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ऐसा नहीं कि दिक्कतें नहीं आयीं। खासकर वार्षिक संगीतमालाओं के दौरान मुसाफिर हूँ यारों (Musafir Hoon Yaaron) के लिए समय निकालना तो बहुत ही कठिन रहा। फिर भी इस चिट्ठे की गाड़ी पटरी पर धीरे धीरे ही सही, खिसकती रही।
समय के आलावा दूसरी चुनौती, एक यात्रा चिट्ठे पर विषयवस्तु की निरंतरता बनाए रखने की थी। दरअसल इस समस्या से हर यात्रा चिट्ठाकार चाहे वो हिंदी का हो या अंग्रेजी का जूझता रहता है। चाहे आप कितने बड़े घुमक्कड़ क्यूँ ना हों घर, परिवार और नौकरी की बंदिशों के बीच आप सारा साल तो घूमते घामते नहीं रह सकते ना ? इसलिए अगर आप अंग्रेजी चिट्ठाकारों के यात्रा चिट्ठों को पढ़ेंगे तो पाएँगे कि वो अपनी यात्राओं के संस्मरणों को एक साथ नहीं पेश कर देते बल्कि 'फिलर' के तौर पर कुछ सामग्री अपने पास संचित कर लेते हैं। अक्सर ये फिलर यात्रा में लिए गए वो चित्र होते हैं जो अपनी कुछ विशेषताओं की वजह से एक माइक्रो पोस्ट का ज़रिया बन जाते हैं।
जब 'मुसाफ़िर हूँ यारों' के लिए फिलर की समस्या आई तो मैंने चित्र पहेलियों का सहारा लिया। इस ब्रह्मांड में भगवान ने इतना कुछ सुंदर, इतना कुछ विलक्षण बनाया है कि एक जिंदगी तो क्या लाखों जिंदगियों में चाह कर भी उसे साक्षात देख नहीं सकते। पर इंटरनेट के इस ज़माने में चित्रों और लेखों के माध्यम से उन्हें जान और समझ तो सकते हैं ना। सच कहूँ तो मुझे जितना मजा आपके लिए चित्र पहेलियों को रचने में आया उससे कहीं ज्यादा उन विलक्षण जगहों या घटनाओं के बारे में अपनी जानकारी के समृद्ध होने की वज़ह से आया। उनाकोटि, त्रिपुरा के पत्थर पर नक्काशे चित्र हों या कोलकाता के अद्भुत पूजा पंडाल, कलावंतिन दुर्ग की त्रिभुजाकार चोटी हो या फिर सोकोत्रा के विलक्षण पौधे इन सब के बारे में मुझे पढ़कर कर मुझे जितना आनंद मिला उतना ही उसके बारे में चित्र पहेली के माध्यम से जानकर आपको भी आया होगा ऐसी आशा है।
पिछले साल मेरे साथ आपने उड़ीसा में भितरकनिका कै मैनग्रोव जंगलों और केरल में मुन्नार, कोच्चि, कोवलम और कोट्टायम की सैर की। पटना के हरमंदिर साहब और कोलकाता के पूजा पंडालों का भी भ्रमण आपने मेरे साथ किया। चिट्ठे के तीसरे साल की शुरुआत मेंने बनारस से की है। आगे आपको सोमनाथ, नए दीघा, चाँदीपुर उड़ीसा की कुछ ऐतिहासिक बौद्ध विरासतों और भारत के एक विशाल डैम के अपने यात्रा संस्मरण भी सुनाने हैं जहाँ का मैं पिछले छः महिनों में चक्कर लगा चुका हूँ। यानि संक्षेप में कहूँ तो इन सब यात्राओं की कहानियाँ आपको फ्लैशबैक में बताई जाएँगी। ये पढ़ते वक़्त अगर आप ये सोच रहे हों कि मुझे सफ़र करना इतना पसंद क्यूँ है तो इस प्रश्न का जवाब भी देता ही चलूँ।
दरअसल यात्राएँ नई नई जगहें देखने का माध्यम तो हैं ही पर मुझे लगता है कि मेरे लिए ये अपनी रोजमर्रा की जिंदगी से निकल कर एक अलग तरह के अनुभवों को सहेज लेने का सबसे बड़ा मौका देती हैं। दूसरे यात्राएँ आपकी सोच को एक नए वातावरण में पलने का मौका देती हैं। अपने शहर का सूर्योदय भी मनोरम होता है पर उसे देखकर वो ख्याल नहीं उभरते जो आपको कहीं घूमते हुए उसी दृश्य को देखकर उठते हैं। क्यूँ होता है ऐसा? कारण ये है कि आप जब घर से निकलते हैं तो रोजमर्रा की समस्याओं को संदूक में बंद कर खुले मन से बाहर निकलते हैं। कम से कम मैं तो ऐसा ही करता हूँ और शायद इसी वज़ह से अपने हर नए सफ़र में एक नई उर्जा को अपने मन में पाता हूँ । अगर आप अपनी चिंताओं को अपने सफ़र में साथ लिए चलते हों तो यकीन मानिए आप अपनी यात्रा का कभी उन्मुक्त हृदय से आनंद नहीं ले पाएँगे।
आशा है इस नए साल में भी इस चिट्ठे के प्रति आपका स्नेह बना रहेगा और आपके आशीर्वाद से आपका ये मुसाफ़िर कुछ नए मुकामों तक पहुँचने की कोशिश करेगा । आखिर मुसाफ़िर की यात्रा का कोई अंत कहाँ... हरिवंश राय 'बच्चन' साहब ने यूँ ही तो नहीं कहा
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफ़िर
सूर्य ने हँसना भुलाया
चंद्रमा ने मुस्कुराना
और भूली यामिनी भी
तारिकाओं को जगाना
एक झोंके ने बुझाया
हाथ का भी दीप लेकिन
मत बना इसको पथिक तू
बैठ जाने का बहाना
एक कोने में हृदय के
आग तेरी जग रही है
देखने को मग तुझे
जलना पड़ेगा ही मुसाफ़िर
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफ़िर...