राजस्थान जाने के पहले ही कुंभलगढ़ के बारे में पढ़ा था कि यही वो किला है जिसकी एक ओर मारवाड़ और दूसरी ओर मेवाड़ की सीमाएँ लगती थीं। राजस्थान के अन्य किलों की अपेक्षा कुंभलगढ़ का आबादी से अलग थलग दुर्गम घाटियों के बीच बसा होना मुझमें इसके प्रति ज्यादा उत्सुकता पैदा कर गया था। यही वज़ह थी कि अपने कार्यक्रम में नाथद्वारा और हल्दीघाटी को ना रख मैंने उदयपुर प्रवास के तीसरे दिन कुंभलगढ़ किले और पास बने रनकपुर के मंदिरों को देखने का कार्यक्रम बनाया था।
हम लोग सुबह के साढ़े नौ बजे सड़क के किनारे ठेलों पर बनते गरमा गरम आलू के पराठों का भोग लगाकर कुंभलगढ़ की ओर चल पड़े । यूँ तो कुंभलगढ़, उदयपुर से करीब अस्सी किमी की दूरी पर है पर अंतिम के एक तिहाई घुमाबदार पहाड़ी रास्तों की वज़ह से यहाँ पहुँचने में दो ढाई घंटे लग ही जाते हैं। उदयपुर से निकलते ही अरावली की पहाड़ियाँ शुरु हो जाती हैं। रास्ते में दिखती हरियाली, कलकल बहती पहाड़ी नदी पश्चिमी राजस्थान की शुष्क जलवायु के ठीक विपरीत छटा बिखेर रही थी।
हम लोग सुबह के साढ़े नौ बजे सड़क के किनारे ठेलों पर बनते गरमा गरम आलू के पराठों का भोग लगाकर कुंभलगढ़ की ओर चल पड़े । यूँ तो कुंभलगढ़, उदयपुर से करीब अस्सी किमी की दूरी पर है पर अंतिम के एक तिहाई घुमाबदार पहाड़ी रास्तों की वज़ह से यहाँ पहुँचने में दो ढाई घंटे लग ही जाते हैं। उदयपुर से निकलते ही अरावली की पहाड़ियाँ शुरु हो जाती हैं। रास्ते में दिखती हरियाली, कलकल बहती पहाड़ी नदी पश्चिमी राजस्थान की शुष्क जलवायु के ठीक विपरीत छटा बिखेर रही थी।
चालक दातार सिंह हमें बताने लगे कि इस इलाके में भील जन जाति के लोगों की मुख्य आबादी है। भीलों ने मेवाड़ के इतिहास पर समय समय पर मुख्य भूमिका अदा की है। ऐसे दो मौकों का उल्लेख करना यहाँ आवश्यक होगा।
आपको पन्ना धाय की कथा तो याद होगी कि कैसे चित्तौड़ का राजसिंहांसन पाने के लिए बनबीर सिंह ने 1537 ई. में राजा विक्रमादित्य को मार कर नन्हे उदय सिंह द्वितीय को मारने की कोशिश की। पन्ना ने बिना समय गवाए, ख़ूनी बनवीर के कक्ष में प्रवेश करने के पहले अपने शिशु चंदन को उदय सिंह की जगह रख दिया। अपने पु्त्र की निर्मम हत्या अपनी आँखों के सामने होते देख भी पन्ना ने अपना मानसिक संतुलन नहीं खोया और राजकुमार की जान की रक्षा के लिए शरण माँगने पहले देवलिया और फिर डूँगरपुर जा पहुँची। पर इन रियासतों से उसकी शरण की पुकार ठुकरा दी गई। पर पन्ना ने हार नहीं मानी और अरावली के घने जंगलों से होती हुई कुंभलगढ़ जा पहुँची। इतिहासकार मानते हैं कि एक अकेली स्त्री के लिए इतनी दुर्गम यात्रा बिना इस इलाके में रहने वाले भीलों की सहायता के बिना संभव नहीं थी। अंततः पन्ना धाय का अथक प्रयत्न सफल हुआ और राजकुमार उदयसिंह को कुंभलगढ़ के प्रशासक अशा शाह ने पनाह दी। नीचे चित्र में पारंपरिक वेश भूषा में दिख रही है एक भील युवती।
कुंभलगढ़ के इसी किले में महाराणा प्रताप का जन्म हुआ। उदयसिंह ने तो अपने शासनकाल में चित्तौड़ दुर्ग गँवा दिया पर महाराणा प्रताप ने राजपूतों की शान को वापस लौटाने के लिए इन्ही जंगलों में निर्वासित जीवन बिताया और छोटी पर बहादुर भील सेना की मदद से मुगक सम्राट अकबर तक के दाँत खट्टे किए। भीलों के इलाकों से गुजरते हुए अब अरावली पहाड़ियों की चढ़ाई आरंभ हो गई थी।
