बांग्ला में पुकुर का मतलब होता है पोखरा और आप तो जानते ही हैं कि बंगाल में आदि काल से हर गाँव और कस्बे में पोखर का होना अनिवार्य सा रहा है। यही वज़ह है कि वहाँ कस्बे और मोहल्लों के नाम तालाबों पर रखे गए हैं। दक्षिणी कोलकाता में गरियाहाट से सटा इलाका है कस्बा का और यहीं से बोस पुकुर सड़क होकर गुजरती है। इस इलाके की दुर्गा पूजा अपनी नई सोच और कलात्मकता के लिए पूरे कोलकाता में प्रसिद्ध है। आज आपको उत्तरी कोलकाता में ले जाने के पहले इसी इलाके के दो खूबसूरत पंडालों से रूबरू करवाना चाहता हूँ। पहले चलते हैं तालबागान जहाँ पिछले साल दुर्गा माँ तक पहुँचने के लिए आपको कमल के फूलों की पंखुडियों के बीच से जाना था.
रंग बिरंगी पंखुडियों के बीच आसीन माँ दुर्गा...
कली के आधार पर की गई मोहक पुष्प सज्जा से पलकें गिराने का दिल ही नहीं कर रहा था मुझे तो..
और ये हैं कमल के फूलों की पंखुड़ियाँ जिन्हें इस तरह फैलाया गया था कि वो इस कमल के फूल सरीखे मंदिर की बाहरी दीवारों का काम कर रही थीं..
फूल से अवतरित होती माँ दुर्गा का महिसासुर संहार।।
बोस पुकुर का सबसे प्रसिद्ध पंडाल माना जाता है कर साल शीतला मंदिर के पास बनाए जाने वाले पंडाल को। पिछले साल बहार थी पारले बिस्कुट की ! नीचे के चित्रों को ध्यान से देखिए हर जगह आपको बिस्कुट ही बिस्कुट दिखाई देंगे। पंडाल की थीम माँ दुर्गा को अन्नपूर्णा के रूप में दिखाने की थी। यहाँ एक दूसरे का हाथ पकड़े मानव आकृतियाँ दरअसल एक खाद्य श्रंखला यानि फूड चेन का परिचायक हैं। यानि माँ दुर्गा का आशीर्वाद अगर हम पर है तो हमें अन्न की कोई कमी नहीं होगी। वैसे आज के मौजूदा हालात को देखते हुए इस बार Pulse Chain बनाने की जरूरत महसूस हो रही है ताकि माँ की कृपा से कम से कम थालियों में से दाल गायब ना हो जाए। :)
पूरे पंडाल के निर्माण में पारले के विभिन्न उत्पादों के करीब तीन लाख बिस्कुट और पाँच हजार कैण्डीज का इस्तेमाल हुआ।
बंगाल में सफेद के साथ लाल पाड़ की साड़ियाँ खूब चलती हैं। माँ दुर्गा को भी
ऐसे ही वस्त्रों में दिखाया गया था। साथ ही मानव श्रंखला को भी थीम के
हिसाब से सफेद और लाल रंग के कपड़े पहनाए गए थे।
बंगाल में पंडालों की नई थीम, माँ के स्वरूप में निरंतर बदलाव ने एक बहस भी छेड़ दी है। जो लोग पूजा को पारम्परिक रुप से मनाने में यक़ीन रखते हैं उनका कहना है कि बहुत सारे पंडालों की मंशा लुभावनी थीमों के ज़रिए पुरस्कार और भीड़ जुटाने की रहती है। पूजा के मूल तत्त्व को वो गौण कर देते हैं। इस आरोप को पूरी तरह झुठलाया तो नहीं जा सकता पर सिर्फ इसी आधार पर इस तरह के पंडालों की उपयोगिता को ख़ारिज़ भी नहीं किया जा सकता। दरअसल दुर्गा पूजा सिर्फ पूजा ही नहीं बल्कि एक उत्सव का रूप है जो कलाकारों को हर साल नित नई सोच के साथ अपनी कलात्मकता के नए ज़ौहर दिखाने के लिए प्रेरित करता रहता है।
दक्षिणी कोलकाता के इन पूजा पंडालों के दर्शन के बाद अब मेरी डगर उत्तर कोलकाता की तरफ़ है। दक्षिणी कोलकाता के मुकाबले उत्तरी कोलकाता के पंडाल अपेक्षाकृत पुराने रीति रिवाज़ों और संस्कृति की प्रतिध्वनि करते दिखाई पड़ते हैं। उत्तरी कोलकाता जाएँ और कुमोरतूली ना जाएँ ऐसा संभव नहीं है? कुमोरतूली दुर्गा माँ की प्रतिमा बनाने वालों कारीगरों का मोहल्ला है। दरअसल ब्रिटिश शासन काल से ये इलाका कुम्हारों की बस्ती हुआ करता था। नदी द्वारा किनारों पर लाई गई मिट्टी से बर्तन बनाने का काम यहाँ दशकों से चलता आया है। पर वक्त के साथ जब इनकी माँग कम हुई तो यहाँ के लोग मिट्टी की दुर्गा को अपने हाथों से आकार देने लगे। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि विश्व के नब्बे देशों में भारतीय मूल के लोगों के लिए यहीं से मूर्तियों की आपूर्ति होती है।
