अंडमान मे अपना आखिरी दिन का कार्यक्रम, पोर्ट ब्लेयर की शहरी सीमा से कुछ दूर के क्षेत्रों में जाने का था । सबसे पहले हम सब जा पहुँचे सिपीघाट के कृषि फार्म पर। सिपीघाट (Sipighat), पोर्ट ब्लेयर से 15 किमी की दूरी पर है और ये वंडूर नेशनल पार्क के रास्ते में करीब 80 एकड़ में फैला हुआ है। इस सरकारी फार्म में नारियल और गरम मसालों की विभिन्न प्रजातियों पर शोध किया जाता है। अब हमारे समूह में किसी ने भी जीरा, लौंग, इलायची जेसे मसालों के पौधों को देखा ना था सो उन्हें देखने के लिए सबमें बच्चों सी उत्सुकता थी। जाहिर सी बात हे कि मैदानी इलाकों में रहने वालों हमारे जैसे जीवों के लिए ऐसे पौधों का दर्शन दुर्लभ ही रहता है। इन पौधों के बीच हमें ये छोटा सा अनानास नजर आया तो झट से कैमरे से इसकी छवि उतारी गई।

इस श्रृंखला की पिछली प्रविष्टियों में आपने पढ़ा कि किस तरह इठलाती बालाओं और विमान के टूटते डैने के संकट से उबर कर अंडमान पहुँचा और सेल्युलर जेल में ध्वनि और प्रकाश का सम्मिलित कार्यक्रम वहाँ के गौरवमयी इतिहास से मुझे रूबरू करा गया। अगले दिन रॉस द्वीप की सुंदरता देख और फिर नार्थ बे के पारदर्शक जल में गोते लगाकर मन प्रसन्न हो गया। हैवलॉक तक की गई यात्रा मेरी अब तक की सबसे अविस्मरणीय समुद्री यात्रा रही। हैवलॉक पहुँच कर हमने अलौकिक दृश्यों का रसास्वादन तो किया ही साथ ही साथ समुद्र में भी जम कर गोते लगाए। हैवलॉक से तो ना चाहते हुए भी निकलना पड़ा पर अब हम चल पड़े उत्तरी अंडमान की रोड सफॉरी पर। रंगत में बिताई वो रात जरूर डरावनी रही पर अगले दिन जारवा समुदाय के लोगों से मिलने का अनुभव अलग तरह का रहा। आज इस श्रृंखला की समापन किश्त में पढ़िए माउंट हैरियट से जुड़ी स्मृतियाँ.....




माउंट हैरियट के जंगलों में चहलकदमी करने का हम सबको और मन था पर हमारे चालक का कहना था कि अगर ज्यादा देर की तो जहाज छूट जाएगा। हमें वापसी में पानी के मार्ग से गाड़ी सहित जाना था ताकि समय की बचत हो सके। नीचे पहुँचने पर पता चला कि फेरी तो काफी पहले ही जा चुकी है और अगली, दो घंटे के पहले नहीं आएगी। हम सबने चालक को जम कर कोसा कि इतने सुंदर वातावरण का सानिध्य छोड़ उसने व्यर्थ ही हमारा समय नष्ट कराया । इधर ये बहस हो ही रही थी कि किसी ने मेरा ध्यान पतलून के नीचे से आती खून की लकीर पर दिलाया। मैं आवाक रह गया कि बिना चोट के ये खून कहाँ से निकलने लगा । खून घुटने के नीचे से निकलता दिखा। स्थानीय लोगों ने उसे जोंक का काम वताया और तुरंत एक पत्ती का लेप लगाया जिससे खून का स्राव बंद हो गया। मजे की बात ये कि कब जंगली रास्ते में वो जोंक चिपकी और फिर छिटक गई इसका मुझे आभास तक नहीं हुआ। तो ये थी अंडमान में बिताये हमारे नवें दिन की कहानी।
अगली सुबह हम वापस कोलकाता की ओर रवाना हो गए। हमारे वापस आने के ठीक एक महिने बाद त्सुनामी ने निकोबार में भयंकर कहर ढ़ाया। अंडमान में भी भूकंप की वजह से काफी क्षति हुई। आज अंडमान फिर उस तबाही से उबर कर सैलानियों के स्वागत के लिए हाथ खोले खड़ा है।
मुझे नहीं लगता कि भारत में इस पर्यटन स्थल सरीखी कोई दूसरी जगह है। अंडमान के पास अगर मन मोहने वाले समुद्र तट हैं तो साथ ही घंटों रास्ते के साथ-साथ चलने वाले हरे-भरे घने जंगल। स्वाधीनता की लड़ाई से जुड़ी धरोहरें हों या प्राक-ऐतिहासिक काल वाले जीवनशैली की झलक दिखाती यहाँ कि अद्बुत जन जातियाँ। एक ओर समुद्र की तल में कोरल के अद्भुत आकारों की विविध झांकियाँ तो साथ ही वर्षा वन आच्छादित खूबसूरत पहाड़ियाँ। कुल मिलाकर ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अंडमान अपने आप में कई पर्यटन स्थलों की विविधता को समेटे हुए है। तो हुजूर, अगर अब तक नहीं गए हों देर मत जिए..भारत की धरती का ये हिस्सा आपको बुला रहा है।
नौ भागों की इस श्रृंखला में आप संयम रखते हुए :) साथ रहे इसका मैं आभारी हूँ । आशा है अगले सफर में भी आपका साथ मिलता रहेगा ।
नौ भागों की इस श्रृंखला में आप संयम रखते हुए :) साथ रहे इसका मैं आभारी हूँ । आशा है अगले सफर में भी आपका साथ मिलता रहेगा ।