शुक्रवार, 3 मई 2024

कुन्नूर : धुंध से उठती धुन

आज से करीब दो सौ साल पहले कुन्नूर में इंसानों की कोई बस्ती नहीं थी। अंग्रेज सेना के कुछ अधिकारी वहां 1834 के करीब पहुंचे। चंद कोठियां भी बनी, वहां तक पहुंचने का रास्ता भी पर पूरे कस्बे की आबादी हज़ार की सीमा लांघने में अगले बीस साल लग गए।


आम जनता पास के कोयंबटूर से तांगे या बैलगाड़ी से तब कुन्नूर पहुंचती थी। कस्बे की व्यवस्थाओं का ये हाल था कि अंग्रेजों को एक अदद पावरोटी के लिए कोयंबटूर का मुंह देखना पड़ता था। अंग्रेजों को जब कुन्नूर की आबोहवा रास आने लगी तो उन्हें लगा कि यहां जमने के लिए कुछ ऐसा करना होगा जिससे जीविका का कुछ स्थाई समाधान निकले।


और तभी से शुरू हुई नीलगिरी पर्वत पर बसे कुन्नूर की पहाड़ी ढलानों पर चाय की खेती। मजे की बात ये कि भारत जैसे चाय प्रेमी देश में कुन्नूर की चाय को पहला बाजार बाहर इंग्लैंड में मिला।


दो सौ सालों के बाद भी अंग्रेजों ने जो आधारभूत संरचनाएं यहां निर्मित की उनमें से कुछ आज भी जस की तस हैं। यहां के सारे पर्यटक स्थल किसी न किसी अंग्रेज के नाम पर हैं जैसे Lamb's Rock, Sim's Park, Lady Canning Seat, Law waterfall. वैसे ये बात अगर मुझे पहले पता चल जाती तो मैं Lamb's Rock पर जाकर उसकी आकृति का भेड़ से मिलान करने की मूर्खता न करता😁

नीले आसमान और बागान की हरियाली के बीच मैं

चाय बागानों तक जाने वाले सिकुड़े सिमटे रास्ते जंगलों से लटकती लताओं को चूमते से फिरते हैं। चलते चलते उनके साये में आते ही घना अंधेरा छा जाता है। बादलों के झुंड कब इन सड़कों पर आ कर सुस्ताने लगें इसका अंदाज़ा लगा पाना मुश्किल है। ऐसे में इन पहाड़ी घुमावदार रास्तों पर आप पल भर में खनकती धूप से घने कोहरे में दाखिल हो सकते हैं जो आम चालक की हालत पतली कर देता है

कोहरे से लिपटी सड़कें

पर अंग्रेजों को कोहरे में डूबता उतराता हरा भरा कुन्नूर का यही मौसम बेहद भाया होगा। हालांकि दूर दराज से कुछ दिन के लिए यहां आने वालों को मौसम की इन शरारतों का खामियाजा भुगतना पड़ता है जब उन्हें किसी शानदार व्यू प्वाइंट पर पहुंचने के बाद कोहरे की सफेद चादर के अलावा कुछ नहीं दिखता।
मैं खुशकिस्मत रहा कि मुझे कुन्नूर ने अपने दोनों रंग दिखाए एक ओर तो कोहरे से लदे-फदे तो दूसरी ओर सुनहरी धूप के बीच चाय बागानों की हरीतिमा से मन को मोहते हुए।

कुन्नूर के मनमोहक चाय बागान

कुन्नूर की खूबसूरती यहाँ के चाय बागानों में ही समायी है। ऊटी से आने वाले वेलिंगटन से होते हुए कुन्नूर में प्रवेश करते ही सबसे पहले सिम पार्क पहुँचते हैं। उसके पास ही यहाँ की मशहूर नीलगिरी पर्वतीय रेलवे का स्टेशन भी है। ऊटी से कुन्नूर आते और जाते वक़्त आप इस ट्रेन का लुत्फ उठा सकते हैं।

चूँकि Lamb's Rock जाने का रास्ता थोड़ा संकरा है इसलिए ज्यादातर वाहन चालक सबसे पहले वहीं जाना चाहते हैं ताकि भीड़ का सामना न करना पड़े। चाय बागानों में बीच बीच में रुकते चलते जब Lamb's Rock के पास पहुँचे तो हमारे मेहमान नवाज़ी के लिए बादलों का झुंड भी साथ हो लिया।


