बुधवार, 10 अक्टूबर 2012

जापान दर्पण : जापान और विकलांगता

याद है आपको कुछ महिने पहले ही टीवी पर एक कार्यक्रम आया था सत्यमेव जयते इस कार्यक्रम में भारत में विकलांगों को दी जाने वाली सहूलियतों को चर्चा का विषय बनाया गया था। उस बहस से जो बात बाहर निकल कर आई थी वो ये कि अगर एक विकलांग अपनी मानसिक क्षमता के बल बूते पर इस समाज में अपनी पहचान बनाना चाहे तो उसे रोजमर्रा की जिंदगी में उसे पहाड़ जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। बस, ट्रेन या आफिस की सीढ़ियों पर चलने के लिए रैम्प नहीं और जो हैं उनका रखरखाव नहीं। सड़क, स्कूल या कॉलेजों में अंधे लोगों को चलने के ना ढ़ंग के रास्ते बने हैं ना सीढ़ियों पर रेलिंग। छोटे कस्बों और शहरों की कौन कहे दिल्ली जैसे महानगर में भी ऐसी सुविधाओं से युक्त गिने चुने स्कूल ही हैं।

दरअसल आम भारतीयों की चेतना में ये बात है ही नहीं कि जब हम कोई भी सड़क या इमारत बना रहे हों तो उसके डिजाइन में विकलांगों के लिए क्या परिवर्तन करने चाहिए?

इसलिए जब मैंने तीन महिले पहले जापान की धरती पर कदम रखा तो वहाँ विकलांगों के लिए दी जाने वाली सहूलियत को देख कर आँखें फटी की फटी रह गयी। पिछली प्रविष्टि में मैंने आपको बताया था कि किस तरह एक आम आदमी जापान में शान से सड़क पार करता है। पर विकलांग को अगर सड़क पार करनी है तो वो ट्रैफिक सिग्नल को एक बटन दबा कर हरा से लाल कर सकता है।

जापान की पौने तेरह करोड़ की आबादी में  पैंतीस लाख शारीरिक रूप से अपंग हैं, पच्चीस लाख मानसिक रूप से बीमार है और पाँच लाख मानसिक अपंगता से पीड़ित हैं। जापान ने अपने इन पैंसठ लाख लोगों की जरूरतों का ध्यान रखने के लिए सारे सार्वजनिक स्थलों पर सुविधाएँ मुहैया करायी हैं। स्टेशनों पर लिफ्ट, बस के दरवाजों पर व्हीलचेयर को लिफ्ट से उठाने की सुविधा और ट्रेनों में सीधे प्लेटफार्म से बिना किसी पॉयदान के ट्रेन के अंदर घुसने की सुविधा तो आम है। इनमें से कुछ सहूलियतों को अपने जापान भ्रमण के दौरान कैमरे में क़ैद करने में कामयाब रहा तो आइए देखें इन सुविधाओं की कुछ झलकियाँ



सड़क पर उभरी उभरी ये पीली पट्टी अंधे लोगों की सुविधा के लिए बनाई गयी है ताकि इसकी सहायता से बिना किसी मदद के वो अपना रास्ता ख़ुद ढूँढ सकें।


ये है बड़े से शापिंग मॉल का मुख्य द्वार

मॉल के अंदर भी ये पीली पट्टी आपका साथ नहीं छोड़ती..


हमारा लेक्चर हॉल हो या हॉस्टल के सामने का गलियारा या फिर ऊपर चढ़ने की सीढ़ियाँ  हर जगह रेलिंग और उस पर उभरे चिन्ह विकलांगों की मदद के लिए बनाए गए हैं।


प्लेटफार्म पर भी रेलिंग और पीली पट्टी मौजूद है। जैसे ही कोई व्हील चेयर पर सीढ़ियों के पास पहुँचता है, दीवार से सटा एक आयताकार बॉक्स खुल कर लिफ्ट की शक़्ल ले लेता है।



शौचालय भी ऐसे बनाए गए हैं जहाँ व्हीलचेयर से पहुँच कर उसका इस्तेमाल किया जा सकता है..


अगर जापान अपने यहाँ के पैंसठ लाख लोगों की जरूरतों के लिए ऐसी सहूलियतें दे सकता है तो फिर इस देश के दो करोड़ से ज्यादा विकलांगों को भी ये बुनियादी सुविधाएँ मिलनी चाहिए। क्या आपको नहीं लगता कि हम सभी को इनकी जरूरतों के प्रति ज्यादा जागरूक होने की आवश्यकता है? मुसाफिर हूँ यारों हिंदी का एक यात्रा ब्लॉग
आप फेसबुक पर भी इस ब्लॉग के यात्रा पृष्ठ (Facebook Travel Page) पर इस मुसाफ़िर के साथ सफ़र का आनंद उठा सकते हैं।

32 टिप्‍पणियां:

  1. सार्वजनिक स्थानों पर पूरी सुविधायें उपस्थित हैं यहाँ, प्रशंसनीय और अनुकरणीय।

    जवाब देंहटाएं
  2. I just loved this post. I always wonder why we Indians can't be this sensible. It's not that we don't have brains or emotions or funds. Only thing that's lacking is the attitude towards the society.

