रंगत (Rangat) में बिताई वो रात हमेशा याद रहेगी । यही कोई दस साढ़े दस का वक्त रहा होगा कि एक अजीब सा स्वर दूर से आता सुनाई पड़ा । अभी हल्की नींद ही लगी थी तो सोचा उठ कर देखें माजरा क्या है? पहले लगा ये आवाज शौचालय से आ रही है। पर अंदर कुछ नहीं निकला। बाहर निकले तो घुप्प अँधेरे में ज्यादा खोज बीन करने की हिम्मत नहीं हुई । वापस आ गए तो आवाज का पुनः विश्लेषण किया और इस नतीजे पर पहुँचे कि हो ना हो हमारी बगल के रूम में भाई लोगों ने शाम के स्नान के बाद गीजर खुला छोड़ दिया है जिसकी वजह से घरघराती सी गरम होते पानी की आवाज आ रही है। बगलगीर को मन ही मन लानत भेजते हुए फिर से सोने की कोशिश की।
थोड़ी देर नींद आ भी गई पर अबकि जो नींद खुली तो वो अजीब तरह का शोर अब बगल के कमरे से ना आते हुए,चारों ओर से दुगने डेसिबल की ध्वन्यात्मक शक्ति से आता सुनाई दिया। इस बार तो हम सब सहम से गए । वहीं से चिल्लाते हुए आस पास के कमरों में ठहरे हुए अपने मित्रों को आवाज दी ।पर उस शोर के बीच उन तक आवाज पहुँचती भी तो कैसे? किसी तरह कान के चारों ओर तौलिया लपेटे और करवटें बदलते हुए रात काटी ।
इस श्रृंखला की पिछली प्रविष्टियों में आपने पढ़ा कि किस तरह इठलाती बालाओं और विमान के टूटते डैने के संकट से उबर कर अंडमान पहुँचा और सेल्युलर जेल में ध्वनि और प्रकाश का सम्मिलित कार्यक्रम वहाँ के गौरवमयी इतिहास से मुझे रूबरू करा गया। अगले दिन रॉस द्वीप की सुंदरता देख और फिर नार्थ बे के पारदर्शक जल में गोते लगाकर मन प्रसन्न हो गया। हैवलॉक तक की गई यात्रा मेरी अब तक की सबसे अविस्मरणीय समुद्री यात्रा रही। हैवलॉक पहुँच कर हमने अलौकिक दृश्यों का रसास्वादन तो किया ही साथ ही साथ समुद्र में भी जम कर गोते लगाए। हैवलॉक से तो ना चाहते हुए भी निकलना पड़ा पर अब हम चल पड़े उत्तरी अंडमान की रोड सफॉरी पर। आज इस श्रृंखला में पढ़िए रंगत और बाराटांग की वो ना भूलने वाली स्मृतियाँ.....
पौ फटते ही शोर एकदम से कम हो गया और 2-3 घंटे चैन से सो पाए । सात बजे जब अपने कमरे से बाहर आए तब रात के उस शोर के रहस्य का पर्दाफाश हुआ। बाहर के गलियारे में प्रेम प्रकट करने के उस अभूतपूर्व महोत्सव के दुखद अवशेष बिखरे पड़े थे। चौंकिये मत जनाब, मैं बकवास नहीं कर रहा । दरअसल ये सारा प्रेम प्रलाप पीले रंग के करीबन तीन सेमी लंबे चौड़े नर कीड़ों का था जो जाड़े के मौसम में मादा जाति के कीड़ों को आकर्षित करने के लिए रात भर बिरहा गाते हुए और रोशनी से टकराते-टकराते सुबह तक अपनी जान दे देते हैं। गलियारे का फर्श सैकड़ों मरे हुए कीड़ों से पटा पड़ा था। मित्रों से बात हुई तो उनकी भी रात की कहानी वही रही जो मेरी थी। वहाँ के लोगों ने बताया कि ऐसा साल में 15-20 दिन तक जरूर होता है।
