पुणे महाराष्ट्र का एक ऐसा शहर है जहाँ दो तीन साल में एक बार जाना होता रहा है। दो दशक पहले जब पहली बार यहाँ की हरी भरी ज़मीं पर क़दम रखा था तो यहाँ से लोनावला और खंडाला जाने का अवसर मिला था। वैसे भी खंडाला उन दिनों आमिर खान की फिल्म गुलाम के बहुचर्चित गीत आती क्या खंडाला से.... और मशहूर हो चुका था। पश्चिमी घाटों की वो मेरी पहली यात्रा थी जो आज तक मेरे मन में अंकित है।
डेढ़ साल पहले जब महाबलेश्वर और पंचगनी जाने का कार्यक्रम बना तो कुछ दिन पुणे में एक बार फिर ठहरने का मौका मिला। शहर की कुछ मशहूर इमारतों और मंदिरों को देखने के बाद पश्चिमी घाट के आस पास विचरने की इच्छा ने पर पसारने शुरु कर दिए। मुंबई के मित्रों से झील और हरे भरे पहाड़ों के किनारे बसाए गए इस शहर की खूबसूरती का कई बार जिक्र सुना था।
फिर ये भी सुना कि किस तरह ये शहर पूरी तरह विकसित होने के पहले ही ढेर सारे विवादों में घिरता चला गया पर इस शहर को एक बार देखने की इच्छा हमेशा मन में रही।
फिर ये भी सुना कि किस तरह ये शहर पूरी तरह विकसित होने के पहले ही ढेर सारे विवादों में घिरता चला गया पर इस शहर को एक बार देखने की इच्छा हमेशा मन में रही।
टेमघर बाँध की दीवार से रिसता पानी |
अक्टूबर के तीसरे हफ्ते के एक सुनहरे चमकते हुए दिन हमारा काफिला दो कारों में सवार होकर खड़की से लवासा की ओर चल पड़ा। पुणे में ज्यादा ठंड तो पड़ती नहीं। महीना अक्टूबर का था तो मौसम में हल्की गर्मी थी। वैसे तो पुणे से लवासा की दूरी साठ किमी से थोड़ी कम है पर आधा पौन घंटे तो पुणे महानगर और उसके आसपास के उपनगरीय इलाकों से निकलने में ही लग जाते हैं। फिर तो आप पश्चिमी घाट की छोटी बड़ी पहाड़ियों की गोद में होते हैं।
मुठा नदी पर बनाया गया टेमघर जलाशय |
सफर की तीन चौथाई दूरी तय करने के बाद मुठा नदी पर बना टेमघर बाँध आ जाता है। वैसे इस बाँध की खूबसूरती इसके थोड़ा आगे बढ़ने पर तब दिखाई देती है जब इससे लगा जलाशय सड़क के बिल्कुल आपसे हाथ मिलाने चला आता है। लाल मिट्टी के किनारे बहता नीला आसमानी जल अपने पीछे की हरी भरी पहाड़ियों का सानिध्य पाकर और खूबसूरत लगने लगता है। ऍसी जगहों में वक़्त बिताने का आनंद तब और बढ़ जाता है जब वहाँ शांति हो। हमारे आलावा वहाँ बस पाँच छः लोग और थे।
ढाल से नीचे उतरकर कुछ देर हम सभी टेमघर की सुंदरता में खोए रहे। सड़क के किनारे भुट्टे सिंक रहे थे। फेरीवालों की आवाज़ से मेरा ध्यान टूटा तो लगा कि अब यहाँ रुके हैं तो भुट्टों का स्वाद भी ले ही लेना चाहिए।भुट्टों की बात से याद आया कि पुणे की तरफ उपजने वाले भुट्टे उत्तर भारत के भुट्टों की अपेक्षा बेहद मीठे होते हैं।
ढाल से नीचे उतरकर कुछ देर हम सभी टेमघर की सुंदरता में खोए रहे। सड़क के किनारे भुट्टे सिंक रहे थे। फेरीवालों की आवाज़ से मेरा ध्यान टूटा तो लगा कि अब यहाँ रुके हैं तो भुट्टों का स्वाद भी ले ही लेना चाहिए।भुट्टों की बात से याद आया कि पुणे की तरफ उपजने वाले भुट्टे उत्तर भारत के भुट्टों की अपेक्षा बेहद मीठे होते हैं।