चाय पत्ती बनाने का कारखाना

लॉ साहब ने कुन्नूर घाट की सड़क बनाने का बीड़ा उठाया तो उनके शागिर्द कैप्टन लैंब कैसे पीछे रह जाते। उन्होंने इतने घने जंगल के अंदर से एक ऐसा रास्ता ढूंढ निकाला जो पहाड़ के एक कोने से कोयंबटूर के मैदानों और कैथरीन जलप्रपात से गिरती पानी की पतली लकीर को आपकी आंखों के सामने ला सके। लिहाजा वो चट्टान जहां से वो दृश्य दिखता था Lamb's Rock के नाम से मशहूर हुई।

चूँकि Lamb's Rock जाने का रास्ता थोड़ा संकरा है इसलिए ज्यादातर वाहन चालक सबसे पहले वहीं जाना चाहते हैं ताकि पार्किंग में होने वाली दिक्कतों का सामना न करना पड़े। चाय बागानों में बीच बीच में रुकते चलते जब Lamb's Rock के पास पहुँचे तो मेरी मेहमान-नवाज़ी के लिए बादलों का झुंड भी साथ हो लिया।

जंगल के बीच से छन कर आती धूप

आधा पौन किलोमीटर के इस रास्ते में जंगल की सघनता ऐसी है कि ऊपर चमकता सूरज भी जमीन तक पहुंचने के लिए आड़े तिरछे रास्ते ढूंढा करता है। शिखर तक पहुंचते हुए अंधेरे से उजाले और उजाले से फिर अंधेरे में वापस लौटने का ये खेल चलता रहता है।

एक ओर धूप तो दूसरी ओर छाँव

नर्म कोहरों के बीच से अपनी जगह बनाती सूर्य किरणें मुझे साहिर की लिखी इन पंक्तियों की याद दिला गई।

उफ़क़ के दरीचे से किरनों ने झांका
फ़ज़ा तन गई, रास्ते मुस्कुराये
सिमटने लगी नर्म कुहरे की चादर
जवां शाख़सारों ने घूंघट उठाये


लैंब रॉक तक जाने के दो रास्ते हैं। दोनों जंगल के बीच से जाते हैं। पर रास्ता इतना सीधा है कि आप यहाँ मौजूद गाइड की सहायता के बिना भी अपने लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं। अकेले चलता हुआ जब मैं पर पहुँचा तो एक ओर नीला आसमान पहाड़ियों के साथ दिखाई दे रहा था तो दूसरी ओर बादलों का जमावड़ा ऐसा था कि कैथरीन फाल तो दूर, बगल की तीखी ढलान भी नहीं दिख रही थी।

थोड़ी देर में ये नीला आकाश भी कोहरे के सफेद पर्दे में समा गया और मुझे मन मसोस कर वापस लौटना पड़ा। लौटते समय कोहरा इतना घना हो गया कि थोड़ी दूर पर चलने वाले बस अपनी परछाई के सदृश हो गए।

कोहरे का खेल

हमारा अगला ठिकाना डॉल्फिन नोज़ था जो Lamb's Rock से तीन किमी की दूरी पर है। चाय बागानों के बीच से गुजरता ये मनमोहक रास्ता बीच बीच में नीचे बसे कोयम्बटूर की झलक दिखला जाता है। पर जैसे जैसे हम उधर बढ़ने लगे धुंध और गहरी होती गयी। डॉल्फिन नोज़ दरअसल नीलगिरी पर्वत माला का एक नुकीला सिरा है जहाँ से नीचे घाटी और लॉ जलप्रपात का मनोरम दृश्य दिखता है। सूर्य किरणों की प्रतीक्षा में वहाँ कुछ वक्त चाय बागानों के आस पास चहलकदमी करते हुए बीता और कुछ मसालों की खरीदारी में। यहाँ मसालों सहित सोवेनियर की कई दुकानें हैं। बंदर भी यहाँ खूब हैं जो बच्चों से कुछ छीनने में ज़रा भी परहेज नहीं करते।

