वसंत का पदार्पण वैसे तो पूरे देश में ही हो गया है पर झारखंड यानि जंगलों के इस भूखंड में इस मौसम का आगमन एक रंग विशेष से जुड़ा है और ये रंग है सिंदूरी। सच मानिए आज कल पूरा झारखंड उस फिल्मी गीत की पंक्तियों को चरितार्थ करता प्रतीत हो रहा है जिसके बोल थे..आ के तेरी बाहों में हर शाम लगे सिंदूरी। अगर जंगल की इस दहकती लाली को देखना हो तो यही वक़्त है झारखंड आने का। यकीन नहीं आता तो चलिए मेरे साथ धनबाद से राँची तक के सफ़र पर और देखिए कि कैसे झारखंड का राजकीय पुष्प अपनी लाल सिंदूरी आभा से पूरे जंगल का दृश्य अलौकिक कर दे रहा है।
कल यानि शनिवार को कार्यालय के काम से दुर्गापुर से लौट रहा था। जैसे ही बराकर से ट्रेन ने झारखंड के धनबाद में प्रवेश किया पलाश के पेड़ों के झुंड लगातार अलग अलग रूपों में आकर मन को सम्मोहित करते रहे। पलाश के ये जंगल धनबाद, चंद्रपुरा, बोकारो, मूरी और टाटीसिलवे तक लुभाते रहे। तो आइए आपको दिखाते हैं पूरी यात्रा में अपने मोबाइल कैमरे में क़ैद किए गए कुछ मनमोहक नज़ारे..
गंगाघाट, झारखंड (Near Gangaghat, Jharkhand)
झारखंड में पलाश और सेमल के पेड़ों में फूल फरवरी महिने से ही आने लगते हैं। ये प्रक्रिया अप्रैल महिने तक चलती रहती है। पलाश के फूलों की विशेषता ये है कि ये सारे पत्तों के झड़ने के बाद फूलना शुरु होते हैं लिहाज़ा जब ये पूरी तरह खिलते हैं तो ऍसा लगता है कि पूरा जंगल सुर्ख लाल सिंदूरी रंग से दहक रहा है।
धनबाद, झारखंड (Near Dhanbad, Jharkhand)
पलाश के फूल को टेसू का नाम भी दिया जाता है। पलाश के पेड़ों का क़द मझोला होता है और इसका तना टेढ़ा मेढ़ा होते हुए ऊपर की ओर बढ़ता है। आदिवासी इलाकों में आपने बहुधा देखा होगा कि इसके पत्तों को लोग बोरों में भर कर बेचते हैं। इनसे सामान्यतः पत्तल, दोने या फिर बीड़ियाँ बनाई जाती हैं।
वैसे तो पूरे रास्ते भर पलाश के पेड़ झुंडों में दिखे पर गंगाघाट के पास खड़े इस इकलौते पेड़ की शान देखकर तो मुझसे कैमरे का ट्रिगर दबाया बिना रहा ना जा सका। वक़्त वक़्त की बात है। एक महिने पहले तक ये पेड़ इस तालाब के किसी कोने में उपेक्षित खड़ा था। वसंत के साथ धूप ने अपने तेवर दिखाए तो मामला ही उल्टा हो गया । पलाश जी 'फूल' के कुप्पा हो गए और ये तालाब सिकुड़ कर एक गढ़्ढ़ा भर रह गया।
गौतमधारा और गंगाघाट के बीच, झारखंड (Between Goutamdhara and Gangaghat, Jharkhand)
धनबाद , बोकारो और फिर मूरी से आगे बढ़ते ही पहाड़ी इलाका शुरु हो जाता है। पर पहाड़ के बीच की घाटियों में और पहाड़ की ढलानों पर पलाश अपनी उपस्थिति दर्ज कराता रहा। वैसे जानकारी के लिए बता दूँ कि भारत में पलाश का पेड़ चार हजार फीट की ऊँचाई तक पाया जाता है।
किता के समीप (Near Kita, Muri, Jharkhand)
पलाश के फूल ऐसे समय लगते हैं जब बाकी पेड़ों में पतझड़ के बाद नई कोपलों के फूटने का समय होता है। चारों ओर इस सूखे माहौल के बीच इनकी रौनक गोपाल दास 'नीरज' को भी ये कहने पर मजबूर कर गई
नंगी हरेक शाख हरेक फूल है यतीम
फिर भी सुखी पलाश है इस तेज़ धूप में
फिर भी सुखी पलाश है इस तेज़ धूप में
अब नीचे के चित्र को देखकर आप समझ ही गए होंगे कि कवि नीरज ने ऐसा क्यूँ कहा है ?
