लखनऊ की ऐतिहासिक इमारतों का जिक्र वहाँ के इमामबाड़ों के बिना अधूरा है। अवध के नवाब लगभग 130 सालों तक इस इलाके में काबिज़ रहे। पहले मुगल सम्राट के सूबेदार की हैसियत से और बाद में मुगलों की ताकत कम होते ही स्वघोषित स्वतंत्र नवाबों के रूप में। पर उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत में ही सत्ता की असली चाभी परोक्ष रूप से अंग्रेजों ने हथिया ली थी। लगभग पचास सालों तक ईस्ट इंडिया कंपनी के रहमोकरम पर अवध के ये नवाब शासन करते रहे पर सिपाही विद्रोह के दमन के साथ नवाबी हुकूमत का पूर्णतः अंत हो गया।
अवध सूबे की राजधानी पहले फैजाबाद हुआ करती थी बाद में लखनऊ को उन्होंने अपनी राजधानी बनाया । अवध के नवाब मूलतः ईरानी मूल के शिया थे और आज भी लखनऊ की आबादी एक हिस्सा इस संप्रदाय से ताल्लुक रखता है। शिया संप्रदाय में वैसे तो बारह इमाम यानि धर्मगुरु माने गए हैं पर इनमें उनके तीसरे इमाम हुसैन का विशेष स्थान है। हज़रत हुसैन कर्बला की लड़ाई में अपने परिवार के साथ शहीद हुए थे। शिया मुसलमान उसी तकलीफ़देह घटना के मातम में हर साल मुहर्रम का पर्व मनाते हैं।
अवध सूबे की राजधानी पहले फैजाबाद हुआ करती थी बाद में लखनऊ को उन्होंने अपनी राजधानी बनाया । अवध के नवाब मूलतः ईरानी मूल के शिया थे और आज भी लखनऊ की आबादी एक हिस्सा इस संप्रदाय से ताल्लुक रखता है। शिया संप्रदाय में वैसे तो बारह इमाम यानि धर्मगुरु माने गए हैं पर इनमें उनके तीसरे इमाम हुसैन का विशेष स्थान है। हज़रत हुसैन कर्बला की लड़ाई में अपने परिवार के साथ शहीद हुए थे। शिया मुसलमान उसी तकलीफ़देह घटना के मातम में हर साल मुहर्रम का पर्व मनाते हैं।
छोटे इमामबाड़े के मुख्य द्वार का अंदरुनी दृश्य |
मुहर्रम में जो दस दिन का शोक मनाया जाता है उससे जुड़ी धार्मिक गतिविधियों के लिए बनाया गया स्थल इमामबाड़े के नाम से जाना जाता है। अपनी लखनऊ यात्रा में मैंने छोटे और बड़े दोनों इमामबाड़ों को करीब से देखा और आज मैं आपको ले चल रहा हूँ छोटे इमामबाड़े यानि हुसैनाबाद इमामबाड़े की पवित्रता और खूबसूरती से आपको रूबरू कराने के लिए।
बड़े इमामबाड़े से रूमी दरवाजे होते हुए छोटे इमामबाड़े तक पहुँचने में ज्यादा वक़्त नहीं लगता। जब आप सड़क से सटे इमामबाड़े का रुख करते हो तो मुख्य द्वार के नीचे बने कमरों में लखनवी चिकन दस्तकारी के साथ कई और दुकानें दिखाई देती हैं। धार्मिक महत्त्व की इस ऍतिहासिक इमारत के सामने इन दुकानों का होना अजीब लगता है। पता नहीं इन्हें वहाँ रहने की इजाजत किसने दी?
