अगली सुबह सवा नौ बजे तक हमारा समूह जोधपुर के मेहरानगढ़ किले पर धावा बोलने के लिए तैयार था। बाहर नवंबर के तीसरे हफ्ते की चमकती धूप और नीला आसमान हमारा इंतज़ार कर रहा था। पौने दस बजे तक मैं मेहरानगढ़ के विशाल अभेद्य किले के सामने खड़ा था। राठौड़ राजाओं की शान कहा जाने वाला 122 मीटर ऊँचा ये किला राजस्थान के विशाल किलों में से एक है। राठौर नरेश राव जोधा (Rao Jodha) ने 1459 ई में जब इसे बनाया था तब ये इतना बड़ा नहीं था, पर जैसे जैसे राठौड़ शासकों की ताकत बढ़ती गई ये किला फैलता चला गया। शुरुआती दो द्वारों से बढ़कर आठ द्वार हो गए। आज का मेहरानगढ़ उन सारे बदलावों को अपने हृदय में समेटे हुए है जो पाँच सौ सालों के राठौड़ शासन के दौरान आए।
मेहरानगढ़ के पहले राठौड़ शासकों की राजधानी मण्डोर (Mandore) हुआ करता था जो इस किले से करीब 9 किमी की दूरी पर है। सुरक्षा की दृष्टि से भोर चिड़िया की पथरीली पहाड़ी के ऊपर एक किला बनाना राव जोधा को श्रेयस्कर लगा। पर एक प्रश्न सहज ही मन में आता है? वो ये कि चित्तौड़ के नाम से चित्तौड़गढ़, वही राणा कुंभ के नाम से कुंभलगढ़ तो फिर राव जोधा को इस किले का नाम मेहरानगढ़ (Mehrangarh) रखने की क्या सूझी? कहानियाँ कई हैं पर इतिहासकारों की मानें तो 'मिहिर' का मतलब सूर्य से है जो राजस्थानी में 'मेहर' भी कहा जाता है। राठौड़ शासक अपने को सूर्यवंशी मानते थे और संभवतः इसी वजह से इस किले का नाम मेहरानगढ़ पड़ा।
मेहरानगढ़ की सबसे खास बात ये है कि इस किले का रखरखाव चित्तौड़गढ़ और कुंभलगढ़ के किलों की तुलना में कहीं बेहतर है। गाइड या फिर आडिओ गाइड दोनों सुविधाएँ यहाँ उपलब्ध हैं। वैसे अगर आप गाइड ना भी लें तो भी किले की हर खास जगह पर लगी तख्तियाँ, आपको उस जगह के बारे में विस्तृत मार्गदर्शन देती हैं। वैसे गाइड लेने से आपको कुछ और कहानियाँ भी सुनने को मिलती हैं इसलिए हमने गाइड लेना ही उचित समझा।
किले में घुसते ही सबसे पहले आपका सामना होता है बाहरी दीवारों पर बनी इस मारवाड़ी चित्र कला से। वैसे तो यहाँ की चित्र कला बहुत हद तक मुगलों से प्रभावित रही पर उसमें जगह जगह चटक रंगों और लोक कला का समावेश हुआ है। किले के पहले द्वार के सामने तोप के गोलों के निशान दिखाई देते हैं। ये निशान उस युद्ध की गवाही देते हैं जिसमें जोधपुर नरेश मान सिंह ने जयपुर के राजा जगत सिंह के आक्रमण को नाकाम कर दिया था। उसी खुशी में यहाँ एक द्वार जय पोल की स्थापना की गई।
किले के थोड़ा अंदर घुसते ही विशालकाय ऊँचे स्तंभों पर बने महल की रचना मन को सम्मोहित कर लेती है। किले से बाहर निकलने के बाद भी इसकी छवि मस्तिष्क में देर तक बनी रहती है।
किले में बने महलों को देखने के लिए लगातार ऊपर की चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। रास्ते में कई चबूतरे और आँगनों को पार करने के बाद अचानक ही 'नकार खाना' (Nakar Khana) का बोर्ड नज़र आता है। पास जा कर देखता हूँ तो विशाल नगाड़े अंदर रखे दिखाई देते हैं।
राजस्थान के अन्य किलों की तरह मेहरानगढ़ ने भी अपनी कई रानियों और उनकी दासियों को सती होते देखा है। कहा जाता है कि महाराजा अजित सिंह की जब मृत्यु हुई तो उनके साथ उनकी छः पत्नियाँ और उनकी अठ्ठावन दासियाँ जल मरीं। लोहा पोल के पास सती होने वाली कुछ रानियों के हाथ के निशान हैं जिसे देख कर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
मेहरानगढ़ के महलों से होते हुए हम जा पहुँच जनाना ड्योढ़ी में। मुगलों के संपर्क में आने की वजह से राजपूतों में भी पर्दा प्रथा का जबरदस्त प्रचलन था। रानियों और उनकी दासियाँ बिना अपना चेहरा दिखाए हुए दरबार या किसी उत्सव की गतिविधियाँ देख सकें, इसके लिए महीन नक्काशीदार जालियाँ बनाई गयीं थीं। लाल बलुआ पत्थर से बनी ये जालियाँ शिल्पकारों की खूबसूरत कारीगरी का अद्भुत नमूना हैं।
मोती महल, शीश महल, फूल महल, तखत विलास व झांकी महल देखते हुए हम फिर नीचे की ओर उतरने लगे। वैसे इन महलों का सचित्र विवरण तो आगे की प्रविष्टियों में आएगा ही पर अगर अभी तक आपको इस बात का अंदाजा नहीं हुआ हो कि महलों को विचरने के लिए किस ऊँचाई तक जाना पड़ता है तो ये चित्र देखिए !
