सिक्किम से जुड़े इस यात्रा वृत्तांत में अब तक आपने पढ़ा लाचेन, गुरुडांगमार, चोपटा घाटी, लाचुंग और यूमथांग घाटी तक के सफ़र का लेखा जोखा। सिक्किम प्रवास में हमारा अगला दिन मुकर्रर था वहाँ के सबसे लोकप्रिय पड़ाव के लिये जहाँ प्रकृति अपने एक अलग रूप में हमारी प्रतीक्षा कर रही थी। लाचुंग से शाम तक हम गंगटोक वापस आ चुके थे।
अगली सुबह पता चला कि भारी बारिश और चट्टानों के खिसकने की वजह से नाथू-ला का रास्ता बंद हो गया है। मन ही मन मायूस हुये कि इतने पास आकर भी भारत-चीन सीमा को देखने से वंचित रह जाएँगे। पर बारिश ने जहाँ नाथू-ला (Nathu La)जाने में बाधा उत्पन्न कर दी थी तो वहीं ये भी सुनिश्चित कर दिया था कि हमें सिक्किम की बर्फीली वादियाँ के पहली बार दर्शन हो ही जाएँगे। इसी खुशी को मन में संजोये हुये हम छान्गू या Tsomgo (अब इसका उच्चारण मेरे वश के बाहर है, स्थानीय भाषा में Tsomgo का मतलब झील का उदगम स्थल है ) की ओर चल पड़े। 3780 मीटर यानि करीब 12000 फीट की ऊँचाई पर स्थित छान्गू झील गंगटोक से मात्र 40 कि.मी. की दूरी पर है ।
गंगटोक से निकलते ही हरे भरे देवदार के जंगलो ने हमारा स्वागत किया। हर बार की तरह धूप में वही निखार था । कम दूरी का एक मतलब ये भी था की रास्ते भर जबरदस्त चढ़ाई थी। 30 कि.मी. पार करने के बाद रास्ते के दोनों ओर बर्फ के ढ़ेर दिखने लगे। मैदानों में रहने वाले हम जैसे लोगों के लिये बर्फ की चादर में लिपटे इन पर्वतों को इतने करीब से देख पाना अपने आप में एक सुखद अनुभूति थी। पर ये तो अभी शुरुआत थी। छान्गू झील (Changu Lake) के पास हमें आगे की बर्फ का मुकाबला करने के लिये घुटनों तक लम्बे जूतों और दस्तानों से लैस होना पड़ा ।
दरअसल हमें बाबा हरभजन सिंह मंदिर (Baba Mandir) तक जाना था जो कि नाथू-ला और जेलेप-ला के बीच स्थित है। ये मंदिर 23 वीं पंजाब रेजीमेंट के एक जवान की याद में बनाया है जो ड्यूटी के दौरान इन्हीं वादियों में गुम हो गया था । बाबा मंदिर की भी अपनी एक रोचक कहानी है। यहाँ के लोग कहते हैं कि चार अक्टूबर 1968 को ये सिपाही खच्चरों के एक झुंड को नदी पार कराते समय डूब गया था। कुछ दिनों बाद उसके एक साथी को सपने में हरभजन सिंह ने आकर बताया कि उसके साथ क्या हादसा हुआ था और वो किस तरह बर्फ के ढेर में दब कर मर गया। उसने स्वप्न में उसी जगह अपनी समाधि बनाने की इच्छा ज़ाहिर की। बाद में रेजीमेंट के जवान उस जगह पहुँचे तो उन्हें उसका शव वहीं मिला। तबसे वो सिपाही बाबा हरभजन के नाम से मशहूर हो गया। इस इलाके के फौजी कहते हैं कि आज भी जब चीनी सीमा की तरफ हलचल होती है तो बाबा हरभजन किसी ना किसी फौजी के स्वप्न में आकर पहले ही ख़बर कर देते हैं।
चित्र सौजन्य विकीपीडिया |
सिपाही हरभजन सिंह हर साल पन्द्रह सितंबर से दो महिनों की छुट्टी में घर जाया करता था। इन दो महिनों में यहाँ के जवान गश्त और बढ़ा देते हैं क्यूंकि बाबा की भविष्यवाणी छुट्टी पर होने के कारण उन्हें नहीं मिल पाती। इस मंदिर के सामने से गुजरते वक़्त आप इसकी तस्वीर नहीं ले सकते । जो बाबा के दर्शन करने उतरता है उसे ही तस्वीर खींचने की अनुमति है।
