कोणार्क (Konark) से वापस हम शाम तक
भुवनेश्वर आ गए थे। अगले दो दिन भुवनेश्वर (Bhubneshwar) में रहने का कार्यक्रम था। भुवनेश्वर में अगली सुबह हम जा पहुँचे
धौलागिरि (Dhaulagiri), जो कि शहर से करीब आठ किमी दूर स्थित है। धौलागिरि के शिखर पर स्थित सफेद गुम्बद नुमा
शांतिस्तूप (Peace Pagoda, Dhauli) दूर से ही दिखाई पड़ता है। १९७२ में इस स्तूप को जापानियों के सहयोग से बनाया गया था। स्तूप के गुम्बद के छत्र के रूप कमल के फूल की पाँच पंखुड़ियों को रखा गया है। सीढ़ियों की शुरुआत में ही खंभों के दोनों ओर सिंहों की प्रतिमा बनाई गई है।
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स्तूप की सीढ़ियों को पार कर जैसे ही आप चबूतरे पर पहुँचते हैं आपको पद्मासन में बैठे चिर ध्यान में लीन बुद्ध की प्रतिमा के दर्शन होते हैं। दूर-दूर तक पहाड़ी से दिखती हरियाली को देख मन पहले से ही पुलकित हो जाता है और भगवान बुद्ध की ये भाव भंगिमा विचारों में निर्मलता का प्रवाह खुद-ब-खुद ले आती है।
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पूरी इमारत के चारों ओर दीवारों पर भगवान बुद्ध के जीवन और उस समय के परिवेश से जुड़ी कई कलाकृतियाँ हैं जिसमें कहीं बुद्ध निद्रामग्न हैं तो कहीं अपने शिष्यों से घिरे हुए....
शांति स्तूप से नीचे का नज़ारा भुवनेश्वर का मेरा सबसे यादगार दृश्य रहा। चारों ओर हरे भरे धान के लहलहाते खेत, खेतों की निरंतरता को तोड़ते वृक्ष और पास बहती दया नदी (River Daya) का किनारा.. कुल मिलाकर एक ऍसा दृश्य जिसे देख कर ही मन खिल उठे। कौन सोच सकता है कि ये वही जगह है जहाँ सम्राट अशोक ने कलिंग के साथ युद्ध (Kalinga War) में भयंकर रक्तपात मचाया था। दया नदी का तट लाशों से अटा पड़ा था जिसे देखकर पराक्रमी अशोक का हृदय परिवर्तन हो गया था।
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शांति स्तूप के लिए जहाँ से चढ़ाई शुरु होती है उसके करीब सौ मीटर आगे ही वो जगह है जहाँ हाथी के अग्र भाग का शिल्प बनाया गया था। चट्टानों को काटकर बनाए गए इस शिल्प को भारत का सबसे पुराना (ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी का ) माना जाता है। कहते हैं कि इसी जगह पर अशोक का हृदय परिवर्त्तन हुआ था।
हाथी के निकलते हुए सर को प्रतीतात्मक रूप से बौद्ध धर्म का प्रादुर्भाव माना जाता है। चित्र में शिल्प के पार्श्व में दिख रहा है शांति स्तूप के साथ ही लगा
शिव मंदिर (Lord Dhavaleshwar's temple) जिसका पुनर्निर्माण भी सत्तर के दशक में हुआ था।
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इस शिल्प के दूसरी तरफ कुछ दूरी पर अशोक द्वारा बनाए गए शिलालेख हैं जो
प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में लिखे गए हैं।
इस शिलालेख में लोगों का दिल जीतने की बात कही गई है। सारी प्रजा के लिए सम्राट अशोक ने अपने आपको पिता तुल्य माना है और लिखा है कि अपने बच्चों की खुशियाँ और परोपकार का ही मैं अभिलाषी हूँ।
ये शिलालेख एक आक्रमक राजा के शांति का अग्रदूत बन जाने की कहानी कहते हैं। आज २००० वर्ष बीतने के बाद भी, हमारे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय नेता भी इस महान शासक के अनुभवों से युद्ध की निर्रथकता का सबक ले सकते हैं।
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जिस तरह सूर्य के रथ का पहिया कोणार्क की पहचान था उसी तरह धौली का स्तूप भुवनेश्वर की टोपोग्राफी पर राज करता है। पर अभी तो हमारी भुवनेश्वर यात्रा शुरु ही हुई है। अगले चरण में ले चलेंगे आपको भुवनेश्वर के कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण मंदिरों और स्मारकों की सैर पर...