    जवाब देंहटाएं
  3. मनीष जी.....

    सबसे पहले तो जापान में विकलांग लोगो हेतु सुविधाओं के बारे में जानकर मुझे बहुत अच्छा लगा इसलिए शायद यह देश विकसित कहे जाते हैं....और दूसरा हमारे देश में विकलांग हेतु सुविधाये बहुत ही कम मात्र है इसलिए शायद हमारा देश विकासशील देश हैं.....| आपसे जापान के बारे में और चित्र देखकर अच्छा लगा....|

    जवाब देंहटाएं
  4. I agree when I first saw so many people on wheel chairs on a beach in UK I was stunned. And then I realized it was because the place was accessible!

    जवाब देंहटाएं
  5. Excellent.....Professor!!!!!!!!!!!!!!!!Fida on your style of thinking,way of presentation & on everything & over n above your name....Great!!!!!Manish.......Great!!!!!

    जवाब देंहटाएं
  6. Nice posting. We should learn somthing from Japan.

    जवाब देंहटाएं
  7. दि‍ल्‍ली में एक 'वि‍ज्ञान भवन' है, यहां आए दि‍न अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर के तमाम सरकारी आयोजन होते हैं. यह भवन, जयपाल रेड्डी के अधीन आने वाले मंत्रालय के अंतर्गत 'केन्‍द्रीय लोक नि‍र्माण वि‍भाग' के पास था (आज भी यही स्‍थि‍ती है). क़रीब तीन साल पहले एक समारोह में ये मंत्री जी भी एक कार्यक्रम में भाग लेने वहां पहुंचे तो उन्‍हें उनके सुरक्षाधि‍कारि‍यों ने कुर्सी पर उठा कर उन्‍हें भवन में पहुंचाया क्‍योंकि वहां कोई रैम्‍प नहीं था. और सबसे मज़े की बात तो ये है कि वहां आज भी कोई रैम्प नहीं है. शेष भारत की कोई क्‍या कहे. अब सर्वोच्‍च न्‍यायालय से ही आशा की जा सकती है.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. शुक्रिया काजल जी इस महत्त्वपूर्ण जानकारी को यहाँ बाँटने का। जानकर आश्चर्य हुआ !

      हटाएं
  8. इस बात को मैंने भी देखा और प्रशंशा की जापानियों की...वो विकलांगों का कितना ध्यान रखते हैं...एक हम हैं सिर्फ लफ्फाजी करते हैं करते धरते कुछ नहीं...

    नीरज

    जवाब देंहटाएं
  9. आह बहार गए नहीं की रोनाधोना शुरू :)

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. अगर अपने देश की कमियों की ओर ध्यान उजागर करना "रोना धोना" है तो यही मान लीजिए कि मुझे यहीं करना सही लगता है।

      हटाएं
  10. कम से कम अनुकरण करके ही हमारे देश के लोग कुछ सीखें, उनके प्रति थोड़ी संवेदनशीलता रखें, उनकी सुविधा-असुविधा की सोचें तो हालात सुधरेंगे।
    सिर्फ सरकार के लिए ही क्यूँ कहा जाए ,आमलोग ही कहाँ इतने संवेदनशील हैं उनके प्रति...
    काफी पहले एक पोस्ट लिखी थी, इन लोगों के प्रति लोगों की असंवेदनशीलता के विषय पर।

    जापान में उनके लिए इतनी सुविधाएं देख, अच्छा लगा।

    जवाब देंहटाएं
  11. All developed nations care for all inhabitants and they give special care and attention to physically disabled, and different people. This is one sign of a developed nation. India is far from achieving such a status.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. Cine Manthan & Ritesh Gupta मुझे नहीं लगता बात सिर्फ विकसित और विकासशील देश की है। सही है कि हम उनसे पीछे हैं और उस हिसाब से उतनी सुविधाएँ नहीं दे पाएँगे पर कहीं शुरुआत तो हो। मसलन हर जगह रैम्प बना देने में इतना कोई पैसा नहीं लगता। जैसा पोस्ट में एक टिप्पणी के तौर पर Kajal जी ने कहा कि यहाँ तक की देश के एक मंत्री जयपाल रेड्डी जिन्हें दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित कार्यक्रमों में अक्सर भाग लेना पड़ता था को भी लोग उठा कर ले जाते थे। विशिष्ट अतिथियों के पीछे भागने वाले इस देश में ऐसा होता है इसें सुनकर आपको कुछ अज़ीब नहीं लगता । जिस देश में आज भी लोगों का एक अच्छा ख़ासा तबका विकलांगता को पूर्व जन्म के पापों का फल मानता हो वहाँ धनाढ़्यता से ज्यादा हमारी मानसिक सोच और संवेदनशीलता पर सवाल उठना लाज़िमी है।

