बुधवार, 3 अक्टूबर 2012

मेरी जापान यात्रा : कीटाक्यूशू (Kitakyushu) का वो पहला दिन!

जापानी समय के अनुसार दोपहर बारह बजे हम फुकुओका पहुँच चुके थे। फुकुओका से हमारा अगला पड़ाव था कीटाक्यूशू शहर (Kitakyushu City) था जो क्षेत्रफल के हिसाब से फुकुओका प्रीफेक्चर का सबसे बड़ा शहर है। एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही हल्की बूँदा बादी शुरु हो गई थी । मौसम सुहावना था । तापमान यही कोई 26 डिग्री के आसपास। विश्वास करना मुश्किल हो रहा था कि राँची से हजारों मील दूर आने के बावजूद भी मौसम वही का वही निकलेगा जैसा हम उसे अपने शहर छोड़ आए थे। एक जापानी महिला हमें अपनी गाड़ियों तक पहुँचाने के लिए बाहर खड़ी थीं। हमारा समूह यूँ तो पन्द्रह लोगों का था पर दिल्ली से हम दस लोग जो कि भारत के अलग अलग राज्यों से थे, साथ साथ आए थे। दस लोगों के लिए तीन वैन मँगाई गयी थीं। 


इतने सुहावने मौसम के बावजूद ड्राइवर ने एसी चला रखा था। अब बाहर का मौसम इतना सुहाना हो तो भला विदेशी हवा में साँस लेने का मौका हम क्यूँ छोड़ते ? सो ड्राइवर से नज़रें बचा कर चुपके से मैंने एक शीशा खोल लिया। पर वैन की गति इतनी तीव्र थी कि हवा के तेज थपेड़ों ने मुझे शीशा बंद करने पर मजबूर कर दिया।


फुकुओका से कीटाक्यूशू की दूरी मात्र अस्सी किमी है। इस रफ्तार से हम एक घंटे से कम में कीटाक्यूशू पहुँचने वाले थे। बाहर भीड़ का कोई नामोनिशान नहीं था। सड़कों पर तरह तरह की कारें दौड़ रही थीं। सुजुकी की कई गाड़ियाँ दिखीं जो हमारी यहाँ की गाड़ियों जैसी ही थीं। रास्ते में कुछ रंग बिरंगी इमारतें नज़र आयीं उनमें से एक ये रही..



शीघ्र ही हम फुकुओका शहर छोड़कर कीटाक्यूशू जाने वाले राजमार्ग पर थे। थोड़ी ही देर में हरे भरे पहाड़ सड़क की दोनों ओर आने लगे। पहाड़ों पर बाँस के जंगलों का विस्तार पूरे रास्ते देखने को मिला।


जापान में बाँस के पेड़ को बेहद श्रद्धा के साथ देखा जाता है। कई धार्मिक उत्सवों में इनका उपयोग बुरी आत्माओं को दूर रखने के लिए होता हैं। बाँस से बनाए गए शिल्प की कलात्मकता में पूरे जापान का लोहा विश्व मानता है। जापान की एक प्राचीन और बेहद मशहूर लोक कथा  ताकेतोरी मोनोगातारी (Tale of Bamboo Cutter) में तो बाँस के तने से राजकुमारी कागुया के निकलने की बात कही गयी है। यही नहीं भूकंप से हलकान रहने वाले इस देश में ऐसे किसी समय लोग बाँस के जंगलों की ओर दौड़ने की सलाह देते हैं क्यूँकि इनकी मजबूत जड़ें धरती को जल्दी फटने नहीं देतीं। हल्का गर्म और आद्र मौसम इनके लिए अनुकूल होता है और हम दक्षिणी जापान में इसी मौसम में पहुंचे थे।


बाँस के जंगलों की हरियाली और ठंडी हवाएँ हमारे नए देश में पहुँचने के रोमांच को और बढ़ा रही थीं। आपस की गपशप के बीच एक घंटे का सफ़र जल्द ही बीत गया। वैन राजमार्ग छोड़ कर किसी कस्बे में प्रवेश कर गई थी। कस्बे का नाम यहाता था और यहीं हमारा ट्रेनिंग सेंटर भी स्थित था। वैसे पूरा कीटाक्यूशू शहर कोकुरा (Kokura), मोज़ी (Mozi) , तोबाता (Tobata) , वाकामात्सु (Wakamatsu) और याहाता (Yahata) नाम के पाँच छोटे छोटे कस्बों को मिला कर बना है।