Lamb's Rock से Dolphin Nose तक का रास्ता

हल्का फुल्का जलपान करने के बाद जब मैं सिम पार्क पहुँचा तो मौसम एकदम साफ हो चुका था। सिम पार्क में जाने के लिए मेरे मन में खासा उत्साह था क्यूँकि मैंने सुन रखा कि वहाँ पेड़ पौधों के अलावा पक्षियों से भी मुलाकात हो सकती है। जब से पक्षियों के प्रेम में पड़ा हूं तबसे घूमते हुए वे जगहें और प्यारी लगने लगती हैं जहां इन का बसेरा हो। नई जगह जाने पर पहले उद्यानों को सबसे आख़िर में निबटाते थे पर अब आलम ये है कि वहां से जल्दी निकलने का मन नहीं करता। कब अचानक कौन सा पखेरू दर्शन दे दे।

लगभग बारह हेक्टेयर में फैला ये उद्यान एक पहाड़ी ढाल पर आज से डेढ़ सौ साल पहले अस्तित्व में आया था। तब तत्कालीन सरकार में सचिव के पद पर कार्य कर रहे जे डी सिम ने इसकी स्थापना में अपना योगदान दिया था इसीलिए ये पार्क उनके नाम से जाना जाता है। पार्क में बेहद पुराने और विविध प्रजातियों का संग्रह है। ढलान से नीचे उतरने के बाद के समतल हिस्से में बच्चों के खेलने के लिए एक पार्क और छोटी सी झील भी है।

सिम पार्क का सबसे प्राचीन पेड़ Red Gum Tree 

पार्क का एक चक्कर लगाने के बाद मैंने अपना ज्यादा समय पक्षियों को ढूँढने में बिताया। सबसे पहले मेरी मुलाकात नाचन यानी Fantail से हो गई। ये चिड़िया जब अपने पंखों को फैलाकर ठुमकती हुई चलती है तो इसके पंखों का स्वरूप लकड़ी के पंखे की तरह हो जाता है। नृत्य की इन्हीं मुद्राओं की वज़ह से इसे नाचन का नाम मिला है। नाचन के आलावा कुछ अन्य रंग बिरंगे माखीमार भी अपने जलवे बिखरते दिखे। नीलिमा और धूसर सिर वाले पीले माखीमार को देख तबियत खुश हो गयी। सुबह का समय होता तो शायद कुछ अन्य पक्षियों से भी मुलाकात का संयोग बनता। 

सिम पार्क के आकर्षण सिर्फ विविध पेड़ नहीं बल्कि उनमें रहने वाले बाशिंदे भी हैं।


जाड़े के महीने में फूलों की जितनी किस्मों को देखने की उम्मीद थी वो तो नहीं दिखे पर नीली लिली मैंने यहाँ पहली बार देखी। कुन्नूर में मैं तो एक ही दिन रह पाया पर मुझे यहाँ आकर लगा कि कम से कम यहाँ दो दिन बिताए जाने चाहिए जिसमें एक दिन यहाँ की वादियों में निरुद्देश्य भटकने के लिए हो। तो कैसी लगी आपको मेरी कुन्नूर यात्रा ? इस जगह से जुड़ा कोई प्रश्न आपके मन में हो तो यहाँ या इस ब्लॉग के फेसबुक पेज पर आप पूछ सकते हैं।

शनिवार, 10 फ़रवरी 2024

बनलता जोयपुर जंगलों के किनारे बसा फूलों का गाँव

पश्चिम बंगाल में ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे विख्यात जगह है तो वो है बिष्णुपुर। वर्षों पहले बांकुरा जिले में स्थित इस छोटे से कस्बे में जब मैं यहाँ के विख्यात टेराकोटा मंदिरों को देखने गया था तो ये जगह मुझे अपनी ख्याति के अनुरूप ही नज़र आई थी। तब बिष्णुपुर एक छोटा सा कस्बा था जहां एक मंदिर से दूसरे मंदिर तक जाने के लिए संकरी सड़कों की वज़ह से ऑटो की सवारी लेनी पड़ती थी। अब सड़कें तो अपेक्षाकृत चौड़ी हो गई हैं पर इतनी नहीं कि ऑटो को उनकी  बादशाहत से हटा सकें।

