मेरी जापान यात्रा से जुड़ी पिछली प्रविष्टि में आपने पढ़ा कि किस तरह हमने याहता (Yahata) से मोज़ीको (Mojiko) तक जापान में किया गया ट्रेन से पहला सफ़र पूरा किया और वहाँ से समुद्र के किनारे चलने वाली पर्यटक ट्रेन से केनमोन पुल (Kanmon Bridge) के पास पहुँचे जो जापान के द्वीप होंशू को क्यूशू से जोड़ता है। वापसी का रास्ता पैदल तय करना था। केनमोन सेतु के नीचे समुद्र के किनारे किनारे एक रास्ता बना दिख रहा था। सौ मीटर चलने के बाद वो रास्ता बंद हो गया तो हम ऊपर चढ़कर पास वाली रोड पर चले आए।
ये इलाका मेराकी पार्क (Meraki Park) का इलाका था जिसका चक्कर लगाने के लिए पाँच सौ रुपये प्रति व्यक्ति का किराया लगता है। ख़ैर हम लोग अंदाज़ से उसी मार्ग पर बढ़ गए। मेराकी मंदिर को पार करने के बाद हमें वो रेलवे लाइन दिखाई दी जिस से हम वहाँ आए थे। किसी ने सुझाव दिया कि अगर उस रेलवे लाइन के साथ चला जाए तो हम रेट्रो टॉवर पहुँच जाएँगे। अब इस सुझाव पर किसी स्थानीय व्यक्ति से मशवरा लेने का तो प्रश्न ही नहीं था। अव्वल तो उस भरी दोपहरी में तेज भागती इक्का दुक्का कारों के आलावा कोई इंसान नज़र नहीं आ रहा था और आता भी तो कौन सा हम लोग उसको अपनी परेशानी का सबब समझा पाते।
हमारे समूह में कुछ लोग रेलवे पटरी को देख कर इतने उत्साहित हो गए कि कुछ ही क्षणों में वो कुलाँचे भरते उस दिशा की ओर बढ़ गए। पर वे ये भूल गए कि ये जापान है,भारत नही जहाँ साथ चलती पगडंडियों के बिना किसी रेलवे ट्रैक की कल्पना करना भी मुश्किल है। तीन चौथाई रास्ता तय करने के बाद उन्हें दिखा कि एक बंद फाटक उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। वो समूह निराश हो कर वहीं से दूसरी ओर मुड़ गया और फिर आँखों से ओझल हो गया।
थोड़ी देर इंतज़ार करने के बाद हमने फैसला किया कि लंबा ही सही हमें सड़क के साथ ही चलना चाहिए। शनिवार का दिन होने के बावज़ूद गर्मी की वज़ह से सड़कें भी बिल्कुल सुनसान थीं। पौन घंटे चलने के बाद भी हम मानचित्र से रास्ते का मिलान नहीं कर पा रहे थे। साथ वालों का भी पता ना था सो इस बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर के बाहर कुछ पल सुस्ताने के लिए रुके। जापान में हर छोटी बड़ी दुकान के सामने ग्राहकों को आकर्षित करने के पतले लंबे पोस्टर लगे होते हैं। पतले इसलिए कि इनमें हिन्दी व अंग्रेजी की तरह बाएँ से दाएँ ना लिखकर ऊपर से नीचे की ओर लिखा होता है। चित्र में बायीं तरफ पोस्टर तो आपको दिख जाएँगे पर ग्राहक.........! जापान में हमारे विस्मय का विषय ही यही होता था कि आख़िर इतनी बड़ी बड़ी दुकानें चलती कैसे हैं.:) ?
