गुरुवार, 7 मार्च 2019

एक शाम गेतलसूद के नाम Getalsud Dam, Ormanjhi

राँची यूँ तो झरनों का शहर कहा जाता है पर झरनों के आलावा आप अगर किसी भी दिशा में तीस से चालीस किमी चलेंगें तो आपकी मुलाकात चौड़े पत्तों वाले पर्णपाती वनों से हो जाएगी। अगर मौसम अच्छा हो तो यूँ ही सप्ताहांत में इन हरी भरी वादियों के सानिध्य में बिताने की उत्कंठा बढ़ं जाती है। पिछते हफ्ते मन किया कि क्यूँ ना आज की शाम जंगलों से घिरे किसी जलाशय के आस पास बिताई जाए। धुर्वा और काँके तो शहर के अंदर के ही दो जलाशय हैं तो ऊपर वाले पैमाने को ध्यान में रखते हुए मैंने अपने एक मित्र के साथ घर से करीब चालीस किमी दूर स्वर्णरेखा नदी पर बने गेतलसूद बाँध की ओर निकलने का निश्चय किया ।


मैं इससे पहले गेतलसूद नहीं गया था। हाँ इसके जुड़वा भाई रुक्का से कई बार मुलाकात हुई थी। दरअसल रूक्का और गेतलसूद एक ही जलाशय के दो अलग अलग सिरो पर बनाए गए बाँध है । रुक्का वाला सिरा  राँची से ज्यादा करीब है। राँची के पक्षी प्रेमियों में ये इलाका खासा लोकप्रिय है। पतरातू के आलावा यहाँ भी जलीय व प्रवासी पक्षी दिखाई दे जाते हैं। ये दोनो बाँध ओरमांझी कस्बे से लगभग बराबर की दूरी पर हैं। जिन लोगों को इस कस्बे का नाम पहली बार सुना हो उनके लिए बता दूँ कि ये कस्बा पटना राँची राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है। ओेरमांझी की एक खासियत ये भी है कि यहाँ से भी कर्क रेखा गुजरती है।


ओेरमांझी से गुजरती कर्क रेखा
दिन के ढाई बजे निकलने का सोचा जरूर था पर निकलते निकलते तीन बज ही गए। हमने ओरमाझी जाने के लिए टैगोर हिल वाली राह पकड़ी पर गूगल मैप ने कर्क रेखा पार करते हुए  आगे बढ़कर जब बाँए मुड़ने को कहा तो वहाँ कोई मोड़ ही नज़र नहीं आया। लोगों से पूछने पर पता चला कि आप लोग अपना मोड़ पहले छोड़ आए हैं। दरअसल हमें राँची से गोला होते हुए बोकारो की ओर जाने वाली सड़क पकड़नी थी। करीब आठ दस किमी उस सड़क पर चलने के बाद हमें अपनी दायीं ओर गेतलसूद जाने का रास्ता नज़र आया।

गेतलसूद बाँध की ओर जाती सड़क

बाँध तक ले जाता हुआ ये अंतिम पाँच किमी का रास्ता बेहद खूबसूरत था। नाक की सीध में जाती सड़क और उसके दोनों ओर सखुआ के पंक्तिबद्ध खड़े पेड़। सखुआ के जंगलों से भरपूर ऐसे रास्ते आपको छोटानागपुर के कई इलाकों में दिख जाएँगे। दिल हुआ कि कार से उतरकर जंगलों से होते हुए बाँध की ओर पैदल ही चल दें पर सांझ ढलने में ज्यादा वक़्त नहीं बचा था इसलिए ये विचार त्यागना पड़ा। 
जलाशय और जंगलों के बीच सरसों की खेती
जंगल खत्म होते ही गेतलसूद की अथाह जलराशि आँखों के सामने आ गयी। दूर दूर तक फैले गहरे नीले जल का दूसरा सिरा तक नहीं दिखाई दे रहा था। सत्तर के दशक में बना ये जलाशय राँची के पीने के पानी  और औद्योगिक इकाइयों की जरूरतों को पूरा करने के लिए बनाया गया था। 
गेतलसूद की अथाह जलराशि
जंगल और पानी का ऐसा संगम जहाँ भी हो वहाँ लोग पिकनिक के लिए भारी संख्या में उमड़ते हैं। पिकनिक वाली भीड़ तो जनवरी फरवरी होते विदा हो जाती है पर अपने पीछे छोड़ जाती है ढेर सारी प्लास्टिक के पत्तलों वाली गंदगी। जंगलों और पानी के किनारे किनारे बोई फसलों के बीच ये कबाड़ इधर उधर बिखरा देख बहुत दुख हुआ। कम से कम ऐसी जगहों पर कूड़ा फेंकने के लिए उचित व्यवस्था तो होनी ही चाहिए थी। आशा है भविष्य में प्रशासन का इस ओर ध्यान जाएगा।
बाँध के दूसरी ओर आगे की ओर निकलती स्वर्णरेखा नदी की धारा..
बाँध पर चलते हुए सबसे पहले सिंचाई के लिए निकलती एक पतली नहर दिखी।  थोड़ा आगे बढ़ने पर अपने पथरीले पाट को काटती स्वर्णरेखा नदी के दर्शन हुए। नदी के किनारे चट्टान पर ताल बगुले (Pond Heron ) मछलियों पर घात लगाए चौकस नज़र आए। वही दूसरी ओर काली गंगाचिल्ली (Black Headed Seagull) जलराशि के ऊपर लगातार उड़ान भर रही थीं। जितनी देर मैं वहाँ रहा उन्होंने बैठने की ज़हमत नहीं उठाई।