      हटाएं
    2. In developing and under developing countries policy makers or decision makers do not remain sensitive at that level where they can think about such issues. Developed nation- term carries many meanings along with it. People ae more aware about their rights and there politics of nation does not work like it works here. There democracy is working for the lowest strata people, here it is not meant for them. There decisions are not taken in closed rooms without knowing the facts faced by common people, and people are always consulted whenever any thing is decided which is going to affect their life, here it is opposite, anybody in power decides what is good for people living in a remote village. It is not only matter of money, outlook of developed nations towards their citizens is very very different than country like India, where even common people may comment on physically disabled person - inhe jarurat kya thee ghar se nikalne kee? Very big difference is there. Middle class, upper middle class, even rich class and powerful class, ruling the nation, they are still hungry so things do not trickle down to these kind of problems. There a rich person may donate his entire asset to a university here Industrialists are opening scgool, colleges, universities to mint money. Bitter truth but it is different there.

      हटाएं
    3. शुक्रिया अपनी बात और स्पष्टता से रखने के लिए !
      It is not only matter of money, outlook of developed nations towards their citizens is very very different than country like India, where even common people may comment on physically disabled person - inhe jarurat kya thee ghar se nikalne kee?
      मैं इसी सोच की बात कर रहा था। अगर सरकार कुछ ना भी करे पर हम अपनी रोजमर्रा की ज़िंदगी में बहुत कुछ ऐसा कर सकते हैं जो इनकी ज़िंदगियों को अपेक्षाकृत आसान बना सके।

      हटाएं
    4. orgnaized religions में जैसे संवेदना सिखाई जाती है वैसी हमारे यहाँ गायब है, नारों में जरुर है पर जीवन में नहीं है, यहाँ अपंगता का उपहास उडाना ज्यादा देखने में आता है, और लोग अपने बच्चों को रोकते नहीं ऐसा करने से| हमारी फिल्मों ने भी उपहास वाली प्रवृति का उपयोग किया है हास्य पैदा करने के लिए| धन और साधन कहीं न कहीं बहुत बातों को प्रभावित करते हैं| जब लोग एक स्थिर स्तर का जीवन जीने लगते हैं तो उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती अगर कुछ धन किन्ही ऐसे कामों में लग रहा है जिनसे उनका कम से कम अभी कोई मतलब नहीं है पर जिन बातों से बहुत सारे लोगों का भला हो सकता है| अगर सरकारे, कम से कम सार्वजनिक स्थालों (रेल, बस, एअरपोर्ट) आदि में ऐसे प्रावधान कर दे और टीवी के माध्यम से जाग्रति फैलाए तो ऐसी सोच विकसित हो सकती है| जैसे सेफ्टी (आग संबंधी) नोर्म्स नई इमारतों में लागू होने लगे हैं ऐसे ही सडकों पर ऐसे फुटपाथ बनाने का नियम भी बन सकता है जिसे न देख पाने वाले लोग इस्तेमाल कर सकें| विकसित देशों में दृष्टिहीन लोगों के लिए ट्रेंड कुत्ते दिए जाते हैं जो उन्हें कहीं भी ले जाते हैं| हम लोग कचरे तक का प्रबंध नहीं कर पा रहे हैं| ये सब नाजुक मसले तो दूर की कौड़ी हैं| आशा जरुर रखनी चाहिए कि ऐसा हो जाए|

      हटाएं
  12. मनीष सर, हमारे यहाँ तो रिवाज है अपना हिस्सा लेकर चलते बनो, अपने से ही फुरसत नहीं है तो विकलांगो के बारे में सोचने का समय किसको है ! खैर अच्छी जानकारी, शायद थोडा बहुत ही हमलोग अनुसरण कर ले ! वर्ना इस देश और देशवाशियो का तो भगवान भी भला नहीं कर सकता ! नेता लोग अपने फायदे के लिए उसे भी अपने पार्टी का सदस्य बना दे !

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. शुक्रिया Aman अपने विचार रखने के लिए !

      हटाएं
  13. जिस देश मे विकलांग को हेय दृष्टि से देखा जाता है उस देश मे ऐसी कल्पनाये कभी कभी कोरी लगती है !

    जवाब देंहटाएं
  14. मनीष जी ..ये पोस्ट बहुत महत्त्वपूर्ण है ........

    जवाब देंहटाएं
  15. Nice post ! Great to see that we care for blind and disabled

    जवाब देंहटाएं