मैं सोच रहा था कि शायद बहुत दूर से ही 1100 मीटर ऊँचाई पर बने इस दुर्ग के दर्शन होंगे। पर कुंभलगढ़ के बेहद करीब आने पर भी ये दुर्ग अदृश्य ही रहता है। दुर्ग के पहले ही इस इलाके में बने तमाम होटल दिखाई पड़ते हैं। लगभग सवा दो घंटे की यात्रा के बाद हम पन्द्रहवीं शताब्दी में बनाए राणा कुंभ के बनाए इस दुर्ग की विशाल दीवारों के सामने खड़े थे।
किले की बाहरी दीवारें पन्द्रह फीट चौड़ी हैं। ये किला बारह वर्ग किमी के दायरे में फैला है। किले में सैकड़ों जैन व हिंदू मंदिर हुआ करते थे । अब इनमें से ज्यादार के अवशेष ही रह गए हैं। इनमें से वेदी मंदिर,नीलकंठ महादेव मंदिर,गणेश और चारभुजा मंदिर प्रमुख हैं। ऊपर चित्र में आपको वेदी मंदिर का आहाता नज़र आ रहा है। दो मंजिले मंदिर की छत गुंबद के आकार की है। महाराज कुंभ ने इस मंदिर का निर्माण यज्ञ करने हेतु किया था।
गाइडों की संख्या यहाँ भी कम थी और जो थे भी वो विदेशी पर्यटकों में ज्यादा रुचि दिखा रहे थे। बजट के हिसाब से भारतीय पर्यटकों का मोर्चा छोटे बच्चों ने सँभाल रखा था। बच्चों से किलों का इतिहास सुनेंगे तो वो आपको एक रटे रटाए पाठ की तरह लगेगा। बिना गाइड के हम किले के नक़्शे को ध्यान में रखकर हम ऊपर की चढ़ाई चढ़ने लगे। गणेश मंदिर को पार कर हम इस सुंदर चारभुजा मंदिर के पास जा पहुँचे।
ऊपर की चढ़ाई तीखी तो थी पर बादल भरे मौसम और पुरातत्व विभाग ने द्वारा लगाए गए रास्ते के दोनों ओर फूलों की मोहक छटा ने सफ़र सुहाना बना दिया था।
किले के सात द्वारों में से तीन को पार करते हुए हम राणा कुंभ के महल के पास पहुँचे। महल तो अब बिल्कुल खंडहर हो गया है पर उसकी बनावट देखकर महाराणा की सादगी का अंदाजा लगता है। महल से और थोड़ा ऊपर वो कक्ष है जहाँ महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था
पूरे किले का सबसे आलीशान महल काफी ऊँचाई पर स्थित है और इसीलिए इसे बादल महल की संज्ञा दी गयी है। महल के कमरों की दीवारों और छत पर की गई नक़्काशियाँ मन को लुभाती हैं। महलों की जालियों से आती तेज़ हवाओं चढ़ाई की सारी थकान मिटा देती हैं।
अभी हम बादल महल की सैर का लुत्फ़ उठा ही रहे थे कि मौसम एकदम से बदल गया और कुंभलगढ़ पर सचमुच के बादलों ने हल्ला बोल दिया। बारिश इतनी तेज थी कि करीब आधे घंटे तक हम किले के ऊपरी हिस्से से हिल भी नहीं सके।
इसी वज़ह से वेदी मंदिर के पीछे फैले हुए कई हिंदू और जैन मंदिरों को हमें ऊपर से देख के ही संतोष करना पड़ा। नीचे चित्र में आप बारिश में भीगे कुंभलगढ़ को देख सकते हैं। चित्र के ऊपरी हिस्से में दिख रहा गुंबद बादल महल का है।
कुंभलगढ़ के किले को देखने का बाद पहला ख़्याल यही आता है कि इतने दुर्गम स्थान पर महाराणा कुंभ को ये किला बनाना कितना कठिन रहा होगा। कुंभलगढ़ की अभेद्यता का आलम ये था कि शिशोदिया वंश के शासन काल में ये किला सिर्फ एक बार दुश्मन के हाथ गया। मेवाड़ का राजपरिवार अक़्सर इस किले का प्रयोग विपत्ति के समय शरणस्थली के रूप में करता रहा। पर दुर्भाग्य की बात ये है कि इस किले को बनाने वाले महाराणा कुंभ की हत्या इसी किले में उनके पुत्र उदयसिंह प्रथम ने कर दी।
अन्य किलों की अपेक्षा कुभलगढ़ में बुनियादी पर्यटक सुविधाओं गाइड , भोजन, शौच का आभाव है। ले दे कर एक भोजनालय है जहाँ आसमान छूती दरों पर आप खाना खा सकते हैं। राजस्थान पर्यटन को किले के ऐतिहासिक महत्त्व को देखते हुए इस दिशा में प्रयास करने चाहिए। कुंभलगढ़ से जुड़ी अगली पोस्ट में आपको दिखाएँगे इस किले में ली गई कुछ अन्य तसवीरें..