जैसा कि मैंने पहले आपको बताया कि बाकी पेड़ों की तरह ग्रीष्म नरेश सीधे ऊपर का रास्ता अख़्तियार करना अपनी शान के खिलाफ़ समझते हैं। इनका तो जिधर मन आया उधर ही झुक लिए। अब इन्हें देखिए ऐसा नहीं लगता कि इन सहोदर वृक्षों के बीच बिना गिरे नीचे झुकने की प्रतियोगिता चल रही हो।
और यहाँ तो नदी के पीछे आगे सारा जंगल ही लाल हो रखा है।सच इतना चटक रंग है इन फूलों का कि पीछे बहती नदी पर ध्यान जाए तो कैसे?
पर इतना सब होते हुए भी एक टीस तो होती होगी ना इनके मन में। जंगलों में तो इनके रूप के इतने चर्चे हैं पर इनकी खूबसूरती की कद्र इंसान को कब हुई? वो तो गुलाब की खुशबुओं में डूबा रहता है। कवि मदन मोहन 'घोटू' ने इनका ये दर्द कुछ यूँ उभारा है
हम पलाश के फूल,सजे ना गुलदस्ते में
खिल कर महके,सूख,गिर गये,फिर रस्ते में
खिल कर महके,सूख,गिर गये,फिर रस्ते में
जब बसंत आया,तन पर कलियाँ मुस्काई
खिले मखमली फूल, सुनहरी आभा छाई
भले वृक्ष की फुनगी पर थे हम इठलाये
पर हम पर ना तितली ना भँवरे मंडराये
ना गुलाब से खिले,बने शोभा उपवन की
ना माला में गुंथे,देवता के पूजन की
ना गौरी के बालों में,वेणी बन निखरे
ना ही मिलन सेज को महकाने को बिखरे
खिले मखमली फूल, सुनहरी आभा छाई
भले वृक्ष की फुनगी पर थे हम इठलाये
पर हम पर ना तितली ना भँवरे मंडराये
ना गुलाब से खिले,बने शोभा उपवन की
ना माला में गुंथे,देवता के पूजन की
ना गौरी के बालों में,वेणी बन निखरे
ना ही मिलन सेज को महकाने को बिखरे
पर झारखंड में इस वक़्त पलाश के पेड़ों के साथ सेमल के वृक्ष भी जुगलबंदी कर रहे हैं। फरवरी के महिने से यहाँ इन पेड़ों में भी फूल लगने शुरु हो जाते हैं। इनका रंग सिंदूरी ना होकर लाल होता है और मुझे तो इनके फूल बला के खूबसूरत लगते हैं। पिछली फरवरी में पतरातू के यात्रा विवरण में मैंने आपसे इसी वृक्ष की तसवीरें साझा की थीं।
मीलों फैले जंगलों की कुछ और झलकें आपके सामने होतीं अगर गंगाघाट स्टेशन पर मिलिट्री के जवान ने दरवाजे पर खड़े होकर चित्र लेने से मुझे मना ना कर दिया होता। इलाका खराब है हुजूर दरवाजा बंद कर दीजिए उसकी ये बात सुनकर मैं वापस अपनी सीट पर वापस लौट आया था । पर कल ही से इनकी छवियाँ रह रह कर ज़ेहन में आ रही थीं सो आज ये पलाश पुराण आपके सामने ला कर ही मन माना।
कैसे आएँ ?
झारखंड ट्रेन मार्ग से धनबाद, राँची व जमशेदपुर के माध्यम से सारे बड़े शहरों से जुड़ा है। वायु मार्ग से राँची आने के लिए Air India व Jet Airways की उड़ानें, दिल्ली और मुंबई से उपलब्ध हैं। आप फेसबुक पर भी इस ब्लॉग के यात्रा पृष्ठ (Facebook Travel Page) पर इस मुसाफ़िर के साथ सफ़र का आनंद उठा सकते हैं।
वर्षों पहले दूरदर्शन पर एक सीरियल आता था- 'पलाश के फुल'. इसका शीर्षक गीत था- "जब-जब मेरे घर आना तुम, फूल पलाश के ले आना". पलाश के फूल वाकई एक अलग ही माहौल का सृजन कर देते हैं...