लाल मिटटी और नीला जल |
टेमघर बांध खड़कवासला और वारसगाँव की तरह पुणे शहर की पानी की जरूरतों को पूरा करता है। ये सारे बाँध मुठा और उसकी सहायक नदियों पर बने हैं। टेमघर से लवासा के बाहरी द्वार तक पहुँचने में मुश्किल से बीस मिनट लगते हैं। ये पूरा रास्ता घुमावदार और चढ़ाई वाला है। कभी तो घास के चारागाहों से भरी पूरी पहाड़ियाँ बिल्कुल करीब आ जाती हैं तो कभी वारसगाँव का जलाशय दूर से ही अपनी झलक दिखा जाता है।
हरे भरे पहाड़ी टीले |
आज से करीब एक डेढ दशक पहले लवासा को आज़ादी के बाद बनाए जाने वाले पहले हिल स्टेशन के रूप में प्रचारित किया गया। पश्चिमी घाट की मुल्शी घाटी में बने इस हिल स्टेशन की रूप रेखा का प्रेरणास्रोत इटली का कस्बा पोर्टोफिनो था। सौ वर्ग किमी के क्षेत्र में फैले इस इलाके में पाँच अलग अलग कस्बे बनने थे पर काम पहले चरण तक ही ठीक ठाक चला।
जब मैं लवासा पहुँचा तो दोपहर हो चुकी थी। लावसा के लिए हमें मुल्शी घाटी की तलहटी तक जाना था। पर शहर का पूरा दृश्य देखने के लिए हम सब पहले ही उतर लिए।
लवासा में आपका स्वागत है। |
ऊपर से घने जंगलों के बीच भूरी छतों वाले घरों की समानांतर फैली कई कतारें नज़र आ रही थीं जो कि लवासा झील के पास खत्म हो जाती थीं। कुछ घर और ऊँचाई पर हरियाली के बीच एकांत खड़े दिख रहे थे। लवासा शहर के अंदर जाने के लिए पर्यटकों के लिए एक शुल्क और रास्ता निर्धारित है जिनसे होकर आप इस शहर के एक हिस्से का दीदार कर सकते हैं।
लवासा सिटी का एक विहंगम दृश्य |
नीचे उतरते हुए में लवासा शहर के पहले कस्बे दासवे (Dasve) से गुजरा। भरी दोपहरी में ये कस्बा शांत शांत और उजाड़ सा लग रहा था। जो थोड़ी बहुत भीड़भाड़ थी वो हमारे जैसे लवासा घूमने आए लोगों की थी। झील के पास कुछ छोटे बड़े भोजनालय थे। इतनी तीखी धूप में झील तक जाने की तुरंत हिम्मत नहीं हो रही थी। थोड़ी देर विश्राम और फिर जलपान कर हम सभी नीचे उतरे।
पहाड़ों से झाँकता एक घर |
मुख्य जेटी के आस पास की हरियाली |
सामने ही जेटी थी। इस शहर की रंगीनियत को अगर पास से महसूस करना हो तो ये जरूरी है कि आप तहाँ आकर नौका विहार का आनंद लें। स्पीड बोट की यात्रा तो पन्द्रह बीस मिनटों में झील का एक छोटा चक्कर लगा देती है। लवासा के दूसरी तरफ झील पर बने पुल से रास्ता वहाँ आस पास बसे गाँवों तक जाता है। कुछ गाँव तो पुराने हैं और कुछ ऐसे जिन्हें ये जलाशय और शहर बनने से विस्थापित किया गया है।
स्पीड बोट का आनंद |
मैं इटली दो साल पहले गया था। इटली के कई शहरों से गुजरते हुए मैंने पाया कि ज्यादातर मकान पीले भूरे रंग के मिश्रण (Beige Colour) से जरूर रँगे होते थे। लवासा में झील के किनारे जो मकानों की श्रृंखला है उसमें इनके आलावा गुलाबी रंग का भी समावेश है जो मछुआरों के शहर पोर्टोफिनो में इस्तेमाल रंगों से मिलता जुलता समायोजन है।
लवासा झील के किनारे दिखता शहर का रंग बिरंगा रूप |