रंगत के इस अजीबो गरीब अनुभव के बाद हम लोग उसी रास्ते से वापस बाराटांग चल दिये । इस बार दोनों फेरी क्रासिंग में अपनी गाड़ी की बारी आने के लिए काफी इंतजार करना पड़ा। कदमतला की पहली क्रासिंग पर बड़े- बड़े समुद्री केकड़े आलू प्याज की तरह टोकरियों में बिकते दिखे । बाराटांग के रास्ते में ही मड वालकेनो (Mud Volcano, Baratang) जाने का रास्ता है ।जंगलों के बीच दस पन्द्रह मिनट तक पैदल चलने के बाद हम सब उस स्थान पर थे जहाँ एक बेहद छोटे क्रेटर के बीच कीचड़ में से रह- रह के फुदफुदाहट के साथ गैस के बुलबुले निकल रहे थे । अंडमान के मड वालकेनो में 1983 और 2003 में काफी क्रियाशीलता देखी गई थी। 2004 के अंत में हम सब ने जो देखा वो बहुत कुछ इस वीडियो से मिलता जुलता है। करीब दिन के एक बजे तक हम बाराटांग जेटी में थे। यहाँ से हमें छोटी नौका से 5-6 किमी समुद्र के अंदर और फिर पैदल बाराटांग की विख्यात लाइमस्टोन गुफा में जाना था।
इधर हमारे साथी बोट की बुकिंग में व्यस्त थे कि सैलानियों से भरी बाराटांग जेटी के एक ओर हलचल होने लगी । हमलोग तब पास के भोजनालय में मसाला डोसा का आनंद ले रहेथे। फटाफट खा कर बाहर निकले तो देखा कि ये सारी हलचल जारवा जनजाति के दो नरों के बाजार में प्रवेश कर जाने से हो गई है । उनमें से एक व्यस्क था तो दूसरा लड़का। स्वाभाविक रूप से काला रंग, मुड़े मुड़े छोटे बाल और वस्त्र के नाम पर लाल रंग की तीन चार धारियों वाली पट्टी । जैसे ही बंगाल से आए एक समूह ने उनके साथ फोटो खिंचवाने की कोशिश की, व्यस्क जारवा ने सामने खड़े व्यक्ति की जेब में अचानक तेजी से हाथ डाला और बोला दस रुपिया । अब दादा तो ऐसे घबराए कि चले भाग:) । पीछे कुछ दूर वो जारवा भी भागा फिर ठहर गया। खैर, कुछेक चित्र पैसे देकर मेरे साथ आए मित्र ने भी लिये। बाद में मेंने देखा कि जारवा इन पैसों का प्रयोग बाजार में बिस्कुट और प्लास्टिक की बोतलें खरीदनें में करते हैं।
कुछ ही देर में हमारी नौका भी आ गई थी । अब तक अंडमान में छोटे जहाज पर सफर करते आए थे। नौका में बैठते ही सब की हवा उड़ गई। कहाँ चारों ओर समुद्र का अथाह जल और छोटे से डीजल इंजन से चलती ये नौका । एक तो थोड़ा सा वजन का असंतुलन होते ही दूसरी ओर झुक जाती थी तो लगता था कि अब तो गए। दूसरे उस पुराने से इंजन की धकधक हमारे हृदय की धकधक के विपरीत अनुपात (inversly proportional) में चल रही थी, यानि एक बार डीजल इंजन का धड़कना बीच समुद्र में रुका नहीं कि हम सब के हृदय की धड़कन दूगनी हो गईं।
समुद्र के पार्श्वजल के दोनों ओर अपनी कतार बाँधे चल रहे थे। इन वृक्षों की विशेषता है कि ये खारे पानी के प्रति सहनशील होते हैं। अक्सर ये वहाँ पाए जाते हैं जहाँ समुद्री तट के बगल का हिस्सा दलदली हो । भाटे की अवस्था में इनकी निचली जड़ें साफ दिखती हैं। बीस मिनट के इस समुद्र विहार के बाद हमारी नौका बायें मुड़ने को हुई। अब हम मैनग्रोव के जंगलों के बगल -बगल नहीं वरन उनके झुरमुटों के ठीक नीचे जमीन को काट कर बनाई गई पतले जल मार्ग से होकर जा रहे थे। मैनग्रोव के जंगलों के इतने करीब से होकर जाना एक रोमांचक अनुभव था ।
