मंगलवार, 16 अक्टूबर 2012

मेरी जापान यात्रा : चलिए आज माउंट साराकुरा (Mount Sarakura) के शिखर पर !

जापान के सफ़र में अब तक आपने पढ़ा कि कैसे हम दिल्ली के टर्मिनल तीन से से टोक्यो और फुकुओका होते हुए कीटाक्यूशू पहुँचे और कैसा बीता हमारा जापान में पहला दिन? जापान में रहते हुए पहला सप्ताहांत करीब आ रहा था। सुबह नौ बजे से शाम साढ़े पाँच तो ट्रेनिंग कोर्स में ही निकल जाते थे। शाम का समय कीटाक्यूशू (Kitakyushu) की अनजान खाली सड़कों पर चहलकदमी करने और आस पास की दुकानों का मुआयना करने में ही निकला जा रहा था। इसीलिए पन्द्रह लोगों के हमारे भारतीय समूह को सप्ताहांत का बेसब्री से इंतजार था। आपस की बातचीत के बाद तय हुआ कि शनिवार यानि तीस जून को इस इलाके की रेट्रो सिटी मोज़िको (Moziko) का भ्रमण किया जाए और रविवार यानि एक जुलाई को माउंट साराकुरा (Mount Sarakura) की चोटी पर धावा बोला जाए। पर मोज़िको की यात्रा के बारे में चर्चा करने से पहले मैं आपको माउंट साराकुरा ले चलना चाहता हूँ।

जब भी हम अपने प्रशिक्षण केंद्र से निकलते थे सामने यही चोटी हम पर आँखे जमाए मिलती थी। तो दिल किया कि क्यूँ ना जापान में सैर सपाटे की बात 621 मीटर ऊँची इस पहाड़ी माउंट साराकुरा से शुरु करूँ। आप सोच रहे होंगे कि इस छोटी सी पहाड़ी में ऐसी कौन सी बात है जिसकी वज़ह से लोग इसकी चोटी पर जाते हैं? दरअसल कीटाक्यूशू शहर की सबसे ऊँची पहाड़ी होने के नाते यहाँ से आप शहर के पाँचों कस्बो यहाता, तोबाता, मोज़ी, वाकामात्सू और कोकुरा का दृश्य देख सकते हैं। Kanmon Strait के पास बसे इन कस्बों को रात्रि बेला में माउंट साराकुरा से देखना एक नयनाभिराम दृश्य उपस्थित करता है और इसीलिए इस दृश्य की गणना जापान के तीन प्रमुख नाइट व्यूस (Three best night views of Japan) में की जाती है।

माउंट साराकुरा की चोटी पर जाने के लिए तीन अलग प्रकृति के वाहनों का सहारा लेना पड़ता है बस, केबल कार (Cable Car) और फिर स्लोप कार (Slope Car)।  नीचे चित्र में आप देख सकते हैं कि कैसे पहले केबल कार  की सफेद धारी और फिर स्लोप कार  की नीली धारी वाले मार्ग से चोटी पर पहुँचते हैं।



हमें पता चला कि सप्ताह के अन्य दिनों में शाम साढ़े पाँच तक ही ये सेवा उपलब्ध रहती है पर शनिवार और रविवार को इसे रात नौ बजे तक बढ़ा दिया जाता है। एक जुलाई को रविवार था। दिन के भोजन के समय निर्णय हुआ कि शाम साढ़े चार बजे तक सारे लोग लॉबी में इकठ्ठा हो जाएँगे ताकि यहाता स्टेशन से पाँच बजे चलने वाली फ्री शटल बस ले ली जाए। पर पौने पाँच बजे मैं और एक मित्र नीचे पहुँचे तो वहाँ एक बंदे को छोड़ कोई नहीं था। बाकी मंडली अभी भी रविवारीय नींद का आनंद उठा रही थी। स्टेशन तक पैदल जाने में भी पाँच से दस मिनट लगते थे सो हम उस बंदे को बाकियों को जगाने को कहकर तेजी से स्टेशन के लिए चल पड़े।