लवासा झील दरअसल वारसगाँव जलाशय का एक सिरा है। शहर की पानी की आपूर्ति भी इसी झील से होती है। मैं पोर्टोफिनो तो नहीं गया पर वेनिस शहर के पास आते जैसा एहसास मन में होता है उसका एक लघुतर अनुभव लवासा की ये नौका यात्रा भी दे जाती है। झील के किनारे बसे इस शहर को देखकर ऐसा महसूस हुआ कि अगर अपने आसपास की प्रकृति को अक्षुण्ण रखते हुए अगर हम अपने नए शहरों को योजनाबद्ध तरीके से विकसित करेंगे और उसकी सड़कों, गलियों, उद्यानों, नदियों को साफ सुथरा रखेंगे तो यकीन मानिए हमारे शहरों और विकसित देशों के शहरों में कोई खास फर्क नहीं रह जाएगा।
नीले हरे पानी के साथ रंगीन इमारतों की चारों ओर बिखरी कड़ियाँ और उनके पीछे सीना ताने खड़ी हरी भरी पहाड़ियाँ आँखों के साथ मन को भी सुकून पहुँचाती हैं। रंग हमारी मानसिक अवस्था को कितना प्रफुल्लित कर सकते हैं ये हमें पता ही है पर अब तो क्या शहर और क्या झोपड़पट्टियाँ सबकी दीवारों में रंगों के अद्भुत प्रयोग संसार के कोने कोने में होने शुरु हो गए हैं। लवासा भले ही इटली के समु्द्र के किनारे कस्बे से प्रेरित हो पर इसने एक प्रेरणा तो दे ही दी है रिहाइशी इलाकों को अलग अलग रंगों में सजाने की।
झील की इस यात्रा ने हमें तरंगित तो जरूर किया पर लवासा की सड़कों पर उसके बाद टहलना एक बेजान से शहर का एहसास दिला गया। शहर लोगों से बनता है पर यहाँ तो वे नज़र ही नहीं आ रहे थे। हो सकता है कि यहाँ ज्यादातर वैसे लोगों ने घर लिए हो जो सप्ताहांत में यहाँ आकर अपना समय बिताते हों।
लवासा सिटी के अंदर |
आज भी लवासा की परियोजना पूर्ण नहीं हो पाई है। दिक्कत ये हुई कि शुरुआत से भूमि अधिग्रहण और पर्यावरण के लिए जरूरी अनुमतियाँ पारदर्शी तरीके से ली नहीं गयीं। लिहाजा परियोजना की शुरुआत के कई साल कोर्ट कचहरी में मामला लंबित रहा। लवासा का पहला शहर दासवे तो तेजी से बना पर परियोजना में देरी की वज़ह से इसके कई प्रमोटर्स ने हाथ पीछे खींच लिया। आज तो इस बनाने वाली कंपनी दिवालिया हो चुकी है और कंपनी का नियंत्रण इसे कर्ज देने वालों के हाथों सौंपा जा रहा है। ये तो वक़्त ही बताएगा कि क्या लवासा दासवे तक ही सिमट जाएगा या अपने मूल रूप में पूरी तरह बनकर जीवंत हो पाएगा।
वारसगाँव जलाशय से जुड़ा लवासा झील का एक हिस्सा |
लवासा जाने का सही समय मानसून या फिर जाड़ों में है। किराये की कार के आलावा यहाँ आने के लिए बसें भी चलती हैं। अगर आपको मेरे साथ सफ़र करना पसंद है तो Facebook Page Twitter handle Instagram पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराना ना भूलें।
यात्रा वृत्तान्त-मेरा पसंदीदा विषय। सुन्दर आलेख।
जवाब देंहटाएंयात्रा करना और अपने संस्मरणों को लिखना पिछले एक दशक से मेरा भी प्रिय शगल रहा है। आपको आलेख पसंद आया जान कर प्रसन्नता हुई। :)
हटाएंलवासा के बारे में इसके विवादों के दिनों से ही जब-तब पढ़ता रहा हूँ. क्या हम एक टाउनशिप भी सलीके से नहीं बसा सकते. एक बेहतरीन अवसर को खो दिया गया शायद. खैर, आपने तसल्ली से यात्रा करा दी लवासा की.