जब हम सब ट्रेनिंग सेंटर में पहुँचे तो दिन का एक बज रहा था। हम सब को साथ बिठा कर हमें अपने कमरे और ट्रेनिंग सेंटर में उपलब्ध सुविधाओं की जानकारी दी गई।

पर अपने अपने कमरों में जाने के पहले मेस में भोजन कर लेने की सलाह दी गई। जापानी समय के बेहद पक्के होते हैं। अगर आप मेस के निर्धारित समय से एक दो मिनट भी देर से पहुँचे तो समझिए कि आपको भूखा ही रहना पड़ेगा। वैसे तो हम सभी जापानी भोजन के प्रति ज्यादा उत्साहित नहीं थे। नेट पर शाकाहारी भोजन को लेकर कही बातें याद आ रही थीं। इसलिए ज्यादा उम्मीद नहीं थी कि हमारे मन का यहाँ कुछ मिलेगा।


पर जब मेनू में चावल और फिंगर चिप्स दिखा तो जान में जान आई कि यहाँ भूखों मरने वाली नौबत नहीं आएगी। दिक्कत सिर्फ ये थी कि दाल मेनू से नदारद थी । चावल भी वे ऐसा सटा सटा बनाते हैं ताकि उसे चॉपस्टिक्स से खाया जा सके। जीवन में पहली बार मैंने चावल को टमाटर सूप के साथ मिलाकर खाया।

टेलीफोन कार्ड की खरीद के लिए हम भोजन के बाद याहाता की सड़कों पर निकले। बाहर तेज हवाएँ चल रही थीं।


हमारे ट्रेनिंग सेंटर के ठीक सामने माउंट साराकूरा की पहाड़ी दिख रही थी। इक्का दुक्का लोग सड़कों पर नज़र आ रहे थे।

बारिश नहीं हो रही थी पर हमारे देश के बंगाली मानूस की तरह सबके हाथ में एक छतरी जरूर थी। अंतर ये था कि हमारे यहाँ की काली छतरियों से उलट यहाँ की छतरियों का रंग सफ़ेद था। रिसेप्शन से हमें आस पास के इलाके का मानचित्र पकड़ा दिया गया था जिसकी सहायता से हमें टेलीफोन कार्ड रखने वाली दुकान तक पहुँचना था।


हम मानचित्र देखते हुए आगे बढ़े। दुकान तक पहुँचने के लिए हमें सड़क पार करनी थी। सड़क पर कोई ट्रैफिक लाइट नहीं थी। गाड़ियाँ कम ही नज़र आ रही थीं पर जो भी आ जा रही थी वो काफी द्रुत गति से चल रही थीं। जेब्रा क्रासिंग से थोड़ी दूर खड़े होकर हम असमंजस में सोच ही रहे थे कि क्या करें? तभी तेजी से आती गाड़ियाँ हमारे पास आ कर रुकने लगीं। हमें लगा आख़िर हमसे यहाँ आते ही कौन सी गलती हो गई कि गाड़ी रोककर सब हमें ही घूरे जा रहे हैं। अचानक हमें लगा कि उन्हें समझ आ गया है कि हमें सड़क पार करनी है और इसलिए गाड़ी रोककर हमारे सड़क पार करने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

मुझे अपने देश की याद आ गई। हमारा देश तो बस इस नियम से चलता है कि जिसकी गाड़ी सबसे बड़ी वो ही सड़कों का राजा है या देशी लहजे में कहूँ तो सड़क उसके बाप की है। ट्रक, बस, जीप, कार, आटो, रिक्शा, साइकिल के बाद पैदल चलने वालों का नंबर आता है। पर जापान में तो इसके विपरीत पैदल चलने वाला ही सड़कों का राजा है। खासकर जहाँ अलग से ट्रैफिक सिग्नल नहीं लगे हों। आप सोच नहीं सकते कि उन चालीस दिनों में हमने कितनी शान से सड़कें पार कीं।