आगे के करीब दो तीन किमी का रास्ता पैदल तय करना था। चूना पत्थर की गुफाओं तक पहुँचते-पहुँचते हम सब पसीने से बुरी तरह तर बतर हो गए थे। पूरी यात्रा में जितना पसीना नहीं निकला था वो गुफा के अंदर से वापस आने में निकल गया। गुफा के अंदर पहुँचते हुए नवीं कक्षा की भूगोल की किताब आँखों के सामने तैर गई जब मैंने चूनापत्थर के ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर बढ़ने से बढ़ने वाली चट्टानों को स्टैलेकटाइट और स्टैलेगमाइट के नाम से रटा था। क्या जानते थे कि वो सब पढ़ने के करीब बीस वर्षों बाद वो मंजर खुद अपनी आँखों से देखने को मिलेगा।
बाराटांग से आगे के सफर में हमें जारवा समुदाय की कई टोलियाँ दिखाईं दीं । आते समय के शून्य का आंकड़ा वापस लौटते समय बारह तक पहुँच गया। एक जारवा ने तो हाथ देकर गाड़ी को रोकने का भी प्रयास किया। ड्राइवर ने बताया कि वो जारवा अक्सर गाड़ी को रोककर खैनी की मांग करता है। ये तो स्पष्ट है कि सैलानियों की संगत में जारवा की खान पान की शैली में बदलाव आया है। नृविज्ञानियों को डर इसी बात का रहता है कि कहीं ये सम्पर्क उन्हें नयी बीमारियाँ ना प्रदान कर दे जिससे वो लड़ने को समर्थ नहीं हैं। वापसी में हम रबर के पेड़ों के जंगलों में भी गए। प्राकृतिक रबर के बनने की विधि का जायजा लिया और रात वापस पोर्ट ब्लेयर पहुँच गए।
इस तरह एक और दिन समाप्त हुआ। यात्रा के आखिरी चरण में ले चलेंगे आपको माउंट हैरियट और सिपीघाट के सफर पर। साथ ही इस बात का खुलासा भी होगा कि आखिर अंडमान से जुड़ी कौन सी वस्तु आप अक्सर अपनी जेब में लिये घूमते हैं :)
मैनग्रोव के जंगल (Mangrove Forest) इधर हमारे साथी बोट की बुकिंग में व्यस्त थे कि सैलानियों से भरी बाराटांग जेटी के एक ओर हलचल होने लगी । हमलोग तब पास के भोजनालय में मसाला डोसा का आनंद ले रहेथे। फटाफट खा कर बाहर निकले तो देखा कि ये सारी हलचल जारवा जनजाति के दो नरों के बाजार में प्रवेश कर जाने से हो गई है । उनमें से एक व्यस्क था तो दूसरा लड़का। स्वाभाविक रूप से काला रंग, मुड़े मुड़े छोटे बाल और वस्त्र के नाम पर लाल रंग की तीन चार धारियों वाली पट्टी । जैसे ही बंगाल से आए एक समूह ने उनके साथ फोटो खिंचवाने की कोशिश की, व्यस्क जारवा ने सामने खड़े व्यक्ति की जेब में अचानक तेजी से हाथ डाला और बोला दस रुपिया । अब दादा तो ऐसे घबराए कि चले भाग:) । पीछे कुछ दूर वो जारवा भी भागा फिर ठहर गया। खैर, कुछेक चित्र पैसे देकर मेरे साथ आए मित्र ने भी लिये। बाद में मेंने देखा कि जारवा इन पैसों का प्रयोग बाजार में बिस्कुट और प्लास्टिक की बोतलें खरीदनें में करते हैं।
