मेघालय में बिताए हमारे आख़िरी दिन की शुरुआत तो लैटलम कैनयन की भुलभुलैया से हुई थी। पर वहाँ से लौटने के बाद हमारा इरादा वहाँ के बेहद प्रसिद्ध संग्रहालय डॉन वास्को म्यूजियम को देखने का था। ऐसा सुना था कि ये संग्रहालय उत्तर पूर्वी राज्यों की संस्कृति को जानने समझने की मुफ़ीद जगह है। मावलाई स्थित इस संग्रहालय में जाना तो हमें अपने शिलांग प्रवास के पहले ही दिन था पर बंदी की वज़ह से हमारे ड्राइवर ने इस इलाके में आने से इसलिए इनकार कर दिया कि ये इलाका बंदी के समय ख़तरे से खाली नहीं है।
बाहरी द्वार, डॉन बास्को म्यूजियम Front gate of Don Bosco Museum |
रविवार के दिन जब हम यहाँ पहुँचे तो खिली धूप और छोटे छोटे घरों से अटा ये इलाका कहीं से ख़ौफ़ पैदा करने वाला नहीं लग रहा था। पर यहाँ आकर सबसे बड़ी निराशा हमें तब हुई जब पता चला कि ये संग्रहालय रविवार को बंद रहता है। सुना था संग्रहालय की सात मंजिली इमारत में उत्तर पूर्व के सारे राज्यों की संस्कृति की झांकी दिखलाई गई है।
दूर से एक आम भारतीय के लिए उत्तर पूर्व एक लगता है। पर फिर ये भी सुनने में आता है कि नागा व मणिपुरी, बोदो व असमी आपस में ही तलवारें तान लेते हैं। ख़ैर यहाँ आकर एक मौका था इन राज्यों के रहन सहन, पहनावे व खान पान के तौर तरीकों में छोटी बड़ी भिन्नताओं को परखने का पर अफ़सोस वो अवसर हमें मिल ना सका।और तो और संग्रहालय की छत की मशहूर स्काई वॉक पर चहलकदमी करने का मौका भी जाता रहा।
डॉन बास्को म्यूजियम की सात मंजिली इमारत |
पास के मिशनरी स्कूल के हॉस्टल में काफ़ी गहमागहमी थी। कुछ देर बच्चों के
क्रियाकलाप देखने के बाद संग्रहालय की खूबसूरत इमारत का बाहर से ही
सही, पर एक चक्कर लगाया।
संग्रहालय के समीप स्थित चर्च |
म्यूजियम के बगल में हमें एक सुंदर सा चर्च मिला। चूंकि इतवार का दिन था तो
प्रार्थना के लिए काफी लोग चर्च आए थे। मैंने भी चर्च के अंदर कुछ पल बिताए और फिर यूमियम झील की राह पकड़ी।
बाहरी परिसर से दिखता चर्च का प्रार्थना कक्ष ! |
यूमियम झील जिसे कई लोग बड़ापानी भी कहते हैं, शिलांग के हवाई अड्डे और शिलांग शहर के बीच में है। आजकल तो एयरटेल के नए विज्ञापनों सुदूरवर्ती जगहों की फेरहिस्त में यूमियम झील का भी एक दृश्य दिखाया जाता है। पर एयरटेल गर्ल चाहे जो कह ले, ना तो यूमियम दूरदराज़ इलाकों में से एक है और ना ही एयरटेल का फोर जी नेटवर्क सर्वव्यापी है। ख़ैर यूमियम झील प्राकृतिक झील नहीं है। साठ के दशक में यहाँ यूमियम नदी पर एक बाँध बनाया गया और करीब 220 वर्ग किमी में इसका पानी फैल गया। शिलांग हवाई अड्डे पर उतरने से पहले इस झील का एक बड़ा हिस्सा अपनी परिधि के साथ ऊपर से दिखाई देता है।
यूमियम झील Umiam Lake |
जब बाँध का पानी एक विशाल क्षेत्र में भरा तो बीच की ऊँची ज़मीन टापुओं में तब्दील हो गयी। पानी के बीच उभरते इन टापुओं को दूर से देखना इस झील की खूबसूरती में इज़ाफा करता है। वैसे अगर आप शिलांग से इस झील की तरफ़ आएँगे तो शहर से निकलते ही आधे घंटे के अंदर आप इस झील के किनारे पहुँच जाएँगे। शाम के वक़्त इस झील के किनारे वक़्त गुजारना बेहद सुकून देता है। यहाँ का आर्किड रिसार्ट पानी के साथ मस्ती भरे पल बिताने के कई विकल्प देता है। इसके ठीक बगल में नेहरू पार्क है जहाँ से झील के बिल्कुल किनारे तक पहुँचा जा सकता है। पार्क की हरी मखमली चादर एक लंबी ढलान के बाद आपको झील तक पहुँचाती है इसलिए वापसी का समय शाम के पहले हुआ तो आप लौटते समय पसीने पसीने हो सकते हैं।
शिलांग शहर को पानी की आपूर्ति करने वाली इस झील में गाद की समस्या बढ़ती जा रही है जिससे झील में संचित जल कम होता जा रहा है।
शिलांग शहर को पानी की आपूर्ति करने वाली इस झील में गाद की समस्या बढ़ती जा रही है जिससे झील में संचित जल कम होता जा रहा है।