बस ट्रामों और भीड़ भाड़ के बीच से निकलते हुए मैं हावड़ा ब्रिज से आगे निकल गया हूँ। कुमोरतूली का रस्ता हुगली नदी के समानांतर चलता है। ड्राइवर इधर कभी आया नहीं है सो मुझे बार बार रास्ता पूछना पड़ रहा है। सबके मुँह से एक ही जवाब सुनने को मिलता है .. सीधे और आगे। दिन सप्तमी का है इसलिए जैसे जैसे अँधेरा बढ़ रहा है भीड़ भी बढ़ती जा रही है। अचानक जगमगाती रोशनी देख कर हम गाड़ी रुकवा देते हैं। पंडाल तक पहुँचने के लिए गली के रास्ते में जाना है। नीली रोशनी के आलावा गली में घुप्प अँधेरा और ठसाठस भरी हुई भीड़ है। पर मजाल है कि कोई अनहोनी हो जाए।
पूजा पंडाल पर्वत शिखर पर है। यहाँ अंदर चित्र लेने की मनाही है। चढ़ाई भरे रास्ते को भूत प्रेतों से डरावना बनाने की कोशिश की गई है। बच्चे हतप्रध हैं, बड़े उनकी खुशी में आनंद ले रहे हैं।
कुमोरतूली से पास का पंडाल अहीरटोला का है। पर समय की कमी और टेढ़े मेढ़े रास्ते की भूल भुलैया से बचने के लिए मैं वापसी की राह पकड़ लेता हूँ। रास्ते में बेहद छोटा सा पंडाल दिखता है। पर इसमें विराजी माता मुझे पूरे उत्सव के सबसे सुंदर रूप में दिखती हैं।
श्रद्धा और उत्सव के इस माहौल में हम अब बाघ बाज़ार की ओर अग्रसर हैं। वो आज की इस पंडाल परिक्रमा का आख़िरी गन्तव्य है।
बाघ बाज़ार की पूजा लगभग सौ साल पुरानी है। लोग यहाँ पंडाल से ज्यादा पूजा अर्चना के लिए आते हैं।
यहाँ बनी देवी की प्रतिमा मन को एक भक्तिभाव से भर देती है। कुछ मिनट पंडाल के कोने में खड़ा होकर उनको अपलक निहारता हूँ। फिर प्रसन्न मन से वापसी के लिए तैयार हो जाता हूँ।
दुर्गा पंडाल की आख़िरी कड़ी में ले चलूँगा दो ऐसे पंडालों में जहाँ भीड़
इतनी थी कि चित्रों को खींच पाना भी मेरी लिए टेढ़ी ख़ीर साबित हुई। अगर आपको मेरे साथ सफ़र करना पसंद है तो फेसबुक पर मुसाफ़िर हूँ यारों के ब्लॉग पेज पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराना ना भूलें। मेरे यात्रा वृत्तांतों से जुड़े स्थानों से संबंधित जानकारी या सवाल आप वहाँ रख सकते हैं।
कोलकाता की दुर्गा पूजा पंडाल परिक्रमा
- भाग 1 : त्रिधारा सम्मिलनी, 64 पल्ली, कालीघाट, बॉलीगंज
- भाग 2 : जोधपुर पार्क,पल्ली मंगल, मोहम्मद अली पार्क, कॉलेज स्कवायर, संतोष मित्रा स्कवॉयर
- भाग 3 : ताल बागान, बोस पुकुर, कुमोरतूली, बाघ बाजार
- भाग 4 : सुरुचि संघ, 66 पल्ली
अन्नपूर्णा के लिए बिस्कुट क्यों .... बिस्कुट विदेशी संस्कृति है .... वैसे रोचक लिखा आपने
जवाब देंहटाएंपंडाल तो चूड़ी, शंख, सीप, टोकरी, चावल सबसे बनाए जा सकते हैं और चावल भी माँ अन्नपू्र्णा का प्रतीक बन सकता था। बहरहाल पंडाल बनाने के खर्च का एक हिस्सा पारले कंपनी दे रही थी इसीलिए कारीगरों ने बिस्कुट के रंग का इस्तेमाल करते हुए मानव शरीर बना दिए। :)
हटाएंsponsered by parale .... waah ! durga maa bhi sponser ho rahi hai
हटाएंइसमें नई बात क्या है। सारे उत्सव का खर्चा तो चंदे से ही आता है। पहले भी मोहल्ले वाले, व्यापारी पैसा देते थे। आज इसका स्तर इतना वृहद हो गया है कि बड़ी बड़ी कंपनियाँ भी आगे आ रही हैं। पर इससे फ़ायदा ये हुआ है कि मूर्ति व पंडाल निर्माण का काम करने वाले कारीगरों के एक पूरे वर्ग को अपना हुनर दिखाने के साथ साथ जीविका का साधन मिल गया है।
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