अन्य किलों की अपेक्षा कुभलगढ़ में बुनियादी पर्यटक सुविधाओं गाइड , भोजन, शौच का आभाव है। ले दे कर एक भोजनालय है जहाँ आसमान छूती दरों पर आप खाना खा सकते हैं। राजस्थान पर्यटन को किले के ऐतिहासिक महत्त्व को देखते हुए इस दिशा में प्रयास करने चाहिए। कुंभलगढ़ से जुड़ी अगली पोस्ट में आपको दिखाएँगे इस किले में ली गई कुछ अन्य तसवीरें..
कुंभलगढ़ को पर्यटन की दृष्टि से विकसित नहीं किया गया है
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 27-02-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर भी होगी। सूचनार्थ
काजल जी जहाँ जहाँ किलों के रखरखाव का जिम्मा ट्रस्ट पर है वहाँ गाइड की बेहतरीन सुविधा है। जोधपुर,बीकानेर और उदयपुर के किले इसके अच्छे उदाहरण हैं। कुंभलगढ़ के शहर से दूर होने की वज़ह से यहाँ ये हालत दिखती है। कम से कम RTDC को यहाँ अपना एक रेस्ट्राँ खोलना चाहिए। आम पर्यटकों को इससे काफी राहत मिलेगी।
जवाब देंहटाएंगाफ़िल साहब चर्चा मंच में इसे शामिल करने के लिए धन्यवाद !
I have never been to Kumbhalgarh but will be sure.
जवाब देंहटाएंWaiting for next part
हमने भी कुम्भलगढ़ बरसो पहले ही देखा था आपकी पोस्ट ने वापस दिखा दिया। पर्यटकों के लिए आवश्यक सुविधाओं का तो सभी स्थानों पर अभाव रहता है। समझ नहीं आता कि हमारे प्रशासन को ये बाते क्यों नहीं समझ आती हैं! अगली पोस्ट का इंतजार रहेगा।
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट को पढनें के बाद कुम्भलगढ़ जाने की इच्छा हो रही है.. तस्वीरें बहुत ही अच्छी हैं.. और अगली पोस्ट का बेसब्री से इन्तजार है..
जवाब देंहटाएंबढिया सैर करवाई कुम्भलगढ़ की...बहुत कुछ जानने को मिला.
जवाब देंहटाएंसुन्दर ऐतिहासिक जानकारी के साथ आपकी प्रस्तुति आज के इस मंच पर प्रथम स्थान पाने की हकदार अवश्य थी.
जवाब देंहटाएंSirf eak hi picture?
जवाब देंहटाएंMy mistake somehow didn't see the read more link and got confused. The third picture is mind blowing!
जवाब देंहटाएंPhotograph and discription ..both are interesting..good job...Badhaiyan.
जवाब देंहटाएंकुंभलगढ़ के बारे में जानना अच्छा लगा...चित्र सुन्दर हैं.
जवाब देंहटाएंinteresting description, but this place is still not very famous from tourist point of view.
जवाब देंहटाएंमेरे हिसाब से कुभलगढ़ और राणकपुर उदयपुर से सटी दो ऐसी जगहें है जिन्हें स्थापत्य और कला प्रेमी घुमक्कड़ों को अवश्य जाना चाहिए।
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
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