जापान में कुछ ही दिन के अनुभव ने ये स्पष्ट कर दिया था कि यहाँ एक मिनट की देरी भी बस या ट्रेन छूटने के लिए काफी होती है। तेज कदमों से चलते हुए हम सात मिनट में स्टेशन पहुँच गए। बस स्टॉप पर कुछ मिनटों में ही एक बस आई पर वो साराकुरा के लिए नहीं थी। ठीक साढ़े पाँच बजे से दो मिनट पहले एक और बस आयी। हमारे साराकुरा चिल्लाने पर हामी भरते हुए ड्राइवर ने जापानी में कुछ कहा। बस हम इतना समझ पाए कि ये बस ही साराकुरा जाएगी।

पच्चीस सीटों वाली उस बस में मात्र हम दो ही यात्री थे। घड़ी की सुइयाँ 4:59 का समय दिखा रही थीं। हमारे बाकी समूह का कहीं अता पता नहीं था। मन में चिंता हो रही थी कि कमबख़्त अगर एक मिनट बाद बस चल दी तो उसे रुकवाएँगे कैसे? तब तक जापानी भाषा की कक्षाएँ आरंभ भी नहीं हुई थीं और ड्राइवर से जापानी के आलावा किसी अन्य भाषा के ज्ञान रखने की आशा बेमानी थी। अब भी उस बस में सिर्फ दो यात्री थे फिर भी वो सिर्फ हमें ही लेकर चलने को तैयार था। हमें अपने देश के कंडक्टर की याद आ गई जो ऐसी अवस्था में यात्रियों को पकड़ पकड़ कर बस में बैठाता, समय की पाबंदी जाए भाड़ में। पर यहाँ मामला उलट था।  

जैसे ही घड़ी में 5:00 बजे ड्राइवर ने बस का दरवाजा बंद करते हुए एसी स्टार्ट कर दिया। ये हमारे लिए खतरे की घंटी थी सो हम अंग्रेजी में उससे बस रोकने को आग्रह करने लगे। वो हमारी बातों को जब तक समझता तब तक हमें दूर से अपने समूह का एक लड़का दौड़ता नज़र आया। बस हम ऍते ऍते करते हुए उसका ध्यान भागते हुए सहपाठी की ओर करने लगे। ये तरकीब काम कर गई। ड्राइवर भी समझ गया कि वो दौड़ता हुआ प्राणी इसी बस पर चढ़ने आ रहा है। एक तो चढ़ गया पर पता चला कि पीछे से चार और आ रहे हैं। ड्राइवर ने फिर गाड़ी बढ़ाई और हमने फिर ऐते ऐते का कोरस शुरु किया। ये प्रक्रिया दोहराते हुए हम बाकियों को गालियाँ दे देकर देकर बुलाते रहे। अगले दो मिनट तक आधे आधे मिनट के अंतराल पर बाकी के साथी आ गए और हम चल पड़े माउंट साराकूरा की ओर।

जापान में बस को समय से दो मिनट ज्यादा रुकवा लेना हम सबके लिए अपने आप में एक उपलब्धि थी। इसलिए गंतव्य तक पहुँच कर हम सबने ड्राइवर महोदय को धन्यवाद दिया और यादगार के लिए साथ में एक फोटो खिंचाई।


केबल कार और स्लोप कार का कुल भाड़ा एक हजार रुपये प्रति व्यक्ति था पर हम चूंकि जापान सरकार के आमंत्रण पर वहाँ गए थे इसलिए हमें पचास फीसदी की छूट मिली। हमें तो टिकट प्रशिक्षण केंद्र से ही मिल गए थे पर वहाँ जाकर टिकट लेना हो तो इसी टिकट वेंडि्ग मशीन का इस्तेमाल करना पड़ता है।


केबल कार की अगली ट्रिप में बीस मिनट का समय शेष था। हमारे आलावा वहाँ चार पाँच पर्यटक पहले से मौजूद थे।