पिछले हफ्ते एक बार फिर बिष्णुपुर जाने का मौका मिला पर इस बार कुछ नया देखने की इच्छा मुझे जोयपुर के जंगलों की ओर खींच लाई। मैंने सुना था कि इन जंगलों के आस पास की ज़मीन पर फूलों के फार्म हैं जिसे एक रिसार्ट का रूप दिया गया है। नाम भी बड़ा प्यारा बनलता। तो फिर क्या था चल पड़े वहाँ जंगल और फूलों के इस मिलन बिंदु की ओर। 


बांकुड़ा वैसे तो एक कृषिप्रधान जिला है पर अपने टेराकोटा के खिलौनों, बालूचरी साड़ियों और डोकरा कला के लिए खासा जाना जाता है। बांकुरा में टेराकोटा से बने घोड़ा की पूछ तो पूरे देश में होती ही है, आस पास के जिलों में यहाँ का गमछा भी बेहद लोकप्रिय है। बांकुड़ा जिले में आम के बागान और सरसों के खेत आपको आसानी से दिख जाएँगे। चूँकि जाड़े का मौसम था तो सरसों के पीतवर्ण खेतों को देखने का मौका मिला। कुछ तो है इन सरसों के फूलों में कि लहलहाते खेतों का दृश्य मन को किसी भी मूड से निकाल कर प्रसन्नचित्त कर देता है।


बांकुड़ा और बिष्णुपुर के बीचों बीच एक जगह आती है बेलियातोड़। चित्रकला के प्रशंसकों को जानकर सुखद आश्चर्य होगा कि ये छोटा सा कस्बा एक महान कलाकार की जन्मभूमि रहा है। जी हाँ, प्रसिद्ध चित्रकार जामिनी राय का जन्म इसी बेलियातोड़ में हुआ था। वैसे आज लोग बेलियातोड़ से गुजरते वक़्त जामिनी राय का नाम तो नहीं पर लेते पर यहाँ की मलाईदार लालू चाय और ऊँट के दूध से बनने और बिकने वाली चाय का घूँट भरने के लिए अपनी गाड़ी का ब्रेक पेडल जरूर दबा देते हैं।

बेलियातोड़ से निकलते ही रास्ता सखुआ के जंगलों में समा जाता है। सड़क पतली है पर है घुमावदार। मैं तो वहाँ समय की कमी की वज़ह से नहीं उतर सका पर मन में बड़ी इच्छा थी कि जंगल के बीच चहलकदमी करते हुए जाड़े की नर्म धूप का लुत्फ़ उठाया जाए।

बेलियातोड़ वन क्षेत्र 

बिष्णुपुर शहर से जोयपुर का वन क्षेत्र करीब 15 किमी दूर है। इन वनों के एक किनारे बना है बनलता रिसार्ट जो कि रिसार्ट कम और फूलों का गाँव ज्यादा लगता है। इस रिसार्ट में पहुँचने पर जानते हैं सबसे पहला फूल हमें कौन सा दिखा? जी हाँ गोभी का फूल और वो भी नारंगी और गुलाबी गोभी का जिन्हें ज़िंदगी में मैंने पहली बार यहीं देखा।

सच पूछिए तो इनकी ये रंगत देख कर एकबारगी विश्वास ही नहीं हुआ कि इनका ये प्राकृतिक रंग है। ऐसा ही अविश्वास राजस्थान से गुजरते हुए लाल मूली को देख कर हुआ था।
बाद में पता चला कि विश्व में फूलगोभी नारंगी, सफेद, और जामुनी रंग के अलावा हल्के हरे रंग में भी आती है। नारंगी फूलगोभी मूलतः सत्तर के दशक में कनाडा में उगाई गई थी। आम सफेद फूलगोभी और इसमें मुख्य फर्क ये है कि इसमें बीटा कैरोटीन नामक पिगमेंट होता है जो इसे नारंगी रंग के साथ साथ सामान्य गोभी की तुलना में पच्चीस फीसदी अधिक विटामिन ए उपलब्ध कराता है। जामुनी गोभी का गहरा गुलाबी रंग एक एंटी ऑक्सीडेंट एंथोसाइनिन की वज़ह से आता है। इस गोभी में विटामिन C प्रचुर मात्रा में विद्यमान है।
आलू गोभी की भुजिया में नारंगी गोभी का स्वाद चखा तो लगभग सफेद गोभी जैसी पर थोड़ी कड़ी लगी। जामुनी गोभी तो खाई नहीं पर वहां पूछने पर पता चला कि उसका ज़ायक़ा हल्की मिठास लिए होता है।

