शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

धेनकनाल, डोकरा मूर्ति कला और वो बाँध जिसने महानदी को रोक लिया था...

पिछले एक महिने से इस चिट्ठे पर खामोशी थी। दरअसल जब एक बार कहीं घूमने के लिए निकलता हूँ तो फिर नेट की तरफ रुख करने को भी दिल नहीं करता। दीपावली में घर निकल गया और वहाँ से लौटने के बाद लगभग अगले दो हफ़्ते राजस्थान में बीते। पर आज मैं आपको राजस्थान ले जाने के लिए नहीं आया हूँ उस पर तो बहुत सारी बातें आने वाले दिनों में आपसे होती रहेंगी।

आज चलते हैं एक ऐसी जगह पर जहाँ की साड़ियों बड़ी मनमोहक होती हैं। उड़ीसा (ओडीसा) में होते हुए जहाँ की मूल भाषा उड़िया से हट कर रही। जहाँ आजादी के बाद एक नदी घाटी परियोजना शुरु हुई जिनसे उस नदी से जुड़े इलाकों को एक साथ बाढ़ और सूखे की विभीषिका से बचाया। इस इलाके को उड़ीसा में धान के कटोरे के नाम से भी जाना जाता है। अब इतने सारे संकेत देने के बाद तो आप समझ ही गए होंहे कि मैं उड़ीसा के शहर संभलपुर की बात कर रहा हूँ।

बात पिछले साल अक्टूबर की है जब मैं अपनी दीदी के यहाँ भुवनेश्वर गया था। वहीं से योजना बनी कि इस बार हीराकुड बाँध (Hirakud Dam) देखने चला जाए। हीराकुड बाँध सँभलपुर से करीब पन्द्रह किमी की दूरी पर स्थित है। वहीं भुवनेश्वर से सँभलपुर की दूरी करीब 321 किमी है। सँभलपुर जाने के लिए पहले से भुवनेश्वर से कटक जाते हैं और फिर वहाँ से राष्ट्रीय राजमार्ग 42 पकड़ते हैं जो सँभलपुर में जाकर ही खत्म होता है।


हल्की बूँदा बाँदी के बीच हम भुवनेश्वर से निकले। कटक के आगे बढ़ते ही बारिश तेज हो गई। पर सौ किमी की दूरी पार कर जब हम धेनकनाल पहुँचे तो बारिश थम चुकी थी। धेनकनाल पूर्व मध्य उड़ीसा का वो जिला है जिसका अधिकांश हिस्सा पूर्वी घाट की पहाड़ियों और जंगलों से घिरा हुआ है।किसी ज़माने में इन पहाड़ियों पर धेनका नाम के कबीलाई सरदार का शासन था इस लिए जगह का नाम धेनकनाल पड़ा। चाय पानी के विश्राम के लिए हम वहाँ के सर्किट हाउस में थोड़ी देर के लिए रुके। सर्किट हाउस एक छोटी सी पहाड़ी पर था।

सर्किट हाउस के कक्ष में डोकरा कला के कुछ नमूने दिखे। प्राचीन समय से चली आ रही ये कला छत्तिसगढ़, उड़ीसा और झारखंड के जन जातीय इलाकों में खासी लोकप्रिय रही है। धोकरा कला से बनाए हस्तशिल्पों में वहाँ की लोकसंस्कृति की झलक मिलती है। अक्सर ऐसे हस्तशिल्प द्वारा जानवरों,राजाओं,सामाजिक उत्सवों और देवी देवताओं की छवियाँ देखने को मिलती हैं। पीतल से बनाई जाने वाले इस हस्तशिल्प को बनाने की प्रक्रिया रोचक है।



जिस छवि को बनाना होता है लगभग उसके जैसा मिट्टी का आकार बना लिया जाता है जो शिल्प के केंद्र में रहता है। सबसे पहले कठोर मिट्टी के चारों ओर मोम का ढाँचा बनाया जाता हैऔर उसी पर कलाकृति भी उकेर ली जाती है। फिर इसके चारों ओर अधिक तापमान सहने वाली रिफ्रैक्ट्री (Refractory Material) की मुलायम परतें चढ़ाई जाती हैं। ये परतें बाहरी ढाँचे का काम करती हैं। जब ढाँचा गर्म किया जाता है तो कठोर मिट्टी और बाहरी रिफ्रैक्ट्री की परतें तो जस की तस रहती हैं पर अंदर की मोम पिघल जाती है। अब इस पिघली मोम की जगह कोई भी धातु जो लौहयुक्त ना हो (Non Ferrous Metal) जैसे पीतल पिघला कर डाली जाती है और वो ढाँचे का स्वरूप ले लेती है। तापमान और बढ़ाने पर मिट्टी और रिफ्रैक्ट्री की परतें भी निकल जाती है और धातुई शिल्प तैयार हो जाता है।