बाहर से ऐसा दिखता है इमामबाड़े का प्रवेश द्वार ! |
जैसे ही इमामबाड़े के अंदर कदम पड़ते हैं परिदृश्य एकदम से बदल जाता है। नीले
आकाश तले फैली सर्वत्र सफेदी देख मन को शांत कर देती हैं। द्वार का अंदर
का हिस्सा बेहद आकर्षक है। इस पट और बगल की मीनारों के शीर्ष से तारों का
एक जाल एक स्त्री की प्रतिमा के हाथों में आकर ख़त्म होता है। थोड़ी देर में
ही सही हमें समझ आ गया कि ये मूर्ति तड़ित चालक का काम कर रही है।
मुख्य द्वार के पास की सुनहरी मछली जो बताती है हवा का रुख |
इमामबाड़े में घुसते ही बाँए तरफ़ शाही हमाम की ओर रास्ता जाता है वहीं दाहिनी ओर हुसैनाबाद मस्जिद नज़र आती है। द्वार के ठीक सामने हवा में लटकी एक सुनहरी मछली आपका स्वागत करती दिखती है। वास्तव में ये मछली की शक्ल में हवा का रुख जानने का एक यंत्र है। मछली के नीचे बनी दीवारों में इस्लामी कलमकारी का खूबसूरत नमूना दिखता है। वैसे अगर आपको ख़्याल हो तो अवध नवाबों के झंडों में भी मुकुट एक साथ सुनहरी मछली दिखाई देती है।
हुसैनाबाद इमामबाड़ा जिसे प्रचलन में छोटा इमामबाड़ा भी कहा जाता है। |
इसके ठीक पीछे इमामबाड़े की इमारत अपने भव्य गुंबद के साथ नज़र आती है।
ताजमहल में जिस तरह मुख्य इमारत की तरफ़ जाने वाले रास्ते के मध्य में
फव्वारे लगे हैं वैसे ही यहाँ भी मध्य में फव्वारों के साथ नहरनुमा हौज और उसके ऊपर एक छोटा सा पुल है। कहते हैं एक ज़माने में वहाँ एक कश्ती भी लगी रहती थी जो बाद में रखरखाव के
आभाव में नष्ट हो गयी।
हुसैनाबाद इमामबाड़े के सामने बनी नहर और बाग |
इमामबाड़े की मुख्य इमारत में घुसने के पहले हमारे गाइड ने मुझे शाही हमाम को पहले देखने का आग्रह किया। तुर्की, जापान और रोम में सामूहिक स्नानागारों का जिक्र तो आपने सुना होगा पर भारत में विशिष्ट स्नानागार कभी आम लोगों के लिए नहीं बनाए गए। हाँ, नवाबों की बात कुछ और थी।
गाइड ने इस शाही हमाम की अचंभित करने वाली कथा सुनाई। वो कितनी सच्ची थी ये तो पता नहीं पर उसका कहना था कि गोमती नदी से सुरंगे बना कर पानी suction effect से हमाम के छतों पर बने टैंक में बटोरा जाता था। आबादी बढ़ने से नदी का जल स्तर कम होने लगा और इसी वज़ह से बाद में पानी खींचने की ये प्रणाली काम की नहीं रह गयी। जो हमाम आज यहाँ नज़र आता है वो बड़ा सादा सा है। गर्म पानी और ठंडे पानी कै हौद और उन्हें मिश्रित करने की व्यवस्था आज भी नज़र आती है। आज तो गुलाब जल में स्नान करने के दृश्य फिल्मों या विज्ञापनों में नजर आते हैं पर उस ज़माने में नवाबों के ऐसे ही ठाठ थे, वो भी तब जब कर वसूली से प्राप्त आय का मोटा हिस्सा अंग्रेजों को थमाना पड़ता था।
गाइड ने इस शाही हमाम की अचंभित करने वाली कथा सुनाई। वो कितनी सच्ची थी ये तो पता नहीं पर उसका कहना था कि गोमती नदी से सुरंगे बना कर पानी suction effect से हमाम के छतों पर बने टैंक में बटोरा जाता था। आबादी बढ़ने से नदी का जल स्तर कम होने लगा और इसी वज़ह से बाद में पानी खींचने की ये प्रणाली काम की नहीं रह गयी। जो हमाम आज यहाँ नज़र आता है वो बड़ा सादा सा है। गर्म पानी और ठंडे पानी कै हौद और उन्हें मिश्रित करने की व्यवस्था आज भी नज़र आती है। आज तो गुलाब जल में स्नान करने के दृश्य फिल्मों या विज्ञापनों में नजर आते हैं पर उस ज़माने में नवाबों के ऐसे ही ठाठ थे, वो भी तब जब कर वसूली से प्राप्त आय का मोटा हिस्सा अंग्रेजों को थमाना पड़ता था।