एक नारंगी गोभी की कीमत चालीस रुपये

बनलता परिसर में घुसते ही बायीं तरफ एक छोटा सा जलाशय दिखता है जिसके पीछे यहां रहने की व्यवस्था है। बाकी इलाके में छोटे बड़े कई रेस्तरां हैं जो बंगाल का स्थानीय व्यंजन परोसते दिखे। पर खान पान में वो साफ सफाई नहीं दिखी जिसकी अपेक्षा थी। ख़ैर मैं तो यहां के फूलों के बाग और जंगल की सैर करने आया था तो परिसर के उस इलाके की तरफ चल पड़ा जहां भांति भांति के फूल लहलहा रहे थे।

गजानिया के फूलों से भरी क्यारी 

कुछ आम कुछ खास


ऊपर चित्र में आप कितने फूलों को पहचान पा रहे हैं। चलिए मैं आपकी मदद कर देता हूं। ऊपर सबसे बाएँ और नीचे सबसे दाहिने गज़ानिया के फूल हैं। यहां गज़ानिया की काफी किस्में दिखीं। इनमें एक किस्म ट्रेजर फ्लावर के नाम से भी जानी जाती है। फ्लेम वाइन के नारंगी फूलों को तो आप पहचान ही गए होंगे। इनकी लतरें तेजी से फैलती हैं और इस मौसम में तो मैने इन्हें पूरी छत और बाहरी दीवारों को अपने रंग में रंगते देखा है। नास्टर्टियम की भी कई प्रजातियां दिखीं।

पर जिस फूलने अपने रंग बिरंगे परिधानों में हमें साबसे ज्यादा आकर्षित किया वो था सेलोसिया प्लूमोसा। सेलोसिया का मतलब ही होता है आग की लपट। इसके लाल, मैरून नारंगी व  पीले रंगों के शंकुधारी फूलों  की रंगत ऐसा ही अहसास कराती है।   

सेलोसिया प्लूमोसा (Silver Cockscomb)


अब जहां फूल होंगे वहां तितलियां तो मंडराएंगी ही:) चित्र में दिख रही है निंबुई तितली (Lime  Butterfly )


गुलाबी और नारंगी फूलगोभी की खेती यहां का विशेष आकर्षण है।

नास्टर्टियम  और स्नैपड्रैगन 



गजानिया

पुष्पों से मुलाकात के बाद मैंने जोयपुर के जंगलों का रुख किया। दरअसल बनलता जोयपुर वन क्षेत्र के एक किनारे पर बसा हुआ है। विष्णुपुर की ओर जाती मुख्य सड़क के दोनों और सखुआ के घने जंगल हैं। मुख्य सड़क के दोनों और कई स्थानों पर हाथियों और हिरणों के आने-जाने के लिए पगडंडियां बनी हैं। थोड़ा समय हाथ में था तो मैं अकेले ही जंगल की ओर बढ़ चला। थोड़ी दूर पर जंगल के अंदर जाती एक कच्ची सड़क दिखी। 

जोयपुर के जंगल और बनलता रिसार्ट

मुझे लगा के इस रास्ते को थोड़ा एक्सप्लोर करना चाहिए पर जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया वैसे-वैसे वनों की सघनता बढ़ती गई और फिर रह रह के पत्तों से आई सरसराहट से मेरी हिम्मत जवाब देने लगी।  मुझे ये भान हो गया कि यहां छोटे ही सही पर जंगली जीव कभी भी सामने आ सकते हैं

जोयपुर जंगल की कुछ तस्वीरें

साथ में कोई था नहीं तो मैंने वापस लौटना श्रेयस्कर समझा। वैसे दो-तीन लोग इकट्ठे हों तो सखुआ के जंगलों से गुजरना आपके मन को सुकून और अनजाने इलाकों से गुजरने के रोमांच से भर देगा। 

इस इलाके के जंगलों के सरताज गजराज हैं। वर्षों से इस इलाके में उनके विचरण और  शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का ही प्रमाण है कि पेड़ों के नीचे स्थानीय निवासियों द्वारा बनाई गई मूर्तियां रखी दिखाई दीं। उनके मस्तक पर लगे तिलक से ये स्पष्ट था कि यहां उनकी विधिवत पूजा की जाती है। गजराज हर जगह अकेले नहीं बल्कि अपनी पूरी सेना के साथ तैयार दिखे।

