यूँ तो इस साल जनवरी के अंतिम हफ्ते में समूचा उत्तर भारत कोहरे की चपेट में था पर 26 जनवरी के दिन बनारस में धूप अच्छी तरह खिल गई थी। सुबह साढ़े दस के लगभग हम बनारस से सारनाथ की ओर रवाना हो गए। शहर के उत्तर पूर्वी दिशा में स्थित सारनाथ, बनारस से तकरीबन 13 किमी की दूरी पर है। पर बनारस की भीड़ भीड़ वाली सड़कों से निकल कर सारनाथ पहुँचने में पौन घंटे लग ही जाते हैं।
सारनाथ के इलाके के पास पहुँचते ही इस बौद्ध धार्मिक स्थल की अहमियत का अंदाजा लग जाता है। विश्व के विभिन्न कोनों से आए विदेशी पर्यटकों की तादाद, हमारे जैसे देशी पर्यटकों से थोड़ी ही कम दिखती है। सारनाथ में देखने के लिए विभिन्न देशों के बौद्ध अनुयायिओं की मदद से बनाए गए कई छोटे बड़े मंदिरों के आलावा, जैन मंदिर, हिरण उद्यान, बौद्ध विहार के अवशेष व एक बेहद प्रसिद्ध राजकीय संग्रहालय भी है।
हमारे समूह ने सबसे पहले यहाँ के नए बौद्ध मंदिर मूलगंध कुटि विहार (Mulagandh Kuti Vihar) की ओर रुख किया। दरअसल मंदिर से थोड़ी दूर पर इसी नाम के पुराने मंदिर के भग्नावशेष मिले हैं। चीनी यात्री ह्वेनसांग की माने तो यहाँ अवस्थित उस प्राचीन मंदिर की ऊँचाई लगभग 61 मीटर थी। 18 मीटर से कुछ अधिक वर्गाकार भुजा वाले इस मंदिर का प्रवेश द्वार पूर्व की ओर था जिसके सामने एक आयताकार मंडप एवम् विशाल प्रांगण था। इतिहासकारों का मानना है कि स्थापत्य और ईंटों की सज्जा शैली के हिसाब से ये मंदिर गुप्त काल में बनाया गया होगा।
इसी स्थल पर नए मंदिर को बनाने का श्रेय श्रीलंका के बौद्ध प्रचारक अंगारिका धर्मपाल को जाता है जिन्होंने भारत में महाबोधि समाज की नींव रखी। धर्मपाल के आह्वाहन पर विश्व भर के बौद्ध धर्मावलंबियों के दान से 1931 में इस मंदिर का निर्माण हुआ। भारत के नार्गाजुन कोंडा और तक्षशिला में उत्खनन से मिले कई पवित्र बौद्ध ग्रंथों को अंग्रेजों ने महाबोधि समाज को भेंटस्वरूप दिया और ये आज इस मंदिर की शोभा बढ़ा रहे हैं। हर साल कार्तिक पूर्णिमा के दिन इन धर्मग्रंथों के साथ यहाँ एक शोभायात्रा निकाली जाती है।
मंदिर में घुसते ही स्वर्णिम आभा से चमकती बुद्ध की प्रतिमा नज़र आती है। प्रतिमा के बगल में जापान से लाई गई एक विशाल घंटी भी दृष्टिगोचर होती है। एक अलग बात ये दिखी कि कैमरे के लिए कोई टिकट अलग से नहीं दिया जा रहा था । सिर्फ एक अनुरोध इतना कि टिकट की जगह वो राशि आप दानपात्र में डाल दें।
भगवान बुद्ध को प्रणाम करने के बाद सहसा नज़र मंदिर की दीवारों पर चली गई। प्रख्यात जापानी चित्रकार कोसेत्सू नोसू (Kosetsu Nosu) के बनाए इन चित्रों को 1936 में आम जन के सामने प्रस्तुत किया गया। इन चित्रों में बुद्ध के जीवन की प्रमुख घटनाओं का निरूपण किया गया है।
मंदिर परिसर से निकल कर हम उस स्थान की ओर बढ़ गए जिसके लिए सारनाथ विख्यात है। आपको तो पता ही होगा कि क्यूँ सारनाथ भगवान बुद्ध के चार प्रमुख तीर्थ स्थलों में से एक माना जाता है? अगर आप भूल गए हों तो चलिए आपकी याददाश्त एक बार फिर ताज़ा किए देते हैं। दरअसल बोधगया, बिहार में ज्ञान प्राप्ति के बाद अपने प्रथम पाँच शिष्यों को इसी जगह स्थित हिरण उद्यान में बुद्ध ने पहला धर्मोपदेश दिया जिसका उल्लेख 'धर्म चक्र प्रवर्तन' के नाम से बौद्ध साहित्य में मिलता है। यानि बौद्ध धर्म की नींव सारनाथ में ही पड़ी।
सारनाथ के इलाके के पास पहुँचते ही इस बौद्ध धार्मिक स्थल की अहमियत का अंदाजा लग जाता है। विश्व के विभिन्न कोनों से आए विदेशी पर्यटकों की तादाद, हमारे जैसे देशी पर्यटकों से थोड़ी ही कम दिखती है। सारनाथ में देखने के लिए विभिन्न देशों के बौद्ध अनुयायिओं की मदद से बनाए गए कई छोटे बड़े मंदिरों के आलावा, जैन मंदिर, हिरण उद्यान, बौद्ध विहार के अवशेष व एक बेहद प्रसिद्ध राजकीय संग्रहालय भी है।