कुछ ही देर में हमारी नौका भी आ गई थी । अब तक अंडमान में छोटे जहाज पर सफर करते आए थे। नौका में बैठते ही सब की हवा उड़ गई। कहाँ चारों ओर समुद्र का अथाह जल और छोटे से डीजल इंजन से चलती ये नौका । एक तो थोड़ा सा वजन का असंतुलन होते ही दूसरी ओर झुक जाती थी तो लगता था कि अब तो गए। दूसरे उस पुराने से इंजन की धकधक हमारे हृदय की धकधक के विपरीत अनुपात (inversly proportional) में चल रही थी, यानि एक बार डीजल इंजन का धड़कना बीच समुद्र में रुका नहीं कि हम सब के हृदय की धड़कन दूगनी हो गईं।
समुद्र के पार्श्वजल के दोनों ओर अपनी कतार बाँधे चल रहे थे। इन वृक्षों की विशेषता है कि ये खारे पानी के प्रति सहनशील होते हैं। अक्सर ये वहाँ पाए जाते हैं जहाँ समुद्री तट के बगल का हिस्सा दलदली हो । भाटे की अवस्था में इनकी निचली जड़ें साफ दिखती हैं। बीस मिनट के इस समुद्र विहार के बाद हमारी नौका बायें मुड़ने को हुई। अब हम मैनग्रोव के जंगलों के बगल -बगल नहीं वरन उनके झुरमुटों के ठीक नीचे जमीन को काट कर बनाई गई पतले जल मार्ग से होकर जा रहे थे। मैनग्रोव के जंगलों के इतने करीब से होकर जाना एक रोमांचक अनुभव था ।
आगे के करीब दो तीन किमी का रास्ता पैदल तय करना था। चूना पत्थर की गुफाओं तक पहुँचते-पहुँचते हम सब पसीने से बुरी तरह तर बतर हो गए थे। पूरी यात्रा में जितना पसीना नहीं निकला था वो गुफा के अंदर से वापस आने में निकल गया। गुफा के अंदर पहुँचते हुए नवीं कक्षा की भूगोल की किताब आँखों के सामने तैर गई जब मैंने चूनापत्थर के ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर बढ़ने से बढ़ने वाली चट्टानों को स्टैलेकटाइट और स्टैलेगमाइट के नाम से रटा था। क्या जानते थे कि वो सब पढ़ने के करीब बीस वर्षों बाद वो मंजर खुद अपनी आँखों से देखने को मिलेगा।
बाराटांग से आगे के सफर में हमें जारवा समुदाय की कई टोलियाँ दिखाईं दीं । आते समय के शून्य का आंकड़ा वापस लौटते समय बारह तक पहुँच गया। एक जारवा ने तो हाथ देकर गाड़ी को रोकने का भी प्रयास किया। ड्राइवर ने बताया कि वो जारवा अक्सर गाड़ी को रोककर खैनी की मांग करता है। ये तो स्पष्ट है कि सैलानियों की संगत में जारवा की खान पान की शैली में बदलाव आया है। नृविज्ञानियों को डर इसी बात का रहता है कि कहीं ये सम्पर्क उन्हें नयी बीमारियाँ ना प्रदान कर दे जिससे वो लड़ने को समर्थ नहीं हैं। वापसी में हम रबर के पेड़ों के जंगलों में भी गए। प्राकृतिक रबर के बनने की विधि का जायजा लिया और रात वापस पोर्ट ब्लेयर पहुँच गए।
इस तरह एक और दिन समाप्त हुआ। यात्रा के आखिरी चरण में ले चलेंगे आपको माउंट हैरियट और सिपीघाट के सफर पर। साथ ही इस बात का खुलासा भी होगा कि आखिर अंडमान से जुड़ी कौन सी वस्तु आप अक्सर अपनी जेब में लिये घूमते हैं :)
भाई, हर बार पढ़ना उत्सुक्ता बढ़ा देता है. अगली बार भारत आयेगे तो अण्डमान जाना पक्का ही है आपको पढ़कर.
जवाब देंहटाएंबड़ा ही रोमांचक यात्रा विवरण है ..सच में वहां जाने का दिल बन आया है ..:) इस लेख के बहुत कुछ जानने को मिला है शुक्रिया अगली कड़ी का इन्तजार शुरू .