यहाँ जंगल का राजा शेर नहीं बल्कि हाथी है

जोयपुर के जंगल से लौटते हुए कुछ वक्त बिष्णुपुर के रासमंच में बीता। रासमंंच सहित बिष्णुपुर के अन्य प्रसिद्ध मंदिरों की यात्रा यहां आपको पहले ही करा चुका हूं। वैसे इस क्षेत्र में अगर दो तीन दिन के लिए आना हो तो आप मुकुटमणिपुर पर बने बांध और बिहारीनाथ  की  पहाड़ियों पर स्थित शिव मंदिर का दर्शन भी कर सकते हैं।


बिष्णुपुर की पहचान रासमंच

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रविवार, 3 दिसंबर 2023

सीता जलप्रपात राँची का अनसुना पर खूबसूरत जलप्रपात Sita Falls, Ranchi

रांची को जलप्रपातों का शहर कहा जाता है। हुंडरू, दशम, जोन्हा, पंचघाघ, हिरणी और सीता जैसे ढेर सारे छोटे बड़े झरने बरसात के बाद अगले वसंत तक अपनी रवानी में बहते हैं यहां। पर बरसात के मौसम के तुरंत बाद यानी सितंबर और अक्टूबर के महीने में इन्हें देखने का आनंद ही कुछ और है। यही वो समय होता है जब झरनों में पानी का वेग और जंगल की हरियाली दोनों ही अपने चरम पर होती है।

रांची के सबसे लोकप्रिय जलप्रपातों में सबसे पहले हुंडरू, दशम और जोन्हा का ही नाम आता है। इसकी एक वज़ह ये भी है कि इन जगहों पर आप पानी के बिल्कुल करीब पहुंच सकते हैं।  मैं इन सभी झरनों तक कई बार जा चुका हूं पर जोन्हा के पास स्थित सीता जलप्रपात तक मैं आज तक नहीं गया था। सीता फॉल रांची से करीब 45 किमी की दूरी पर रांची पुरुलिया मार्ग पर स्थित है। 

सीता जलप्रपात का विहंगम दृश्य



जलप्रपात का ऊपरी हिस्सा

एक ज़माना था जब रांची से बाहर निकलते ही रास्ते के दोनों ओर की हरियाली मन मोह लेती थी पर बढ़ते शहरीकरण के कारण अब वो सुकून नामकुम और टाटीसिल्वे के ट्रैफिक को पार करने के बाद ही नसीब होता है।

सखुआ के जंगलों के बीच जलप्रपात की ओर जाती सीढियाँ 

मैं जब वहां पहुंचा तो टिकट संग्रहकर्ता और गार्ड के अलावा वहां कोई नहीं था। हमारे आने के बाद तीन चार परिवार वहां जरूर नज़र आए। फॉल के नजदीक तक पहुंचने के लिए 200 से थोड़ी ज्यादा सीढियां हैं। जंगल के बीचो बीच जाती इन सीढ़ियों के दोनों ओर साल के ऊंचे ऊंचे वृक्ष सूर्य किरणों का सबसे पहले स्वागत करने के लिए प्रतिस्पर्धा में रहते हैं।

जलप्रपात की पहली झलक

पहले वो जगह थोड़ी सुनसान थी। नीचे तक सीढियाँ ढंग से बनी नहीं थीं इसलिए वहां लोग जाना कम पसंद करते थे। लेकिन अब  वहां पार्किंग के साथ नीचे जाने का रास्ता भी बेहतरीन हो गया है। हां ये जरूर है कि यहां झरने के बिल्कुल पास पहुंचने के लिए आपको चट्टानों के ऊपर से चढ़ कर जाने की मशक्कत जरूर करनी पड़ेगी। वैसे अगर मौसम बारिश का हो तो ऐसा बिल्कुल मत कीजिएगा क्योंकि तब चट्टानों पर फिसलन ज्यादा ही हो जाती है।