केबल कार का कुल सफ़र दस मिनटों का होता है और ये जंगलों के बीच से होकर जाती है।


इस यात्रा का सबसे रोमांचक क्षण तब आता है जब सिंगल ट्रैक पर दो केबल कारें आमने सामने होती है। दोनों कारों के चलने का समय इस हिसाब से तय किया जाता है कि ये इस इंटरसेक्शन प्वायंट पर एक समय में पहुँचे और बिना भिड़ंत के एक दूसरे के बगल से होती हुई निकल जाएँ


और ये है केबल कार का अंतिम पड़ाव। इस केबल कार को इस क्षेत्र की सबसे प्रमुख कंपनी निप्पन स्टील ने लगाया है।


केबल कार से उतर कर ही कीटाक्यूशू शहर का रमणीक दृश्य दिखना शुरु हो जाता है। इसलिए स्लोप कार में बैठने के बजाए हम सब अपने कैमरे लेकर अलग अलग कोणों से शहर के विभिन्न हिस्सों की तसवीरें लेने लगे।


चित्र में दायीं तरफ Kanmon Strait के ऊपर जो  लाल रंग का पुल दिख रहा है वो तोबाता ब्रिज (Tobata Bridge) के नाम से जाना जाता है और वो तोबाता को वाकामात्सु (Wakamatsu) से जोड़ता है।


ऊपर के चित्र में अगर दायीं तरफ आप देखें तो सफेद रंग की तीन बेलनाकार आकृतियाँ दिखेंगी। कैमरे को जूम कर पास से देखने पर ये नीचे के चित्र जैसी दिखती हैं। जो लोग स्टील उद्योग से परिचित हैं वे तो शीघ्र पहचान लेंगे कि ये क्या बला है पर बाकियों के लिए बता दूँ कि इन्हें ब्लास्ट फर्नेस स्टोवस (Blast Furnace Stoves) कहा जाता है। ब्लास्ट फर्नेस यानि धमन भट्टी से ही पिघला हुआ लोहा निकलता है। जापान की पहली ब्लास्ट फर्नेस (BF) 1901 में याहाता के पास बनाई गई थी और अब इसे यहाँ स्मारक की तरह रखा गया है। ठीक उसके बगल में स्लेटी रंग से बनी संरचना ब्लास्ट फर्नेस (Blast Furnace) है।


ये है यहाता का इलाका जहाँ हमारा प्रशिक्षण केंद्र स्थित था।


जब तक स्लोप कार हमें माउंट साराकुरा के शिखर पर लाई मौसम तेजी से बदल चुका था। खिली धूप की जगह हल्के बादलों ने ले ली थी। हवाएँ तेज़ हो रही थीं और ठंड भी अचानक बढ़ चली थी। ऐसे मौसम में रात के दृश्य को देख पाने की आशा धूमिल हो चुकी थी।


क्या हम इस बदलते मौसम में माउंट साराकुरा से कीटाक्यूशू शहर का रात्रि दृश्य देख पाए ? इस प्रश्न का जवाब मिलेगा आपको इस श्रृंखला की अगली कड़ी में ! मुसाफिर हूँ यारों  हिंदी का एक यात्रा ब्लॉग

13 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही प्यारे चित्र, उतना ही प्रभावी चित्रण..

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  2. Nice write up professor........
    Nilesh Zode

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  3. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति.... अगली कड़ी का बेसब्री से इंतजार....

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  4. manish jee, yayawer banna aasan nahai hay,kintu aap himmati hay

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    1. बस इतना कहना चाहूँगा प्रशांत जी कि यात्रा करना बचपन से अच्छा लगता रहा है। और जिस चीज में आनंद आए उसके लिए देर सबेर ही सही वक़्त और अवसर निकल ही आते हैं।

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  5. I laughed out loud when I read about your anxiety in the bus. :-)
    Very nicely written Manish, you are tempting us to visit that country soon.

    And it's fun to watch the other train waiting at the intersection. Isn't it?

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    1. Thx Nisha !No none of the train is waiting for other. Both are coming in each other's direction but their time of departure and speed is set in such a manner that they reach intersection point at the same instant and thus avoid a head on collision :)

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  6. शुक्रिया प्रशांत,प्रवीण, नीलेश और मनीष कोटक इस प्रविष्टि को पसंद करने के लिए !

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