धेनकनाल से साठ किमी और आगे बढ़ने पर अंगुल (Angul) आता है जो अब जिला मुख्यालय बन गया है। अंगुल के ठीक पहले ही नालको का संयंत्र है। सतकोसिया का वन्य जीव अभ्यारण्य यहाँ से लगभह साठ किमी पर स्थित है। महानदी यहाँ बड़ी ही संकरी घाटी से होकर गुजरती है। इस इलाके को देखने के लिए लोग टीकरपाड़ा में रुकते हैं जो अंगुल से साठ किमी दूरी पर है। वहाँ वन विभाग का गेस्ट हाउस है।

अंगुल में थोड़ा समय बिताकर हम सँभलपुर की ओर बढ़ गए। सँभलपुर के ठीक पहले के चालीस पचास किमी का रास्ता घने जंगलों के बीच से गुजरता है। चूँकि जंगल के इस इलाके से गुजरने के पहले ही सूर्यास्त हो चुका था हमें बाहर की छटा ज्यादा नहीं दिखाई दी। सँभलपुर के ठीक पहले ही हीराकुड जाने का रास्ता अलग हो गया। करीब साढ़े छः बजे हम हीराकुड में अपने ठिकाने पर पहुँचे। हमें बताया गया कि गेस्ट हाउस की बॉलकोनी से बाँध का नज़ारा स्पष्ट दिखता है।

बाहर घुप्प अँधेरा था। बाँध पर कुछ रोशनियाँ टिमटिमा रही थीं। पर पानी में कोई हलचल न थी। बाँध के दूसरी ओर हिडांलकों और महानदी कोल्ड फील्ड की फैक्ट्री से लाल पीले रंग की टिमटिमाहट ही दूर तक ठहरी कालिमा में रंग भरने का प्रयास कर रही थी।


पानी के बीचों बीच पहाड़ी जैसा कुछ आभास होता था और उसके ठीक पीछे का आकाश लाल नारंगी रंग की आभा से दीप्त था। संभवतः उस पहाड़ी के पीछे भी कोई संयंत्र रहा होगा। बाँध की ओर से ठंडी हवा के झोंके मन को प्रसन्न कर दे रहे थे। गेस्ट हाउस के बरामदे में इस दृश्य को बिना त्रिपाद के कैमरे में उतारना काफी कठिन था।


गेस्ट हाउस के चारों ओर चहलकदमी कर हम शीघ्र ही सोने चले गए। दरअसल सुबह सुबह उठ कर हीराकुड की विशालता का अनुमान लगाने की उत्कंठा जोर मार रही थी। पर क्या हमारी सुबह की उस मार्निंग वॉक का कार्यक्रम फलीभूत हो पाया। इसके बारे में बात करेंगे इस श्रृंखला की अगली कड़ी में..

 सफर हीराकुड बाँध का : इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

    7 टिप्‍पणियां:

    1. That is a lot of travel Manish, and about my Jal Mahal picture, yes I used a tripod and the SLR on a long exposure, not possible to do so handheld.

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    2. सुन्दर आलेख. बस्तर की कांसे की मूर्तियाँ भी कुछ इसी प्रकार की होती हैं. १९५० के दशक में अंगुल में महामारी आई थी (प्लेग).

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    3. Bilkul aise he peetal ke murtiyan banaate hain Tamil nadu ke Tanjavur ilaake mein jahan maine baat ki thi un shilpkaaroN se.

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    4. वाह अंगुल और नाल्को के बारे में पढ़ कर बहुत आनन्द आया वहाँ तो हमारी भूषण स्टील का बहुत बड़ा प्लांट आ चुका है...
      आपके साथ साथ हमारी उत्कंठा भी बढ़ गयी है हीराकुड बाँध देखने की...सुबह कब होगी?

      नीरज

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    5. vikas ke satrh saundarya bhi naye aayam leta hai

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    6. दिखाओ उडीसा भी, राजस्थान तो होता ही रहेगा।

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