पर ये ना समझिएगा की चढ़ाई खत्म हो गई। नीचे उतरने के बाद फिर किले की
प्राचीर पर जाने का रास्ता चढ़ाई वाला ही है। वैसे अगर आप चलते चलते थक जाएँ
तो किले का रखरखाव करने वाले ट्रस्ट ने अपने लोक कलाकार बैठा रखे हैं जो
विशुद्ध राजस्थानी शैली में यहाँ के लोकगीत इतने प्यार से सुनाएँगे कि आपकी
रही सही थकान जाती रहेगी।
ऍसा ही एक मधुर गीत सुनकर हम किले के सामने वाले हिस्से की ओर बढ़ गए। छत पर एक कतार में शहर की ओर मुँह कर रखी गयीं तोपों का नज़ारा देखने लायक है। तोपों के बीच ही सूर्यवंशी राठौड़ी शासकों का ध्वज फहर रहा था।
तोपों के सिलसिले को पार कर एक रास्ता चामुंडा देवी मंदिर की ओर जाता है। इस घुमावदार रास्ते पर कुछ वर्ष पूर्व जबरदस्त भगदड़ में कई व्यक्ति काल के गाल में समा गए थे।
किले की इस ऊँचाई से आप पूरा जोधपुर शहर देख सकते हैं। सामने ही उमेद भवन पैलेस दिखाई देता है पर इस जगह की सबसे खास बात ये है कि यहीं से पता चलता है कि जोधपुर को नीला शहर (Blue City) क्यूँ कहा जाता है? पूराने जोधपुर के ये मकान नीले रंग से अपनी दीवारों को पुतवा कर शहर की इस विरासत को इक्कीसवीं सदी तक ले आए हैं।
किले के चामुंडा मंदिर वाले छोर से दिखता जोधपुर के पुराने शहर का एक अद्भुत दृश्य...
जोधपुर से जुड़ी अगली प्रविष्टियों में करवाएँगे आपको किले के अंदर के महलों और संग्रहालयों की सैर..
इसे देखने की तमन्ना है अभी तक मौका नही मिला है
जवाब देंहटाएंहाँ अगर राजस्थान के किलों में दिलचस्पी हो तो यहाँ जरूर जाना चाहिए।
हटाएंबड़ी ही अच्छी जगह है.. हम भी जाना चाहते हैं कभी...
जवाब देंहटाएं:)
बीकानेर जैसलमेर और जोधपुर एक ही trip में निबटाओ। इन तीनों जगहों में वैसे जैसलमेर सबसे सुंदर है।
हटाएंभव्य और इतिहास के न जाने कितने पन्ने समेटे..
जवाब देंहटाएंजी बिल्कुल !
हटाएंपूरा किला घूमने में कितना समय लगा? बचपन मे कभी देखा था शायद, इसलिए अब दोबारा देखने का मन है। बस यही सोच रही हूँ कि अब पैदल चलना कितना सम्भव होगा?
जवाब देंहटाएंहमें तो सवा दो घंटे लगे थे। अगर आराम आराम से भी चलें तो तीन घंटों में ये किला पूरा देखा जा सकता है।
हटाएंपंदरा सौ दिन रातड़ो जेठ मास म्है जाण
जवाब देंहटाएंसुद ग्यारस शनिवार रो मंडियो गढ मेहराण।
( किले के निर्माण के विषय में मेहरानगढ़ में लिखा है)
ललित जी यानि इस किले के निर्माण में १५०० दिन लग गए थे। दूसरी पंक्ति का तात्पर्य समझा दें तो मेहरबानी होगी !
हटाएंलीजिए दो वर्षों के बाद जवाब आ रहा है - किले निर्माण में 1500 सौ दिन रात निर्माण कार्य चला तथा ग्यारस सुदी शनिवार के दिन जेठ मास में निर्माण कार्य पूर्ण हुआ।
हटाएंशुक्रिया ! अब तो यही कह सकते हैं कि देर आए दुरुस्त आए :)
हटाएंachcha vivrand hai,mujh mein bhi yahan jaane ki iccha utpan ho gaye hai
जवाब देंहटाएंजरूर जाइए किले की विशालता, राजस्थानी संगीत और अन्य किलों की तुलना में अच्छा रखरखाव आपको निश्चय ही पसंद आएगा।
हटाएंyes sir
हटाएंvastav m y fort dekny k layk h m is fort ko month m ek bar zroor dek leta hukoki m jodhpur m hi reta hu
जवाब देंहटाएंवाह! ये तो खुशकिस्मती है आपकी ...
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