हमारे समूह ने सबसे पहले यहाँ के नए बौद्ध मंदिर मूलगंध कुटि विहार (Mulagandh Kuti Vihar) की ओर रुख किया। दरअसल मंदिर से थोड़ी दूर पर इसी नाम के पुराने मंदिर के भग्नावशेष मिले हैं। चीनी यात्री ह्वेनसांग की माने तो यहाँ अवस्थित उस प्राचीन मंदिर की ऊँचाई लगभग 61 मीटर थी। 18 मीटर से कुछ अधिक वर्गाकार भुजा वाले इस मंदिर का प्रवेश द्वार पूर्व की ओर था जिसके सामने एक आयताकार मंडप एवम् विशाल प्रांगण था। इतिहासकारों का मानना है कि स्थापत्य और ईंटों की सज्जा शैली के हिसाब से ये मंदिर गुप्त काल में बनाया गया होगा।
इसी स्थल पर नए मंदिर को बनाने का श्रेय श्रीलंका के बौद्ध प्रचारक अंगारिका धर्मपाल को जाता है जिन्होंने भारत में महाबोधि समाज की नींव रखी। धर्मपाल के आह्वाहन पर विश्व भर के बौद्ध धर्मावलंबियों के दान से 1931 में इस मंदिर का निर्माण हुआ। भारत के नार्गाजुन कोंडा और तक्षशिला में उत्खनन से मिले कई पवित्र बौद्ध ग्रंथों को अंग्रेजों ने महाबोधि समाज को भेंटस्वरूप दिया और ये आज इस मंदिर की शोभा बढ़ा रहे हैं। हर साल कार्तिक पूर्णिमा के दिन इन धर्मग्रंथों के साथ यहाँ एक शोभायात्रा निकाली जाती है।
मंदिर में घुसते ही स्वर्णिम आभा से चमकती बुद्ध की प्रतिमा नज़र आती है। प्रतिमा के बगल में जापान से लाई गई एक विशाल घंटी भी दृष्टिगोचर होती है। एक अलग बात ये दिखी कि कैमरे के लिए कोई टिकट अलग से नहीं दिया जा रहा था । सिर्फ एक अनुरोध इतना कि टिकट की जगह वो राशि आप दानपात्र में डाल दें।
भगवान बुद्ध को प्रणाम करने के बाद सहसा नज़र मंदिर की दीवारों पर चली गई। प्रख्यात जापानी चित्रकार कोसेत्सू नोसू (Kosetsu Nosu) के बनाए इन चित्रों को 1936 में आम जन के सामने प्रस्तुत किया गया। इन चित्रों में बुद्ध के जीवन की प्रमुख घटनाओं का निरूपण किया गया है।
मंदिर परिसर से निकल कर हम उस स्थान की ओर बढ़ गए जिसके लिए सारनाथ विख्यात है। आपको तो पता ही होगा कि क्यूँ सारनाथ भगवान बुद्ध के चार प्रमुख तीर्थ स्थलों में से एक माना जाता है? अगर आप भूल गए हों तो चलिए आपकी याददाश्त एक बार फिर ताज़ा किए देते हैं। दरअसल बोधगया, बिहार में ज्ञान प्राप्ति के बाद अपने प्रथम पाँच शिष्यों को इसी जगह स्थित हिरण उद्यान में बुद्ध ने पहला धर्मोपदेश दिया जिसका उल्लेख 'धर्म चक्र प्रवर्तन' के नाम से बौद्ध साहित्य में मिलता है। यानि बौद्ध धर्म की नींव सारनाथ में ही पड़ी।
बौद्ध धर्म ग्रंथों में सारनाथ का उल्लेख ॠषिपत्तन, धर्मपत्तन, मृगदाय व मृगदाव के रूप में होता रहा है पर ताज़्जुब की बात ये है कि सारनाथ का ये आधुनिक नाम पास में स्थित महादेव के मंदिर सारंगनाथ से निकल कर आया है।
मूलगंध कुटि विहार से निकलकर हम उस बोधिवृक्ष के पास आ गए जिसके नीचे अपने पाँच शिष्यों को उपदेश देते गौतम बुद्ध की मूर्ति दिखाई दे रही थी। कहते हैं कि सम्राट अशोक की पुत्री संघमित्रा ने बोधगया स्थित पवित्र बोधि वृक्ष की एक शाखा श्रीलंका के अनुराधापुरा में लगाई थी। उसी पेड़ की एक शाखा से सारनाथ का बोधिवृक्ष फला फूला है। यह शाखा यहाँ मुलगंध कुटि विहार के उद्घाटन के समय लगाई गई थी। 1989 में यहाँ गौतम बुद्ध व उनके शिष्यों की प्रतिमा म्यानमार के बौद्ध श्रृद्धालुओं की मदद से बनी। 1999 में इस परिसर में बुद्ध के 28 रूपों की प्रतिमा और लगाई गई जिनमें से एक का चित्र आप नीचे देख सकते हैं।
इसी परिसर में ही एक विशाल घंटी भी लगी हुई है जिसे बौद्ध धर्म घंटे का नाम देते हैं। कहते हैं इसे बजाते वक़्त इसकी आवाज़, सात किमी दूर तक सुनाई देती है। इस परिसर से निकल कर हम सारनाथ के प्राचीन स्तूपों की ओर बढ़े। सारनाथ की यात्रा के इस चरण के बारे में जानिएगा विस्तार से इस कड़ी के अगले भाग में..
