कुछ इतिहासकार मलयालम शब्द कोच अज्हि (Small Lagoon) से और कुछ कसि (harbour) से कोचीन नाम पड़ने की बात करते हैं। फिर कुछ लोग ये भी कहते हैं कि कोच्चि नाम कुबलई खान के दरबार से आए व्यापारियों का रखा है।
अलग-अलग संस्कृतियों को किस तरह अपने दिल में संजोए है ये शहर, ये देखने के लिए कड़ी धूप में ठीक दो बजे हम एरनाकुलम बोट जैट्टी ( जो मेरीन ड्राइव की बगल में है) से विलिंगडन द्वीप की और बढ़ चले। हमारी मोटरबोट के एक ओर तो मुख्य भूभाग का छूटता किनारा दिखाई दे रहा था तो दूसरी ओर नौ सेना के छोटे-छोटे पोत। सबसे पहले ये खूबसूरत इमारत नज़र आई जिसे लोग कोई सरकारी कार्यालय बता रहे थे।
क़ायदे से हमें सबसे पहले सेंट फ्रांसिस के चर्च जाना था। पर दिन था रविवार। अब मुश्किल ये थी कि रविवार के दिन, प्रार्थना की वज़ह से चर्च पर्यटकों के लिए खुला नहीं था। हमारे गाइड ने बताया कि सेंट फ्रांसिस चर्च (St. Francis Church) , भारत के सबसे पुराने चर्च के रूप में जाना जाता है। सन ५२ में सेंट थामस ने इस चर्च की स्थापना की थी। १५२४ ई. में वास्कोडिगामा की मृत्यु के पश्चात उसे इसी चर्च में दफ़नाया गया था। मन ही मन ऍसी ऍतिहासिक धरोहर ना देख पाने का अफ़सोस हुआ।
हमारा पहला पड़ाव था डच पैलेस (Dutch Palace)। नौका से उतरकर कुछ दूर चलने पर ही डच पैलेस का मुख्य द्वार आ जाता है। अब जिन लोगों ने राजस्थान के किलों और महलों को देखा है वो इस इमारत को पैलेस कहने में जरूर हिचकिचाहट महसूस करेंगे। दूर से देखने से ये खपड़ैल से बने बड़े घर जैसा दिखता है। वास्तव में इस इमारत की नींव पुर्तगालियों ने रखी थी, पर सत्रहवी शताब्दी में जब डच कोचीन में अपना प्रभामंडल बढ़ा रहे थे तो कोच्चि के राजा को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने इस इमारत में थोड़ी बहुत फेरबदल कर राजा को भेंट कर दिया।
महल के अंदर रामायण और महाभारत के सुंदर भित्ति चित्र (Mural Paintings) लगे हैं। इन चित्रों में चटकीले रंगों का प्रयोग किया गया है। एक कक्ष से दूसरे में जाने के लिए लकड़ी की सीढ़ियाँ हैं। एक संकरी सीढ़ी नीचे की ओर के कक्ष की तरफ जाती है। इस कक्ष में चित्रों में भिन्नता ये है कि इन्हें आप बच्चों के साथ देखने में सहज नहीं महसूस करेंगे। डच पैलेस में करीब २०-२५ मिनट बिताने के बाद हम चल पड़े बगल ही में यहूदियों के प्रार्थना स्थल पर।
(चित्र सौजन्य विकीपीडिया यहाँ अंदर चित्र लेने की मनाही थी)
मात्तनचेरी की गलियों से गुजरते हम जब इस यहूदी सिनगॉग पर पहुँचे तो सबसे पहले इसका अज़ीब सा नाम ध्यान आकर्षित कर गया। यहूदियों का ये प्रार्थना स्थल परदेशी सिनगॉग (Pardeshi Synagogue) कहलाता है। इसका कारण ये है कि इसे यहाँ रह रहे स्पेनिश, डच और बाकी यूरोपीय यहूदियों के वंशजों ने मिलकर 1568 में बनाया था। इसलिए परदेशियों का बनाया परदेशी प्रार्थना स्थल हो गया। मज़े की बात ये है कि किसी यहूदी प्रार्थना स्थल में चप्पल उतार कर जाना अनिवार्य नहीं रहता । पर परदेशी सिनागॉग में आप बिना चप्पल उतारे प्रवेश नहीं कर सकते। साफ है कि समय के साथ हिंदू रीति रिवाज का यहाँ रहने बाले यहूदियों पर भी असर पड़ा और उन्होंने उसे अपना लिया।
