अब तक के यात्रा विवरण में मैंने आपको बताया कि किस तरह पहले दिन हमने की मंदारमणि और शंकरपुर की सैर और देखी शाम में दीघा के बाजारों की रौनक। दीघा का दूसरा दिन चंदनेश्वर मंदिर और तालसरी के लिए मुकर्रर था। दरअसल बंगाल की खाड़ी के उत्तरी सिरे में बसा दीघा, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा की सीमा से बहुत सटा है। इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि चंदनेश्वर मंदिर जो दीघा से मात्र आठ किमी की दूरी पर स्थित है उड़ीसा राज्य के अंदर आता है।
चंदनेश्वर, भगवान शिव का मंदिर है। चैत माह के अंत में इस मंदिर में विशाल मेला लगता है। मेले के समय आस पास के राज्यों से ढेरों श्रद्धालु यहाँ आते हैं। सुबह साढ़े दस के करीब जब हम मंदिर के प्रांगण में दाखिल हुए तो वहाँ अच्छी खासी चहल पहल थी। पंडे साथ लगने के लिए तैयार थे पर हमने उन्हें ज्यादा तवज़्जह नहीं दी। मुख्य मंदिर तो शिव का है पर साथ में कृष्ण लला और अन्य भगवनों के मंदिर भी हैं।
सारी प्रतिमाओं के सामने शीश झुका कर हम बाहर निकल ही रहे थे कि एक मज़ेदार घटना घटी। हुआ यूँ कि भक्तों को सिर्फ भगवान शिव पर प्रसाद चढ़ाते देख उनकी सवारी कुपित हो गई और गुस्से के मारे आहाते में ही झूमती हुई इधर उधर जाने लगी। अब शिव के उस मंदिर में साँड़ को रोकने की हिम्मत किसे। सो लोग इधर उधर छिटककर उसे रास्ता देने लगे। अब साँड़ महोदय मुख्य मंदिर से सटे मंदिर की ओर उन्मुख हुए। वहाँ एक पंडित जी मंदिर से निकल कर सामने के सरोवर की ओर मुख कर प्रार्थना कर रहे थे। साँड़ उनके पास आ गया तो भी वे बेखबर पूजा में लीन रहे। साँड़ को ये बात अखर गई और उसने सामने की ओर झुके पंडित की धोती पर अपनें सींगों से एक करारा झटका दे दिया। बेचारे भगवन के दूत की इस अभद्रता के बावजूद किसी तरह सँभल गए तब तक साँड़ की ओर कुछ भोजन फेंक कर उसे प्रसन्न किया गया।
चंदनेश्वर से हम तालसरी की ओर बढ़े। तालसरी, चंदनेश्वर से करीब तीन किमी पर स्थित समुद्र तट है। बालेश्वर और चाँदीपुर वाले रास्ते से ये करीब नब्बे किमी दूर है। यहाँ पर एक नदी समुद्र से आकर मिलती है इसीलिए शायद इस जगह का नाम तालसरी पड़ा। तालसरी के समुद्र तट पर मछुआरों की बस्ती है। जैसे ही आप तालसरी के समुद्र तट के पास पहुँचते हैं नदी के किनारे खड़ी नावों की कतारें और मछुआरों के जाल आपका स्वागत करते हैं।
नदी में पानी बहुत ज्यादा नहीं था, फिर भी नाव से लोग नदी पार कर रहे थे। नदी में ज्वार के साथ पानी बढ़ता है पर दिन के पौने ग्यारह बजे जब हम वहाँ पहुँचे तो लो टाइड (Low Tide) का वक़्त था। हम निर्णय नहीं ले पा रहे थे कि नदी नाव से पार की जाए या पैदल। नदी का तट दूर से ही पंकिल नज़र आ रहा था जिसमें हमें फिसलने की पूरी संभावना दिख रही थी।
फिर नदी का पानी कितना गहरा होगा ये भी नहीं पता लग पा रहा था। हमने सोच विचार में ही वक़्त गँवा दिया और उधर पानी का स्तर इतना कम हो गया कि नाव चलनी बंद हो गई। लिहाज़ा समुद्र तट तक पहुँचने के लिए हम अपनी अपनी चप्पलें हाथों में लेकर नंगे पाँव पैदल ही चल पड़े।