पानी पर अपनी चमक छोड़ता सूरज
सूर्यास्त तक का समय मैंने आस पास के जंगल और खेतों में विचरते हुए और पल पल नीचे खिसकते सूरज की छवियों को क़ैमरे में क़ैद करते हुए बिताया। वसंत के आगमन के साथ पलाश और सरसों के फूल  फ़िज़ा की रंगीनियत में चार चाँद लगा रहे थे। सूर्य ने अपनी सुनहरी आभा बिखेरते हुए कैसे हमसे विदा ली आप ख़ुद ही देख लीजिए।
पलाश के फूल

पीला और धानी..सरसों की जुबानी

सरसों के पौधों पर झुकता सूरज

ढलता सूरज बिखरता अँधेरा

ऐसे लमहों को जीने में दोस्त का साथ हो तो बात ही क्या..

सूर्य की जल समाधि के पाँच मिनट पहले

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18 टिप्‍पणियां:

  1. कल रूक्का जाने के बाद मेरा भी मन हो रहा था गेतलसूद जाने का। रूक्का में देखा तो लगा अधुरा बाँध जैसा जबकि नक्शा में दोनों को करीब दिखाता है। हुंडरू जलप्रपात जाते समय टाटीसिलवे के रास्ते से दूर से डैम का पानी नजर आता है,,,हुंडरू पहुंचने से पहले।

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    1. हाँ पर गेतलसूद जाने के लिए आपको गोला रोड में हुँडरू वाले मोड़ के पहले ही मुड़ना होता है। गेतलसूद की ओर पानी ज्यादा और गहरा है और सूर्यास्त का नज़ारा भी बेहद खूबसूरत है।

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    2. आपका फोटो देखा डूबते सूर्य का और आप लिखे हैं see gull भी आपको दिखा,,हमें पहले लगता था झारखंड के तरफ see gull नही आता होगा,,पर और भी बहुत जगह से लोग इसके बारें में डालते है। आप तो अपने कॉलेज के पीछे भी इस नदी को देखते होगें। सुबोधकांत सहाय जब मंत्री थे तो गेतलसूद में Megafood processing park स्थापित किए थे। हां वहां पानी ज्यादा लग रहा है। और गेतलसूद जंगल के करीब जैसा एहसास कराता है,,रूक्का में गांव है।

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    3. अच्छा याद दिलाया आपने। कॉलेज के पीछे एक ओर सुवर्णरेखा और दूसरी ओर जुमार नदी थी। मैं और मेरा एक मित्र स्वर्णरेखा के किनारे कई शामों को आसन जमाते थे।
      हाँ जहाँ हम खड़े थे उसके पास आठ दस की संख्या में मँडरा रही थीं। गंगाचिल्ली को तो आप पतरातू में भी भारी संख्या में देख सकते हैं। यहाँ आती हैं ब्लैक और ब्राउन दोनों ही।

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  2. बढ़िया पोस्ट ...... हम लोगो के लिए ये जगह तो नई ही है ... चित्र सभी बहुत अच्छे लगे ...

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    1. हाँ झारखंड के जंगलों का रूप वसंत में और खिल जाता है।अथाह जलराशि के बीच डूबता सूरज तो हर जगह ही खूबसूरत होता है। चित्र पसंद करने के लिए धन्यवाद !

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  3. गेतलसूद नाम ही कुछ अलग लगा...आखरी 5 km का रोड जो सड़क के दोनो किनारे लंबे लंबे पेड़ है बहुत अच्छा लगा,...फोटोस बहुत अच्छे आये है...

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    1. हाँ वो सड़क तो मेरा भी मन मोह गयी। फोटो फीचर आपको पसंद आया जान कर प्रसन्नता हुई।

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  4. ये तो बढ़िया जगह दिख रही है। पहली बार नाम सुन रही हूँ।

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    1. जगह तो बढ़िया है पर पिकनिक वालों की मचाई गंदगी कहीं कहीं मन खराब करती है। रुक्का का दूसरा सिरा है गेतलसूद।

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  5. विहंगम दृश्यों से अवगत कराने का आपका ये अन्दाज बहुत खुबसूरत है, कविता लिखने को लालायित करता है।

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    1. शुक्रिया। कृपया टिप्पणी करते वक़्त अपना नाम अवश्य लिखें।

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  6. रांची तो अभी तक जाना नहीं हुआ मग़र आपकी पोस्ट पढ़ कर ये बांध भी घूम लिया. प्रकृति अपने मूल रूप में ऐसी ही दबी-छिपी जगहों में मिलती है. और धीरे-धीरे आप उड़ती चिड़िया के पर भी पहचानने लगे हैं...अच्छी बात ये है कि आप लोगों को उनके हिंदी और अंग्रेजी दोनों नामों से परिचय भी करा रहे हैं. ये बहुत ज़रूरी काम है.

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    1. प्रकृति अपने मूल रूप में ऐसी ही दबी-छिपी जगहों में मिलती है" बिल्कुल सही कहा आपने। पक्षियों के आंचलिक नाम उन्हें हमारी संस्कृति के और करीब ले आते हैं। इसी लिए सामूहिक तौर पर उसे प्रचलित करने की कोशिश में मैं भी अपना योगदान दे रहा हूँ।

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  7. झारखंड के बारे में बहुत कुछ पढ़ लिया अब तो देखने भी एना ही पड़ेगा

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