अब तक जैसेलमेर से जुड़ी इस श्रंखला में आपने थार के रेगिस्तान, सोनार किला, लोदुरवा मंदिर, बड़ा बाग और गडसीसर झील के दर्शन किए। जैसलमेर से जुड़ी इस आख़िरी कड़ी में आज आपको लिए चलते हैं पटवा और नाथूमल की हवेलियों की सैर पर। जैसलमेर के किले के बाहर थोड़ी ही दूर पर स्थित पटवों की हवेली जैसलमेर में बनाई गई पहली हवेली में शुमार होती है। 1805 में जैसलमेर के बड़े व्यापारी गुमान चंद पटवा ने इस हवेली का निर्माण करवाया। अगले पाँच दशको में गुमान चंद ने अपने पाँच बेटों के लिए पाँच अलग अलग हवेलियों का निर्माण करवाया जो आज सामूहिक रूप से पटवों की हवेली के नाम से जानी जाती है।
पर बाफना परिवार को यूँ ही 'पटवों' की उपाधि नहीं मिली। दरअसल बाफना परिवार का परंपरागत कार्य गूथने, पिरोने यानि पटवाई का था। सोने चाँदी के धागों से ज़री का काम करने में इन्हें महारत हासिल थी। इसी वज़ह से जैसलमेर के राजा ने इन्हें 'पाटवी सेठ' का नाम दिया जो कालांतर में पटवा हो गया। पाँच से सात मंजिला ऊँची इन हवेलियों की कीमत उस ज़माने में दस लाख आंकी गई है जो आज के मूल्यों से अरबों में पहुँच जाएगी। आख़िर पटवा सेठों के पास इतना धन आया कहाँ से? आपको जानकर ताज्जुब होगा कि इन सेठों के एशिया और भारत में स्थित व्यापारिक केंद्रों की संख्या तीन सौ पचास के लगभग थी। ज़री के काम के आलावा पटवा सेठ लकड़ी, हाथी दाँत, सोना, चाँदी, ऊन, मसालों आदि का व्यापार करते थे। इसके आलावा उनकी आमदनी का एक बड़ा ज़रिया अफ़ीम और बाजार में उधार पर पैसे लगाना भी था।
स्वच्छ नीले आकाश और चमकती धूप में निखरती पटवों की हवेली
पटवों की मुख्य हवेली तक पहुँचने के लिए तंग रास्तों से होकर गुजरना पड़ता है। हिंदू और इस्लामिक मिश्रित स्थापत्य से बनी ये हवेलियाँ एक दूसरे के बेहद करीब हैं।
हवेलियाँ तो आलीशान हो गयीं पर ये गलियाँ संकरी ही रह गयीं
पीले बलुआ पत्थर से बनी इन हवेलियों में आगे का हिस्सा अतिथि गृह की तरह प्रयुक्त होता था। हवेली के बाहरी छज्जे, झरोखे, दीवालों के पीछे छुपे गुप्त रैक, सीढ़ियाँ, बैठक, रसोई घर, दीवारों पर बनें भित्ति चित्र और छतों पर की गई नक़्काशी मन को मोह लेती है। हवेली में उस समय प्रयुक्त होने वाले बर्तनों, सिक्कों और वाद्य यंत्रों का अच्छा संग्रह है। इन हवेलियों के अंदर हमने दो घंटे बिताए। आइए देखें इस बड़ी हवेली की एक छोटी सी झलक इन चित्रों के माध्यम से...
ये देखिए जनाब अपनी रोबदार मूछों के साथ इस झरोखे से कैसे झाँक रहे हैं ?
राजस्थानी चित्र कला का अद्भुत उदाहरण
छतों को ऐसे ही अलग अलग रूपों में सजाया गया है पूरी हवेली में...
शतरंज की इस बिसात पर मुहरें बढ़ाने का लुत्फ़ ही कुछ और है..
इस सुनसान से लगने वाले रेगिस्तानी इलाका तरह तरह के लोक संगीत से परिपूर्ण है। हर लोक संगीत से जुड़ा एक समुदाय है और उसका अपना ही एक वाद्य यंत्र है जिसे बजाने की कला उस समुदाय विशेष के लोग ही जानते हैं।
एक राजस्थानी वाद्य यंत्र
पटवा की हवेली से निकलकर हम सब नाथूमल की हवेली की ओर बढ़े जो वहाँ से कुछ कदमों के ही फासले पर है।
नाथूमल की हवेली के पास दिखा ये सुंदर सा निजी आवास
नाथूमल की हवेली में बाहरी स्थापत्य के आलावा कुछ खास देखने का नहीं है। जब हम वहाँ पहुँचे तो हवेली के आहाते में राजस्थानी वस्त्रों की खरीददारी चल रही थी। ग्राहक मुख्यतः विदेशी ही थे।
नाथूमल की हवेली से बाहर निकलते ही मेरी नज़र हवेली के तीसरे तल्ले में लटके इस नीबू और मिर्च के गुच्छों पर पड़ी। भगवान करे इन खूबसूरत हवेलियों को किसी की नज़र ना लगे।
किसी की नज़र ना लगे !
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वाह, सूखे रेगिस्थान में भी रंग और स्थापत्य की नदी।
जवाब देंहटाएंहम्म सही कहा प्रवीण !
हटाएंखूबसूरत हवेली है, आभार
जवाब देंहटाएंहाँ ललित जी ये हवेलियाँ किसी संग्रहालय से कम नहीं।
हटाएंपटवों की इन हवेलियों के ठीक सामने बम्बई के किसी माहेश्वरी की भ्ाी हवेली बनती ही रहती थी . क्या उसका काम ख़त्म हुआ ?
जवाब देंहटाएंकाजल जी माहेश्वरी हवेली के बारे में तो ज्यादा पता नहीं पर मैं जब वहाँ गया था तो अगल बगल किसी हवेली को बनते हुए तो कम से कम मैंने नहीं देखा।
हटाएंमनीष बहोत ही असर है तुमाहरी कलम मैं लगता है मानो खुद ही वहा से सेहर करके आया हु . बहोत खूब एसे ही नयी नयी जगह जाते रहो और हमे सेहर कराते रहो.
जवाब देंहटाएंItni jankari dene or hamare dil ko chhu jane ke thanks ji....
जवाब देंहटाएंअभी देखना बाकी है
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