आशा के विपरीत नदी का पाट पंकिल ना हो कर ठोस था। फिसलन से बचते बचाते जैसे ही नदी के शीतल जल से चरणों का स्पर्श हुआ, गर्मी से निढ़ाल पूरे शरीर की थकान एकदम से जाती रही। बच्चों को नदी के जल में छपा छईं करने में बेहद आनंद आया।
नदी पार करते हुए ही हमें लाल केकड़ों के विशाल साम्राज्य के दर्शन हुए। दूर दूर तक जिधर भी नज़र जाती थी लाल केकड़े भारी संख्या में फैले नज़र आते थे। ऐसा लगता था मानों बालू की चादर लाल लाल फूलों से सजी हो। इनमें से कुछ केकड़ों के साथ हमने कैसे दौड़ लगाई ये विवरण तो आप पहले ही यहाँ पढ़ चुके हैं।
शंकरपुर की तुलना में यहाँ केकड़ों का आकार और उनका घर भी अपेक्षाकृत बड़ा था। इनके बिल के चारों ओर गोलीनुमा भोज्य अवशेषों को देखकर मेरे मित्र की छोटी सी बिटिया बोल उठी "देखो क्रैब भी पूजा करने के लिए अपने घर के बाहर भगवान जी के लिए लड्डू बना कर रखा है।" भोलेपन में कही उसकी ये बात जब सबने सुनी तो ठहाकों का दौर काफी देर तक चला।
लाल क्रैबों की दुनिया से निकलकर हम तालसरी के दूर तक फैले समतल समुद्र तट की ओर निकल लिए। दूर मछुआरों की दो नौकाएँ जाल में फँसी मछलियों के साथ तट पर लौटी थी। जाल को खींचने के लिए लोग कतार बाँध कर खड़े थे और आवाज़ें लगा रहे थे।
नदी और समुद्र के मुहाने की एक खास बात थी, नदी के सूखे पाट पर पानी द्वारा बनाया गया सर्पीला घुमावदार पैटर्न, जो दूर तक फैला होने की वज़ह से और भी खूबसूरत लग रहा था। तालसरी से निकलने के पहले हमारे समूह ने एकत्रित होकर एक छवि खिंचवाई ताकि सनद रहे।
तालसरी से हम लोग दीघा के उदयपुर के समुद्र तट पर गए। उदयपुर दरअसल मछुआरों का एक गाँव है और उसी गाँव के नाम पर इस समुद्र तट का नाम पड़ा है। समुद्रतट पर नाममात्र को सैलानी थे। मंदारमणि, शंकरपुर की तरह उदयपुर का समुद्र तट भी काफी चौरस और रमणीक है। तट पर दूर नावों की कतार दिख रही थी । दूर तक फैला हुआ तट एक साफ सुथरे मैदान की तरह दिख रहा था जिसके बीचो बीच प्लास्टिक की चादर ताने चाय बिस्कुट की दुकान ही दोपहर की निस्तब्धता को तोड़ रही थी।
तालसरी में बच्चे पानी में नहीं उतरे थे। पर यहाँ उनसे सब्र कर पाना मुश्किल था। बच्चों को समुद्र में जाते देख मुझे भी जोश आ गया और मैंने भी उनके साथ समुद्र में डुबकी मार ली।
दीघा की अगली सुबह भी एक यादगार सुबह थी क्यूँकि जहाँ तक हम लोग दूसरे दिन गाड़ी से दस बारह किमी चल कर पहुँचे थे वहाँ तक समुद्र तट के किनारे- किनारे चलकर करीब एक घंटे में पैदल पहुँच गए। कैसी रही हमारी भोर की वो यात्रा ये बताएँगे आप को अपनी दीघा यात्रा की समापन किश्त में...
इस श्रृंखला में अब तक
हटिया से खड़गपुर और फिर दीघा तक का सफ़र
मंदारमणि और शंकरपुर का समुद्र तट जहाँ तट पर दीड़ती हैं गाड़ियाँ
दीघा के राजकुमार लाल केकड़े यानि रेड क्रैब
आज करिए दीघा के बाजारों की सैर और वो भी इस अनोखी सवारी में...