पन्द्रह मिनट और चलने के बाद हमारी इस एक घंटे लंबी पदयात्रा का समापन हुआ और हम मोज़ीको की उस
इकतिस मंजिला, 103 मीटर ऊँची इमारत के सामने खड़े थे जिससे मोज़ीको के प्राचीन और नए हिस्सों का शानदार दृश्य दिखाई देता है। इसका डिजाइन आर्किटेक्ट किशो कुरोकावा (Kisho Kurokawa) ने किया है।
पर समूह के पाँच लोग अभी भी नदारद थे। दस मिनट बाद एक टैक्सी से वो भी पदार्पित हुए। पता चला गर्मी से बेहाल हो कर एक बॉर में गला तर करने बैठ गए थे। सबके आते ही लिफ्ट से हम टॉवर के ऊपरी सिरे की ओर चल पड़े।
इकतिस मंजिला, 103 मीटर ऊँची इमारत के सामने खड़े थे जिससे मोज़ीको के प्राचीन और नए हिस्सों का शानदार दृश्य दिखाई देता है। इसका डिजाइन आर्किटेक्ट किशो कुरोकावा (Kisho Kurokawa) ने किया है।
पर समूह के पाँच लोग अभी भी नदारद थे। दस मिनट बाद एक टैक्सी से वो भी पदार्पित हुए। पता चला गर्मी से बेहाल हो कर एक बॉर में गला तर करने बैठ गए थे। सबके आते ही लिफ्ट से हम टॉवर के ऊपरी सिरे की ओर चल पड़े।
नीचे चित्र में आप वो पूरा इलाका देख सकते हैं जिसको पार कर हम रेट्रो टॉवर तक पहुँचे थे।
सामने जो इमारत दिख रही है वो है होटल मोज़ीको (Hotel Mojiko) जो कि मोज़ीको रेट्रो सिटी के ठीक बीचो बीच स्थित है। अपनी स्थिति के हिसाब से ये मोजीको का सबसे बढ़िया होटल है। इस होटल में एक डबल बेड रूम का किराया छः से सात हजार रुपये के बीच का है जो कि समकक्ष भारतीय होटलों के सामने बहुत ज्यादा नहीं है ।
होटल की बाँयी तरफ़ मोज़ी का पुराना मित्सुइ क्लब (Old Mitsui Club) है। इसका निर्माण 1921 में हुआ था। इस क्लब से जुड़ा दिलचस्प तथ्य ये है कि यहाँ प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंसटीन (Albert Einstein) अपनी पत्नी के साथ पधारे थे। आज भी उस कक्ष को संरक्षित कर उसी हालत में रखा गया है।
और ये है केनमोन स्ट्रेट संग्रहालय (Kanmon Strait Museum) जो हमारी यात्रा का अगला पड़ाव था। इसके आस पास का इलाका मोज़ी के बंदरगाह का हिस्सा है। मोज़ी के बंदरगाह का निर्माण 1889 में कोयले की ढुलाई के लिए हुआ था पर इस इलाके के पुराने लोकगीतों में इस बंदरगाह में दक्षिण पूर्वी एशिया से निर्यात किए जाने वाले केलों का जिक्र भी आता है।
मोजी का नया शहर आम जापानी शहरों सा ही नज़र आता है.
दिन के डेढ़ बजने वाले थे। इन खूबसूरत नज़ारों को देखने के बाद आगे कुछ देखने से पहले पेट पूजा जरूरी थी। हफ्ते भर से भारतीय भोजन के स्वाद से पूरा समूह महरूम था। टॉवर पर ही पता चला कि नीचे के बाजार कैक्यो प्लाजा (Kalkiyo Plaza) में एक भारतीय भोजनालय है। ये सूचना मिलते ही समूह में खुशी की लहर दौड़ गई।
पर नीचे उतरने तक मौसम सुहावना हो गया था। ना ना मैं इन कन्याओं को देखकर ऐसा नहीं कह रहा हूँ। आकाश में हल्के हल्के बादलों ने धूप को पूरी तरह अपनी गिरफ़्त में लिया था। साप्ताहिक अवकाश का असर अब मोज़ीको की सड़कों पर दिख रहा था। हमारा समूह यूँ तो रेस्ट्राँ की ओर जा रहा था पर नीचे के इस जमावड़े को देखकर रेस्ट्राँ जाने की बजाए सबके कदम इस ओर मुड़ गए। वैसे भी तो लड़के तो आख़िर लड़के ही हैं ना ! दूर से ये समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर वहाँ हो क्या रहा है जिसकी वज़ह से सारी लड़कियाँ इतना हँस और मुस्कुरा रही हैं।
इन खिले चेहरों के पीछे के राज क्या था? आख़िर हमें भारतीय भोजन मिला या नहीं? क्या जापानी मौसमविदों का अनुमान सच हुआ ? ये सारी बातें बताऊँगा मैं इस श्रृंखला की अगली कड़ी में...
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अरे वाह! बहुत ख़ूब
जवाब देंहटाएंऔर
यह भी!
केतना हमे सतइबू हमार सजनी!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंनवरात्रों की बधाई स्वीकार कीजिए।
शु्क्रिया ! आपको भी नवरात्र मुबारक
हटाएंरुचिकर ढंग से बसाया नगर..
जवाब देंहटाएंहाँ जापान के आम शहरों से रेट्रो लुक थोड़ा अलग तो है ही....
हटाएंये श्रृंखला तो अब दिलचस्प होती जा रही है...
जवाब देंहटाएंऐसा क्या !
जवाब देंहटाएं:):)
हटाएंvery nice journey
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