पहले ही चिड़िया फुर्र हो जाती है।
जवाब देंहटाएंपैदल चलते हुए ये समस्या कम आती है पर जंगल में गाड़ी पर चलते हुए जब तक गाड़ी रुके और कैमरा फोकस सही कर सके, कई बार देर हो चुकी होती है।
हटाएंरामटेक और खिंडसी अगले भाग में ?
जवाब देंहटाएंरामटेक में ज्यादा वक़्त नहीं बीता इसलिए ज्यादा कुछ लिखने को है नहीं वहाँ के बारे में।
हटाएंबहुत रोचक वृतांत और सुंदर छायांकन.��
जवाब देंहटाएंआपको पसंद आया जानकर खुशी हुई।
हटाएंAapne kotwal ka jo varnan kiya... main akash me use dekhne ki koshish kar rhi hu
जवाब देंहटाएंपसंद करने के लिए धन्यवाद। नागपुर और सीमलीपाल में पक्षियों से मुलाकात ज्यादा लंबी और शानदार रही। शीघ्र ही उनकी बातें भी यहाँ करूँगा
हटाएंNa jane kyu adhura sa laga...ya bhag-2 ayega?
हटाएंOhh Adhura kyun laga phir? Ramtek mein jyada waqt nahin beeta is liye uske bare mein nahin likha.
हटाएंप्रकृति और वन्यजीवों के मध्य बीते सुकूनदायी पलों का रोमांचक वर्णन।
जवाब देंहटाएंआलेख सराहने के लिए शुक्रिया।
हटाएंवाह पेंच के बारे में ज्यादा पढ़ नही रखा है तो उत्सुकता है आपकी पोस्ट पढ़ने की...गेट भी नही पता थे ज्यादा सिल्लारी गेट के बारे में अमलतास के बारे में सुन कर अच्छा लगा...रुडयार्ड किपलिंग की दुनिया मे मोगली के देश मे बाघ देखने की प्रतीक्षा रहेगी हमे..बढ़िया लेख...
जवाब देंहटाएंपेंच में लोग ज्यादातर मध्यप्रदेश वाले हिस्से की तरफ से घुसते हैं। मैं नागपुर में था तो सिल्लारी से घुसा। बाघ दिखने की ज्यादा संभावना गर्मियों में होती है। बारिश की वजह से जंगल और सघन हो जाते हैं और वन्य जीवों को छुपने के ज्यादा मौके मिल जाते हैं। लेख पसंद करने के लिए शुक्रिया !
हटाएंबढ़िया यात्रा वृतांत। अंगामी लेख का इंतजार रहेगा।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
हटाएंKya baat hai, ��Nyi jagah
जवाब देंहटाएंमुसाफ़िर का तो काम ही है नई जगह दिखाना।
हटाएंbahut hi achhi photography aur aalekh... prakriti se mujhe bhi bahut prem hai... aur khaskar aise jagah me samay bitana bahut hi sukoon deta hai...
जवाब देंहटाएंस्वागत है प्रशांत, बहुत दिन बाद नज़र आए। हाँ मुझे भी बहुत अच्छा लगता है प्रकृति की सुंदरता को आत्मसात करना !
हटाएंबहुत खूब। जीवंत विवरण और भी बढ़िया
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सराहने के लिए !
हटाएंमज़ा आ गया. �� पेंच अभी तक नहीं देखा है. मौक़ा लगने पर ज़रूर देखूँगा.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ! नागपुर कभी चक्कर लगे तो एक दिन में भी एक चक्कर मार सकते हैं।
हटाएंचित्रो की सजीवता सब कुछ कह देती है। हाँ एक बात पेंच का वर्णन ऐसे समय पर आया कि जब महाराष्ट्र मे पेंच फसा हुआ है।
जवाब देंहटाएंपेंच टाइगर रिजर्व में ही चड्डी पहन के फूल खिला था सर।
जवाब देंहटाएंकहीं ये कैंथा तो नहीं है
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