जवाब देंहटाएंफिर भी देखिए ना गर्मियों में जंगलों पर राज करने वाला ये फूल कब हमारे गुलदस्तों की शोभा बढ़ा पाता है? इसीलिए तो कवि मदनमोहन की कविता को पोस्ट में मैंने उद्धृत किया है जिसमें पलाश का दर्द उभर कर सामने आ जाता है।
हटाएंबचपन में श्वेत श्याम टीवी पर देखे गए पलाश के फूल धारावाहिक का स्मरण हो आया नायक का नाम शायद अनूप था।
हटाएंबहुत ही मधुर गीत था "जब तक घर तुम मेरे आना"
नव पलाश पलाश वनं पुरः
जवाब देंहटाएंस्फुट पराग परागत पंकजम
नव लतांत लातान्तं शोभायत
सुरभिम सुरभिम सुमनौ भरै
वाह! मुझे तो संस्कृत के ले दो के एक दो श्लोक ही याद हैं और आपने तो जंगलों में पलाश खिलने से बढ़ी खूबसूरती को इस संस्कृत श्लोक के माध्यम से व्यक्त कर दिया !
हटाएंइस मौसम में पलाश मन मोह लेता है..
जवाब देंहटाएंबिल्कुल प्रवीण !
हटाएंभारत में पर्यटन की अपार संभावनाएं हैं, केवल सरकारों को समझने की ज़रूरत है
जवाब देंहटाएंट्रेन में मीलों तक चलते इस दृश्य को देख कर मेरे मन में भी यही विचार उमड़ रहा था। झारखंड पर्यटन On the Palash Trail के नाम से वसंत के मौसम में एक अलग टूर पैकेज बना सकता है।
हटाएंमनीष जी, आपने बहुत ही सुंदर चित्र और उनके साथ पलाश के फूलों के जीवन का वर्णन किया है , मुझे तो ऐसा लग रहा के अभी कैमरा उठाऊ और चल पडू इस लाल रंग को अपने कैमरे में भरने .....
जवाब देंहटाएंसच अभी झारखंड के जंगलों की सुर्ख लाली ऐसी है कि जितने भी चित्र लो मन और लेने का करेगा।
हटाएंBhai aap behad sahajta se kitna sundar sansaar rach dete hain.
जवाब देंहटाएंहौसलाफ़जाही के लिए शुक्रिया शाहरोज़ !
हटाएंAapka nazariya kisi bhi drashy ko aur khoobsoorat bana deta hai
जवाब देंहटाएंपर ये ऐसे भी वाकई खूबसूरत हैं।
हटाएंबहुत सुंदर!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
हटाएंवाह! बेहद खुबसूरत फोटोग्राफ्स।
जवाब देंहटाएंचित्रों को पसंद करने के लिए शुक्रिया....
हटाएंसच है जब पलाश फूलता है तब जंगल खिल उठता है। उदयपुर के पास भी वनीय प्रदेश है और यहाँ भी इसी प्रकार पलाश फूलता है। बहुत ही अच्छा लगता है।
जवाब देंहटाएंआपकी बात से सौ फीसदी सहमत हूँ अजित जी !
हटाएंpehali baar 1974 main ye phool dekhe the .Gangaghat station bhi tabhi dekha tha ...koyale ke engine wali train thi tab...nostalgic ho gaya hoon ...lovely fotografs.
जवाब देंहटाएंजानकर खुशी हुई कि मेरी इस पोस्ट ने दशकों पहले की आपकी यादों को जीवित कर दिया ।
हटाएंमनीष सर, आज बोकारो से फुसरो जाने के क्रम में इतनी पलाश के फूल दिखे की मन सिंदूरी हो गया!
जवाब देंहटाएंहाँ अमन पूरा इलाका ही इन फूलों से अटा पड़ा है।
हटाएंबहुत सुन्दर रचना....आपने तो पलाश के फूलो का दर्द ही इस लेख में उकेर दिया...|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
पलाश का दर्द तो मदन मोहन की लेखनी में उभरा है..मैंने तो बस उसे आप तक पहुँचाने की कोशिश की है।
हटाएंvery touchy topic.. feeling back at home..
जवाब देंहटाएंKindly give your name while commenting.
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