जवाब देंहटाएंअब तक भारत में मुझे शायद ही ऐसी कोई परियोजना दिखी है जहाँ ग्रामीण या वन क्षेत्रों से भूमि अधिग्रहण में कोई विवाद नहीं रहा हो। लवासा का जहाँ तक सवाल है तो यहाँ शुरुआत ही में राजनेताओं के कथित भ्रष्टाचार, सही तरीके से विस्थापितों को ना बसाने और पर्यावरण नियमों की अनदेखी के आरोप लगे थे। वक़्त के साथ तो आरोप न्यायालय से सलट गए पर परियोजना इतनी मंथर गति से चली कि इसके कई निवेशक पीछे हट गए। अब जबकि बात कंपनी के दिवालिया होने तक पहुँची है तो देखिए आगे ये शहर किस रूप में पनपता है।
हटाएंये जरूर है कि खूबसूरत तो है ये इलाका और यहाँ अगर एक दिन पास में हो तो जाना भला ही लगता है।
टेमघर बाँध की दीवार से रिसते पानी का दृश्य बड़ा सुंदर है। ऐसा लगता है कोई कोई खूबसूरत झरना हो।
जवाब देंहटाएंहाँ सुंदर लग रहा था इसीलिए वो तस्वीर ली :)। हालांकि वो रिसाव निर्माण में तकनीकी खराबी की वज़ह से था जिसकी शायद बाद में मरम्मत कर दी गयी होगी।
हटाएंलवासा को approval ही जो मिला वो conteoversial है....अब तो केपिटल भी नही है और इसमे जिन्होंने घर लिए अधिकतर इन्वेस्टमेंट और बकक5के पैसे वाले थे जो नोटेबन्दी के बाद बहुत कम हो गया तो अब तो इस प्रोजेक्ट को sell करना भी बहुत मुश्किल है....इटली जैसा बनाया गया लेकिन जैसा advertise किया गया वैसा दिखा नही लोगो को isme शायद प्रोजेक्ट पूरा बना नही है...इटली के मछुआरों के शहर को आपके लेख के बाद गूगल में ढूंढ कर पढ़ना जरूरी हो गया है...बढ़िया पोस्ट सर.
जवाब देंहटाएंपोर्टोफिनो इटली के उत्तर पश्चिमी इलाके में एक छोटा सा कस्बा है और वहाँ समुद्र अंदर की ओर घुसा है इसलिए वो फिशिंग हार्बर के रूप में जाना जाता है।
हटाएंहाँ अब तो लवासा का नियंत्रण कर्ज देने वालों के हाथों जा रहा है। मौज़ूदा परिस्थितियों में पाँच अलग अलग कस्बों को इस इलाके में बसाने की योजना दासवे तक सिमट जाएगी या अपने मूल रूप में पूरी हो पाएगी ये तो भविष्य ही बताएगा।
आलेख पसंद करने के लिए आपका धन्यवाद।
पुणे तो गया था.. मगर लवासा नहीं जा सका... अब आपने उत्सुकता जगा दी है..बहुत खूब.
जवाब देंहटाएंपसंदगी का शुक्रिया ! सप्ताहांत के भ्रमण के लिए लवासा एक प्यारी सी जगह है। मानसून या जाड़ों के समय यहाँ जाना श्रेयस्कर होगा। :)
हटाएंबाँध से रिश्ता पानी और लवासा सिटी का दृश्य विहंगम है।
जवाब देंहटाएंलवासा का नाम और विवाद तो खबरों में पढा था आज आप उसके और करीब ले चल गए,,कथाकार के रूप में,,अगले बार पुणा जाने पर यहां जाने का विचार करूँगा।
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