चंदनेश्वर, भगवान शिव का मंदिर है। चैत माह के अंत में इस मंदिर में विशाल मेला लगता है। मेले के समय आस पास के राज्यों से ढेरों श्रद्धालु यहाँ आते हैं। सुबह साढ़े दस के करीब जब हम मंदिर के प्रांगण में दाखिल हुए तो वहाँ अच्छी खासी चहल पहल थी। पंडे साथ लगने के लिए तैयार थे पर हमने उन्हें ज्यादा तवज़्जह नहीं दी। मुख्य मंदिर तो शिव का है पर साथ में कृष्ण लला और अन्य भगवनों के मंदिर भी हैं।
सारी प्रतिमाओं के सामने शीश झुका कर हम बाहर निकल ही रहे थे कि एक मज़ेदार घटना घटी। हुआ यूँ कि भक्तों को सिर्फ भगवान शिव पर प्रसाद चढ़ाते देख उनकी सवारी कुपित हो गई और गुस्से के मारे आहाते में ही झूमती हुई इधर उधर जाने लगी। अब शिव के उस मंदिर में साँड़ को रोकने की हिम्मत किसे। सो लोग इधर उधर छिटककर उसे रास्ता देने लगे। अब साँड़ महोदय मुख्य मंदिर से सटे मंदिर की ओर उन्मुख हुए। वहाँ एक पंडित जी मंदिर से निकल कर सामने के सरोवर की ओर मुख कर प्रार्थना कर रहे थे। साँड़ उनके पास आ गया तो भी वे बेखबर पूजा में लीन रहे। साँड़ को ये बात अखर गई और उसने सामने की ओर झुके पंडित की धोती पर अपनें सींगों से एक करारा झटका दे दिया। बेचारे भगवन के दूत की इस अभद्रता के बावजूद किसी तरह सँभल गए तब तक साँड़ की ओर कुछ भोजन फेंक कर उसे प्रसन्न किया गया।
चंदनेश्वर से हम तालसरी की ओर बढ़े। तालसरी, चंदनेश्वर से करीब तीन किमी पर स्थित समुद्र तट है। बालेश्वर और चाँदीपुर वाले रास्ते से ये करीब नब्बे किमी दूर है। यहाँ पर एक नदी समुद्र से आकर मिलती है इसीलिए शायद इस जगह का नाम तालसरी पड़ा। तालसरी के समुद्र तट पर मछुआरों की बस्ती है। जैसे ही आप तालसरी के समुद्र तट के पास पहुँचते हैं नदी के किनारे खड़ी नावों की कतारें और मछुआरों के जाल आपका स्वागत करते हैं।
नदी में पानी बहुत ज्यादा नहीं था, फिर भी नाव से लोग नदी पार कर रहे थे। नदी में ज्वार के साथ पानी बढ़ता है पर दिन के पौने ग्यारह बजे जब हम वहाँ पहुँचे तो लो टाइड (Low Tide) का वक़्त था। हम निर्णय नहीं ले पा रहे थे कि नदी नाव से पार की जाए या पैदल। नदी का तट दूर से ही पंकिल नज़र आ रहा था जिसमें हमें फिसलने की पूरी संभावना दिख रही थी।
फिर नदी का पानी कितना गहरा होगा ये भी नहीं पता लग पा रहा था। हमने सोच विचार में ही वक़्त गँवा दिया और उधर पानी का स्तर इतना कम हो गया कि नाव चलनी बंद हो गई। लिहाज़ा समुद्र तट तक पहुँचने के लिए हम अपनी अपनी चप्पलें हाथों में लेकर नंगे पाँव पैदल ही चल पड़े।
आशा के विपरीत नदी का पाट पंकिल ना हो कर ठोस था। फिसलन से बचते बचाते जैसे ही नदी के शीतल जल से चरणों का स्पर्श हुआ, गर्मी से निढ़ाल पूरे शरीर की थकान एकदम से जाती रही। बच्चों को नदी के जल में छपा छईं करने में बेहद आनंद आया।
नदी पार करते हुए ही हमें लाल केकड़ों के विशाल साम्राज्य के दर्शन हुए। दूर दूर तक जिधर भी नज़र जाती थी लाल केकड़े भारी संख्या में फैले नज़र आते थे। ऐसा लगता था मानों बालू की चादर लाल लाल फूलों से सजी हो। इनमें से कुछ केकड़ों के साथ हमने कैसे दौड़ लगाई ये विवरण तो आप पहले ही यहाँ पढ़ चुके हैं।