छान्गू से 10 कि.मी. दूर हम नाथू ला केप्रवेश द्वार की बगल से गुजरे । हमारे गाइड ने इशारा किया की सामने के पहाड़ के उस ओर चीन का इलाका है। मन ही मन कल्पना की कि रेड आर्मी कैसी दिखती होगी, वैसे भी इसके सिवाय कोई चारा भी तो ना था! थोड़ी ही देर में हम बाबा मंदिर के पास थे। सैलानियों की जबरदस्त भीड़ वहाँ पहले से ही मौजूद थी । मंदिर के चारों ओर श्वेत रंग में डूबी बर्फ ही बर्फ थी । उफ्फ क्या रंग था प्रकृति का, जमीं पर बर्फ की दूधिया चादर और ऊपर आकाश की अदभुत नीलिमा, बस जी अपने आप को इसमे. विलीन कर देने को चाहता था। इन अनमोल लमहों को कैमरे में कैद कर बर्फ के बिलकुल करीब जा पहुँचे।
हमने घंटे भर जी भर के बर्फ पर उछल कूद मचाई । ऊँचाई तक गिरते पड़ते चढ़े और फिर फिसले। अब फिसलने से बर्फ भी पिघली। कपड़ो की कई तहों के अंदर होने की वजह से हम इस बात से अनजान बने रहे कि पिघलती बर्फ धीरे-धीरे अंदर रास्ता बना रही है। जैसे ही इस बर्फ ने कपड़ों की अंतिम तह को पार किया, हमें वस्तुस्थिति का ज्ञान हुआ और हम वापस अपनी गाड़ी की ओर लपके। कुछ देर तक हमारी क्या हालत रही वो आप समझ ही गये होंगे:p । खैर वापसी में भोजन के लिये छान्गू में पुनः रुके। भोजन में यहाँ के लोकप्रिय आहार मोमो (Momo) का स्वाद चखा।
भोजन कर के बाहर निकले तो देखा कि ये सुसज्जित यॉक (Yalk) अपने साथ तसवीर लेने के लिये पलकें बिछाये हमारी प्रतीक्षा कर रहा था। अब हमें भी इस यॉक का दिल दुखाना अच्छा नहीं लगा सो खड़े हो गए गलबहियाँ कर!:) नतीजा आपके सामने है। सिक्किम के सफ़र की आखिरी कड़ी में ले चलेंगे आपको गंगटोक शहर की यात्रा पर..
इस श्रंखला की सारी कड़ियाँ
- गंगटोक से उत्तरी सिक्किम (Gangtok to North Sikkim )
- गुरुडांगमार झील .. Gurudangmar Lake, North Sikkim
- चोपटा से लाचुंग और फिर यूमथांग घाटी तक का सफ़र Yumthang Valley
- सफ़र छान्गू झील का और कथा बाबा हरभजन सिंह की Changu Lake
- गंगटोक चित्रों में .. In Pictures Gangtok
बाबाजी को प्रणाम
जवाब देंहटाएंअदभुत वृतान्त!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सराहने के लिए !
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (07-06-2015) को "गंगा के लिए अब कोई भगीरथ नहीं" (चर्चा अंक-1999) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
हार्दिक आभार !
हटाएंसारा दृश्य फिर से साकार होगया मनीष जी . नाथूला चौकी पर जाकर एक अद्भुत सा रोमांच होता है यह सोचकर कि कितनी विकट स्थिति में रहकर हमारे जवान देश की पहरेदारी करते हैं . वहाँ जवानों को अपनी कविता--मातृभूमि के पहरेदारो मेरा तुम्हें नमन --सुनाकर कविता ही जैसे गौरवान्वित होगई .
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही कहा आपने ! बड़ा कष्टकर जीवन है इन सीमा प्रहरियों का। आज ही आपका गुरुडांगमार जाने का विवरण पढ़ा । अच्छा लगा आपके संस्मरण को पढ़ कर।
हटाएंबहुत खूबसूरत है सिक्किम...मेरा बार-बार जाने का मन होता है। क्या आप अभी वहीं हैं। मैं लाचेन नहीं जा पाई थी। बर्फबारी देखने का मन कर गया आपकी तस्वीरें देखकर।
जवाब देंहटाएंनहीं रश्मि जी ये यात्रा संस्मरण पहले का है। अभी पिछले हफ्ते यूरोप की यात्रा से लौटा हूँ ।
हटाएंसुन्दर वर्णन और चित्र
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
हटाएंमुझे आपका लेख बहुत अच्छा लगता है । मै आपके लेख को पढकर यात्रा करने का प्रेरणा मिलती है ।आपके लेख पढने से यात्रा करने का सूख मिलता है । इतना जीवन्त है आपके लेख ।
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