ख़ैर इस आनंददायी अनुभव के बाद हम दुकान तक पहुँचे। दुकान वाला ये तो समझ गया कि हम क्या खरीदने आए हैं। पर जब कार्ड के साथ भारतीयों ने कार्ड की वैलेडिटी, भारत की काल दरों आदि विषयों पर प्रश्नों की झड़ी लगा दी तो उसकी टूटी फूटी अंग्रेजी जवाब दे गई और उसे अपनी पुत्री को बुलाना पड़ा। जापान में अंग्रेजी समझने वाले कम हैं और उसे बोलने वाले तो उससे भी कम। अपने चालीस दिनों की यात्रा में कई ऐसे मौके आए जब हमें बर्फी की तरह इशारों इशारों में बात करनी पड़ी और इस बात पर पक्का यकीं हो गया कि इशारेबाजी भी एक कला  है।
 
अपने ट्रेनिंग सेंटर से एक किमी से भी कम की दूरी तय करने में ही जापान की एक विलक्षणता हमें नज़र आ गई जिसकी चर्चा हाल ही में आमिर खाँ ने सत्यमेव जयते में की थी। जापान दर्पण की अगली कड़ी में मैं आपको दिखाऊँगा कि किस तरह जापानियों ने अपने शहरों के निर्माण में विकलांग लोगों की सहूलियत का ध्यान रखा है।

16 टिप्‍पणियां:

  1. The joys of eating in a foreign land particularly if you are a vegetarian!

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    1. ख़ैर शाकाहारी भोजन मिलने के बावजूद हमने joy का असली अनुभव जापान के भारतीय भोजनालयों में किया। जापानियों का शाकाहारी भोजन भी हम अपना शारीरिक इंजन चालू रखने लायक भर ही लेते थे।

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    1. शुक्रिया.. मान ले रहा हूँ कि बहुत और लगा के बीच आपने "अच्छा" लिखा होगा:)

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  3. wah aapne to free me japan ghuma diya ,,,follow krta hu

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    1. शुक्रिया.. आलोक जी फ्री में कहाँ ? आपका कुछ समय तो लिया। ये समय भी तो कीमती होता है।

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  4. thanks for the detailed report.i have been following your blog for quite som etime but leaving a comment for the first time.....wonderful blog.

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    1. भाई जानकर अच्छा लगा कि आपको मेरी ये पोस्ट अच्छी लगी और आप इस ब्लॉग के नियमित पाठक हैं। पर आप अपना नाम भी लिखते तो मुझे ज्यादा खुशी होती।

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  5. सुन्दर दृश्य और रोचक वर्णन..

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  6. शाकाहारी भोजन तो बढ़िया ही मिल गया.
    चावल के साथ सूप का स्वाद बुरा नहीं होगा.
    सफ़ेद छतरी वाली बात ने जरूर सोचने पर मजबूर किया..आखिर हमारे यहाँ ज्यादातर छाते काले रंग के क्यूँ होते हैं .
    रोचक यात्रा-वृत्तांत

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    1. चावल के साथ सूप
      देखिए रश्मि जी भारत में होता तो ख़ुद से भी बनाना होता तो सूप के साथ चावल तो नहीं खाता। हाँ बस सूप चावल को तर करने का काम कर गया। वैसे जो कटलेट देख रहीं हैं उसकी शक्ल पर मत जाइएगा। वहाँ का आलू (जो कि मेरी बेहद प्रिय सब्जी है) भी एक अजीब सी मिठास लिए हुए था।

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  7. मनीष जी....
    आपने जापान का वर्णन बखूबी और बड़ी सुंदरता से किया हैं....| अच्छा लगा जानकर की आपको वहाँ भी शाकाहारी भोजन उपलब्ध हो गया....|
    फोटो वाकई में बहुत सुंदर आई हैं.....|

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    1. रीतेश इस भोजन को भी हम लोग झेल ही रहे थे ..

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  8. professor great description of our first day.... get going

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    1. Thx. Roshan I am thinking that I should invite you as a guest writer on one of the topic. You guessed it right it will be Beaches in Japan :)

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