शंकरपुर की तुलना में यहाँ केकड़ों का आकार और उनका घर भी अपेक्षाकृत बड़ा था। इनके बिल के चारों ओर गोलीनुमा भोज्य अवशेषों को देखकर मेरे मित्र की छोटी सी बिटिया बोल उठी "देखो क्रैब भी पूजा करने के लिए अपने घर के बाहर भगवान जी के लिए लड्डू बना कर रखा है।" भोलेपन में कही उसकी ये बात जब सबने सुनी तो ठहाकों का दौर काफी देर तक चला।
लाल क्रैबों की दुनिया से निकलकर हम तालसरी के दूर तक फैले समतल समुद्र तट की ओर निकल लिए। दूर मछुआरों की दो नौकाएँ जाल में फँसी मछलियों के साथ तट पर लौटी थी। जाल को खींचने के लिए लोग कतार बाँध कर खड़े थे और आवाज़ें लगा रहे थे।
नदी और समुद्र के मुहाने की एक खास बात थी, नदी के सूखे पाट पर पानी द्वारा बनाया गया सर्पीला घुमावदार पैटर्न, जो दूर तक फैला होने की वज़ह से और भी खूबसूरत लग रहा था। तालसरी से निकलने के पहले हमारे समूह ने एकत्रित होकर एक छवि खिंचवाई ताकि सनद रहे।
तालसरी से हम लोग दीघा के उदयपुर के समुद्र तट पर गए। उदयपुर दरअसल मछुआरों का एक गाँव है और उसी गाँव के नाम पर इस समुद्र तट का नाम पड़ा है। समुद्रतट पर नाममात्र को सैलानी थे। मंदारमणि, शंकरपुर की तरह उदयपुर का समुद्र तट भी काफी चौरस और रमणीक है। तट पर दूर नावों की कतार दिख रही थी । दूर तक फैला हुआ तट एक साफ सुथरे मैदान की तरह दिख रहा था जिसके बीचो बीच प्लास्टिक की चादर ताने चाय बिस्कुट की दुकान ही दोपहर की निस्तब्धता को तोड़ रही थी।
तालसरी में बच्चे पानी में नहीं उतरे थे। पर यहाँ उनसे सब्र कर पाना मुश्किल था। बच्चों को समुद्र में जाते देख मुझे भी जोश आ गया और मैंने भी उनके साथ समुद्र में डुबकी मार ली।
दीघा की अगली सुबह भी एक यादगार सुबह थी क्यूँकि जहाँ तक हम लोग दूसरे दिन गाड़ी से दस बारह किमी चल कर पहुँचे थे वहाँ तक समुद्र तट के किनारे- किनारे चलकर करीब एक घंटे में पैदल पहुँच गए। कैसी रही हमारी भोर की वो यात्रा ये बताएँगे आप को अपनी दीघा यात्रा की समापन किश्त में...
इस श्रृंखला में अब तक
आपके साथ घूमने का आनंद ही कुछ और है...लगता है जैसे दीघा आप नहीं हम घूम रहे हैं...क्या ये लाल केंकड़े खाने के काम आते हैं?
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक यात्रा वर्णन.
नीरज
मजा आ गया समुद्र तट पर घूमकर।
जवाब देंहटाएंनीरज भाई शंकरपुर में ये सवाल मेरे मित्र ने एक मछुआरे से पूछा था। उसका जवाब था जब इतनी सारी स्वादिष्ट मछलियाँ यहाँ मौजूद हैं तो फिर बहुतायत में पाए जाने वाले इन केकड़ों को कौन पूछता है? हालांकि उसने स्पष्ट रूप से तो नहीं कहा पर हमें उसकी बातों से लगा कि शायद इनका स्वाद भी अच्छा नहीं होता होगा।
जवाब देंहटाएंWould love to do something like that myself! What an adventure!
जवाब देंहटाएंवैसे हम भी तटीय क्षेत्र के रहने वाले हैं परन्तु बंगाल तथा उडीसा के समुद्र तटका आकर्षण भिन्न है. बहुत सुन्दर यात्रा वृत्तांत. आभार.
जवाब देंहटाएंहमें तो ये कोंकण के तटों की ही तरह लग रहा था लेकिन ऊपर का कमेन्ट देख के लगा कि नहीं फर्क तो है. वैसे इतनी बारीकी से हम देखते ही कहाँ है.
जवाब देंहटाएंकुपित नंदी शांत हुए ,जग का भला हुआ ,लाल केकड़ों को देख मेरी उड़ीसा यात्रा याद हो आयी -चीन में तो ये उदर पोषण कर रहे होते बुभुक्षु मानवता की -आपकी सचित्र पर्यटन झलकियाँ बस मन मोहती हैं ...
जवाब देंहटाएंयात्रा में बने रहने के लिए आप सब का शुक्रिया !
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