जवाब देंहटाएंबहुत बार जाने की सोची पर कोई न कोई व्यवधान आता रहा। आपने और उत्सुकता बढा दी।
जवाब देंहटाएंबहुत ही खूबसूरत यात्रा वृत्तांत. हमने इतना बताया कि हमारे एक मित्र चलने के लिए तैयार हो गए लेकिन अभी दूसरों को पटाना बाकी है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर लेख | सच में, मेरी आँखों से यही प्रदेश अछूता बचा है, बस हर बार उत्सुकता बढा देते हैं | अगले भारत भ्रमण में यहाँ जाऊंगा...
जवाब देंहटाएंइन्तिज़ार रहेगा जानने का की कौन सी चीज है वह ..वैसे कीडों वाली घटना पढ़ कर हंसी बहुत आई.
जवाब देंहटाएंbahut hi achha vivran aur tasveer...
जवाब देंहटाएंAgli post zara jaldi lagaiyega...zayada intzaar nahi karwiyega...
very informative indeed! vaaaaah!
जवाब देंहटाएंआखिरी की तीन तस्वीरें तो बहुत उत्सुकता बढाती है. आपके चुना रॉक फोरमेशन वाली तस्वीर की तरह हमने भी एक जगह देखी है. मेघालय में बिल्कुल ऐसी है: http://ojha-uwaach.blogspot.com/search/label/Meghalaya
जवाब देंहटाएंबिल्कुल रोचक-रोमांचक अंडमान की यात्रा चल रही है.
बहुत रोमांचकारी यात्रा विवरण है।अच्छी जानकारी दी।आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत ही रुचिकर यात्रा वृत्तांत !
जवाब देंहटाएंManish, sorry for the comment in English, but what a find, such an interesting blog!
जवाब देंहटाएंYe article padha bahut achha laga padhke hi man karne laga jaane ka......thx
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आप सब की हौसलाआफजाई का !
जवाब देंहटाएंManish ji,
जवाब देंहटाएंbahut achche! Kya baat hai!Aise hi likhte rahen! Baadhiya samsmaran aapne likha hai, yahan, hamaare Andaman ki yaatra ke baad.
Kaash ki hum pehle mile hote to, yahan Port Blair me mulaakaat hoti.
Khair, aap apne mitron ko hammare blog - "ANDAMAN & NICOBAR THE HISTORIC INDIAN CORAL ISLANDS" me bhej sakte hain yahaan ki poori jaankari ke liye. Chaahen to link bhi kar sakte hain.
Aapka swaagat hai hamaare blog me.:)
SHRINATH VASHISHTHA
PORT BLAIR
ANDAMAN & NICOBAR ISLANDS (India).
Waah, kya uttam khoj hai. Mujhe nahi malum tha ki Andaman mein yeh bhi dekhne ko milega.
जवाब देंहटाएंWahan jane se pehle aapka blog padhna nishchit hai.
Thanks for this info.
आज ही रेवा ने मुझे "मुसाफिर हूँ यारों " ब्लॉग के बारे में आप की जानकारी दी तथा बहुत सारी आप के द्वारा भेजी गई mail मेरे को फॉरवर्ड की सभी मेंने पढ़ी पसंद आईं इस विषय पर हमारी चर्चा पहले भी हो चुकी हैं
जवाब देंहटाएंइससे पहले में आप को कुछ और लिखूँ यह बताना चाहूँगा की में रेवा के ऑफिस में था और हम पड़ोसी भी हैं
कई बार आप के बारे में बात होती है और रेवा मुझे कहती है भार्गव जी आप अपना ब्लॉग क्यूँ नहीं बनाते हो
ब्लॉग बनाए भी एक बर्ष हो गया पर मुझे इस को ठीक से प्रयोग करना नहीं आता है
मेरे ब्लॉग का नाम मेनें अर्पण रखा है जो गूगल पर है
आगे क्या करना है अब सीखना पड़ेगा
ये आप से में बता पा रहा हूँ