मूलगंध कुटि विहार से निकलकर हम उस बोधिवृक्ष के पास आ गए जिसके नीचे अपने पाँच शिष्यों को उपदेश देते गौतम बुद्ध की मूर्ति दिखाई दे रही थी। कहते हैं कि सम्राट अशोक की पुत्री संघमित्रा ने बोधगया स्थित पवित्र बोधि वृक्ष की एक शाखा श्रीलंका के अनुराधापुरा में लगाई थी। उसी पेड़ की एक शाखा से सारनाथ का बोधिवृक्ष फला फूला है। यह शाखा यहाँ मुलगंध कुटि विहार के उद्घाटन के समय लगाई गई थी। 1989 में यहाँ गौतम बुद्ध व उनके शिष्यों की प्रतिमा म्यानमार के बौद्ध श्रृद्धालुओं की मदद से बनी। 1999 में इस परिसर में बुद्ध के 28 रूपों की प्रतिमा और लगाई गई जिनमें से एक का चित्र आप नीचे देख सकते हैं।
इसी परिसर में ही एक विशाल घंटी भी लगी हुई है जिसे बौद्ध धर्म घंटे का नाम देते हैं। कहते हैं इसे बजाते वक़्त इसकी आवाज़, सात किमी दूर तक सुनाई देती है। इस परिसर से निकल कर हम सारनाथ के प्राचीन स्तूपों की ओर बढ़े। सारनाथ की यात्रा के इस चरण के बारे में जानिएगा विस्तार से इस कड़ी के अगले भाग में..
bahut achhi jankariyo wali yatra rahi ye...
जवाब देंहटाएंलगभग आठ साल पहले सारनाथ देखा था। लेख पढ़कर व फोटो देख वह याद ताजा हो गई। आभार।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
बहुत ही सुन्दर सचित्र वर्णन. वहां का संग्रहालय भी बहुत अच्छा है. आभार.
जवाब देंहटाएंहमारी भी सारनाह यात्रा की यादें ताजा हो गई. बहुत आभार सुन्दर विवरण के लिए.
जवाब देंहटाएंसंग्रहालय के अलावा एक जैन मदिर भी तो है और स्तूप भी.
जवाब देंहटाएं@अभिषेक भाई मैंने कब मना किया कि जैन मंदिर व संग्रहालय नहीं है वहाँ ! लिखा भी तो है ऊपर शायद तुमने पोस्ट ध्यान से नहीं पढ़ी :)
जवाब देंहटाएंस्तूप की यात्रा तो करा ही रहे हैं अगली कड़ी में !
मनीष जी, बहुत खूब।
जवाब देंहटाएंएक सुझाव दूं? अपने साइडबार में लगे नक्शे में उत्तर प्रदेश को भी दिखा दीजिये।
और हां, मुझे अपना फोन नम्बर भी दे दीजिये। मुझे नम्बर देने में आपका कोई नुकसान नहीं होगा। बल्कि मेरा कुछ भला हो सकता है।
धन्यवाद। नम्बर मेल पर ही भेज देना।
मनीष , एक सुझाव दूगाँ , एक चक्कर श्रावस्ती का भी लगा आयें , भगवान बुद्ध के २५ लम्बे वर्षावास , थाई मन्दिर , अंगुलिमाल गुफ़ा और भी बहुत कुछ है जो अपने देश की अभूतपूर्व संस्कृति को संजोये हुये हैं ..सारनाथ यात्रा कराने के लिये धन्यवाद ... वैसे मै भी पिछ्ले सप्ताह सारनाथ होकर आया हूँ :)
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