शाही हमाम के सामने |
शाही हमाम के ठीक सामने एक छोटा सा उद्यान था जहाँ फरवरी के महीने में खिले वासंती फूलों का अच्छा खासा जमावड़ा था।
शहज़ादी ज़ीनत अल्गिया का मकबरा |
छोटे इमामबाड़े का निर्माण अवध के नवाब मोहम्मद अली शाह ने 1838 ई में करवाया था। उनकी बेटी ज़ीनत अल्गिया का इंतकाल छोटी उम्र में ही हो गया था। मुख्य द्वार से इमामबाड़े की ओर जाते हुए दाहिनी तरफ जो मकबरा दिखाई देता है इसमें ज़ीनत को दफनाया गया था। उनके पति और भाई भी यहीं सुपुर्द ए ख़ाक हुए थे। ताजमहल से प्रेरित ये मकबरा बहुत छोटे से फैलाव में बना है। इसके ठीक दूसरी तरफ़ एकरूपता के लिए एक और इमारत बनाई गयी जिसका प्रयोग उस वक़्त कोषागार के लिए होता रहा।
इमामबाड़ा परिसर में साम्यता लाने के ख्याल से बनाया गया कोषागार |
इन दोनों इमारतों में एक फर्क स्पष्ट दिखाई देता है। जहाँ शहज़ादी के मकबरे की बाहरी दीवारें बिल्कुल सादी हैं वहीं कोषागार के गुंबद और मेहराबों के ऊपर सुंदर कलाकारी की गयी है।
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इमामबड़े का मुख्य परिसर तीन हिस्सों में बँटा है। सामने ऊँचाई पर बने
चबूतरे के सामने एक हौद है। दालान में जहाँ मुहर्रम में लोग जमा होते हैं
वहाँ पाँच दरवाजे हैं। इमारत की दीवारों पर आयतें
नक़्श की गयी हैं। इमारत के केंद्र में सुनहरा गुंबद है जो इस्लामी स्थापत्य का अभिन्न हिस्सा रहा है।
आयतों से सुसज्जित दीवारें |
हॉल को सजाने के लिए नवाब ने यहाँ बेल्जियम के मशहूर झाड़फानूस और चीन से मँगवाए लैंप लगवाए थे जो आज भी यहाँ की शोभा बढ़ा रहे हैं।
इमामबाड़े के अंदर झाड़फानूसों की बहार |
मुहर्रम के समय ये इमामबाड़ा इन झाड़फानूसों और बाहरी सजावट से जगमगा उठता है। इसकी यही सज्जा देख विदेशियों ने इस इमामबाड़े को पैलेस आफ लाइट्स का भी नाम दे रखा है। पुराने ज़माने में जब बिजली की व्यवस्था नहीं थी तो पूरे परिसर में दीयों व बत्तियों से रोशनी की जाती थी।
रंग बिरंगी आयतें और ताज़िया |
सबसे अंदर के हॉल में हाथी दाँत और चंदन से सजे कई धार्मिक साजो सामान हैं। अंदर के एक हिस्से में नवाब और उनकी पत्नी दफ्न हैं। छोटा इमामबाड़ा मुसाफ़िरों के लिए हर दिन सुबह छः से पाँच बजे शाम तक खुला रहता है और हाँ यहाँ फोटोग्राफी पर कोई पाबंदी नहीं है।
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बहुत सुन्दर हैं ये सब। क्या ये सब एक ही परिसर में हैं?
जवाब देंहटाएंहाँ, सारी इमारतें परिसर के अंदर की ही हैं।
हटाएंअद्भुत बेमिसाल !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
हटाएंNice write up
जवाब देंहटाएंThank you !
हटाएंएक बार फिर से लखनऊ जाने का मन बनने लगा है पढ़कर
जवाब देंहटाएंजानकर खुशी हई। :)
हटाएंGreat
जवाब देंहटाएंThanks !
हटाएंBahut khoobsurati se parichay Karaya chote imambade see☺️
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आलेख पसंद करने के लिए !
हटाएंJyadatar tourist chota imambaada dekhne nahi jaate baaki khubsurati k maamle me ye bhi Kam nahi h ...
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