प्रार्थना स्थल, चीन से लाई गई सफ़ेद नीली टाइलों और बेल्जियम से लाए गए शानदार झाड़फानूसों से सुसज्जित है। प्रार्थना स्थल से डच पैलेस के बीच का पतला रास्ता बड़ा ही मनोहारी है। जी नहीं, मैं किसी प्राकृतिक दृश्य की बात नहीं कर रहा बल्कि उन दुकानों की बात कर रहा हूँ जिसमें बिकती वस्तुएँ बरबस आपका ध्यान खींच लेती हैं। पुराने ज़माने की वे धरोहरें जिसे भारतीय पर्यटक सिर्फ देख पाते हैं और विदेशी जिन्हे खरीदने में बेहद दिलचस्पी दिखाते हैं। अब इस पुरानी लकड़ी की नाव को ही देखें।
हमारा अंतिम पड़ाव था फोर्ट कोच्चि के तट का वो हिस्सा जहाँ मछुआरे चाइनीज फिशिंग नेट का प्रयोग करते हैं। चीन के बाहर पूरे विश्व में सिर्फ केरल में मछली पकड़ने के लिए ऐसे विशाल जाल का प्रयोग होता है।
कोच्चि से अगली सुबह यानि 24 दिसंबर को निकलना था हमें मुन्नार की ओर। ये दिन हमारी संपूर्ण केरल यात्रा का सबसे अविस्मरणीय दिन था। क्या था ऍसा अद्भुत ये जानते हैं इस यात्रा वृत्तांत की अगली किश्त में....
इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ
- यादें केरल की : भाग 1 - कैसा रहा राँची से कोचीन का 2300 किमी लंबा रेल का सफ़र
- यादें केरल की : भाग 2 - कोचीन का अप्पम, मेरीन ड्राइव और भाषायी उलटफेर...
- यादें केरल की : भाग 3 - आइए सैर करें बहुदेशीय ऍतिहासिक विरासतों के शहर कोच्चि यानी कोचीन की...
- यादें केरल की : भाग 4 कोच्चि से मुन्नार - टेढ़े मेढ़े रास्ते और मन मोहते चाय बागान
- यादें केरल की : भाग 5- मुन्नार में बिताई केरल की सबसे खूबसूरत रात और सुबह
- यादें केरल की : भाग 6 - मुन्नार की मट्टुपेट्टी झील, मखमली हरी दूब के कालीन और किस्सा ठिठुराती रात का !
- यादें केरल की : भाग 7 - अलविदा मुन्नार ! चलो चलें थेक्कड़ी की ओर..
- यादें केरल की भाग 8 : थेक्कड़ी - अफरातरफी, बदइंतजामी से जब हुए हम जैसे आम पर्यटक बेहाल !
- यादें केरल की भाग 9 : पेरियार का जंगल भ्रमण, लिपटती जोंकें और सफ़र कोट्टायम तक का..
- यादें केरल की भाग 10 -आइए सैर करें बैकवाटर्स की : अनूठा ग्रामीण जीवन, हरे भरे धान के खेत और नारियल वृक्षों की बहार..
- यादें केरल की भाग 11 :कोट्टायम से कोवलम सफ़र NH 47 का..
- यादें केरल की भाग 12 : कोवलम का समुद्र तट, मछुआरे और अनिवार्यता धोती की
- यादें केरल की समापन किश्त : केरल में बीता अंतिम दिन राजा रवि वर्मा की अद्भुत चित्रकला के साथ !
Great shots Manish, reminds me of my trip there.
जवाब देंहटाएंThe last shot looks particularly beautiful. I wonder if you saw sunset/sunrise at one of these places.
जवाब देंहटाएंI also liked the last picture. Was that a boat in 2nd last pic ?
जवाब देंहटाएंMridula We were there just before sunset.
जवाब देंहटाएंNisha Kochi mein Pardeshi Synagogue tak jane wale raste ke donon or dukanein hain. Wahan purane saaj saman display kiye jate hain. Jinhein purane artefact collect karne ka shauq hai khaskar videshi paryatak yahan bheed lagaye rahte hain. Aisi hi ek dukan mein ye lakdi ki bani naav rakhi thi.