नेहरू पार्क Nehru Park |
झील के किनारे व पार्क से सटे इलाके में चीड़ व फर्न के पौधों की बहुतायत है। पार्क में यात्री सुविधाओं की समुचित व्यवस्था है इसलिए यहाँ की घास पर लेट कर वक़्त कैसे निकल जाता है पता ही नहीं चलता । पर हमें शाम तक गुवहाटी को लौटना था इसलिए पूरी शाम ढलने के पहले ही यूमियम से विदा लेनी पड़ी।
झील के किनारे तक फैला नेहरू पार्क का एक हिस्सा |
गुवहाटी से तीस चालीस किमी पहले गाड़ी वाले ने चाय के लिए रोका और वो दस मिनट ही हमें गहरी मुसीबत से बचा पाने में सफल हुए। ज्यूँ ही हम आगे को निकले हमसे पाँच छः गाड़ी आगे भू स्खलन हुआ और दो ट्रेलर व एक जीप उसकी चपेट में आ गए। ट्रेलर तो नीचे खड्ड में लुढ़क गए पर गनीमत रही कि उनके ड्राइवर किसी तरह बच के निकल आए। जीप में सवार एक व्यक्ति बुरी तरह घायल हो गया। अगर हमारा कुनबा थोड़ी देर के लिए रुका नहीं होता तो हम भी उसकी ज़द में आ सकते थे।
सड़क पर अँधेरा हो चुका था और मार्ग अवरुद्ध होने के कारण वाहनों की लंबी लंबी कतारें दोनों ओर लग चुकी थीं। मलबा हटाने में छः से आठ घंटे का समय लगने का अनुमान था। गाड़ियों की भीड़ को बढ़ता देखकर पुलिस ने चालकों को दूसरे रास्ते से जाने को कहा जो हाइवे से पाँच किमी आगे जाकर मिलता था। पर उस पाँच किमी के लिए उस कच्चे पक्के रास्ते से जाने में पचास किमी और लगने थे।
थोड़ी ही देर में हमें आसमान से गिरे व खजूर में अटके का भावार्थ समझ में आ गया। एक ओर तो अनजान उबड़ खाबड़ कच्चे रास्ते में हिचकोले खाती गाड़ी और दूसरी ओर पाताल लोक की सैर कराने वाली हाथ भर दूर साथ चलती खाई। लगा कि अब गए कि तब गए। हद तो तब हो गयी जब दूसरे तरफ़ की गाड़ियाँ भी कुछ देर बाद आमने सामने आ गयीं। अब जहाँ एक गाड़ी ही मुश्किल से निकल रही थी वहाँ दो दो गाड़ियाँ कैसे निकलें? वो तो भला हो सारे चालकों का जो मिल जुल कर कहीं कहीं तिरछी होती गाड़ियों को सँभाल रहे थे।
किसी तरह गाड़ियों का काफ़िला अब रेंग रहा था कि हमसे आगे वाली गाड़ी का टॉयर पंचर हो गया। दोनों तरफ़ गाड़ियाँ इस कदर ठस्समठस थीं कि बिना टॉयर बदली के आगे खिसकना मुश्किल था। अगले आधे घंटे हमने उसी घुप्प अँधेरे में राम-राम करते गुजारे। टॉयर बदलने के बाद जैसे तैसे आधे घंटे के बाद हम फिर जब राजमार्ग तक पहुँचे तो जान में जान आई।
मेघालय की खुशनुमा यात्रा का रोमांचकारी अंत शायद भाग्य में ऐसे ही होना लिखा था। आशा है मेरा ये सफ़र आपको भी आनंदित कर गया होगा। शीघ्र ही अपने अगली यात्रा की कहानी के साथ फिर लौटूँगा..
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सफर आपका रोमांचक भी और खट्टा मीठा भी रहा।
जवाब देंहटाएंहाँ सही कह रहे हैं..
हटाएंBahut sunder jankari aur photos bhi
जवाब देंहटाएंशुक्रिया अंजली। इस यात्रा के दौरान मेरे कैमरे ने जल समाधि ले लीथी। इस पोस्ट के चित्र मोबाइल से लिए गए हैं।
हटाएंमुझे कुछ खास नहीं लगा बाकी अपना अपना नजरिया होता है। हाँ लोकेशन अच्छा है।
जवाब देंहटाएंयूमियम झील के पास जाकर मुझे तो एक शांति का अहसास हुआ। मुझे लगा कि इस झील के किनारों को सही से खँगालने के लिए यहाँ एक दिन रहना जरूरी है।
हटाएंमनीष जी आपने बहुत ही खूबसूरत लम्हों का आनंद लिया और आप आगे भी ऐसे ही अपने आनंदमयी पलों को शेयर करते रहे। आप ऐसे ही अपने अनुभवों को शब्दनगरी पर भी प्रेषित कर सकते हैं जो की पूर्णतया हिन्दी वैबसाइट है।आप वहाँ भी आ -आ के मेरे गांव से ठंडी हवाएँ पूछती हैं, जैसी रचनाएँ पढ़ व लिख सकते हैं।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया यहाँ पधारने के लिए। ये भी पूर्णतः हिंदी की वेबसाइट है सो कहीं और अपनी रचनाओं को प्रेषित करने का मुझे औचित्य नहीं समझ आया।
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