रामायण और महाभारत की कहानियों से हमारे देश में सैकड़ों पर्यटन स्थलों को जोड़ा जाता है। सीता जलप्रपात भी इसी कोटि में आता है। कहा जाता है कि वनवास के समय भगवान राम सीता जी के साथ जब इस इलाके में आए तो उनकी रसोई के लिए इसी झतने का जल इस्तेमाल होता था। इस जलप्रपात को जाते रास्ते में लगभग एक किमी पहले सड़क के दाहिनी ओर एक बेहद छोटा सा मंदिर है। इस मंदिर में माँ सीता के पदचिन्हों को सुरक्षित रखा गया है।


कम सीढियाँ होने की वज़ह से आप यहाँ परिवार के वरीय सदस्यों के साथ भी आ सकते हैं। तीन चौथाई सीढियाँ पार कर ही पूरे जलप्रपात की झलक मिल जाती है। यहाँ बनाई सीढियाँ  भी चौड़ी और उतरने में आरामदायक हैं। हाँ जोन्हा या हुँडरू की तरह यहाँ जलपान की कोई व्यवस्था नहीं है। ऐसा इसलिए भी है कि यहाँ लोगों की आवाजाही राँची के अन्य जलप्रपातों की तुलना में काफी कम है।

जलप्रपात से बदती जलधारा जो आगे जाकर राढू नदी में मिल जाती है।

सीता जलप्रपात राढू नदी की सहायक जलधारा पर स्थित है इसलिए यहाँ पानी का पूरा प्रवाह बरसात और उसके बाद के दो तीन महीनों में ही पूर्ण रूप से बना रहता है। इसलिए यहाँ अगस्त से नवंबर के बीच आना सबसे श्रेयस्कर है। बरसात के दिनों में जल प्रवाह के साथ चारों ओर फैली हरियाली भी मंत्रमुग्ध कर देगी। सीता जलप्रपात के पाँच किमी पहले ही जोन्हा का भी जलप्रपात है। इसलिए जब भी यहाँ आएँ पहले इस झरने के दर्शन कर के ही जोन्हा की ओर रुख करें क्योंकि जोन्हा उतरना चढ़ना थोड़ा थकान भरा है। 

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सोमवार, 5 जून 2023

मंदासरू : ओडिशा की शांत घाटी Silent Valley of Odisha

चलिए आज मैं आपको ले चलता हूँ मंदासरू जिसे Silent Valley of Odisha के नाम से भी जाना जाता है। मंदासुरू में मंदा का अर्थ चट्टान और सरु का तात्पर्य पतले होता हुए रास्ते से है। यानी मंदासरू एक ऐसी संकरी घाटी है जिसके दोनों किनारे साथ चलने वाले पर्वत कभी कभी इतने पास आ जाते हैं मानो एक दूसरे से गले मिलना चाहते हों। मंदासरू भारत के 15 जैवविविधता के विशिष्ट क्षेत्रों में से एक है पर सदाबहार और पर्णपाती वनों की इस मिश्रित विरासत को महसूस करने के लिए आपको यहाँ के जंगलों में विचरण करना होगा। यहाँ के बदलते मौसम की थाह लेनी होगी। तभी आप ओडिशा की शांत घाटी का मर्म समझ पाएँगे।


ख़ैर अगर उतना समय आपके पास ना भी हो तो दारिंगबाड़ी से मंदासरू की ओर जाने वाला पैंतीस किमी का रास्ता आपका मन हर लेगा। राजमार्ग से हटते ही आपको ओडिशा के कंधमाल जिले में स्थित इस सुरम्य घाटी की प्राकृतिक सुंदरता के साथ साथ यहाँ के ग्राम्य जीवन की झलक मिल जाएगी।




साल के घने जंगल 

स्कूल जाते बच्चे, खेतों में जुताई करते किसान, हर घर के आँगन में बँधे मवेशी, खेतों खलिहानों के पीछे चलती पूर्वी घाट की हरी भरी पहाड़ियाँ और बीच बीच में आते साल के घने जंगल आपकी आँखों को तृप्त करते रहेंगे।
ग्रामीण इलाकों की कुछ झलकियाँ

धान के आलावा यहाँ सब्जियों की खेती भी व्यापक पैमाने पर दिखी


आँखों के सामने इन बदलते प्यारे दृश्यों को देखने में मशगूल हम सब गूगल के बताए मार्ग पर अग्रसर थे। जब मंदासरू की दूरी दस किमी से कम रह गयी तो गूगल ने दायीं ओर की पहाड़ी पर जाने का आदेश दिया। वो रास्ता नया नया बना था और सीधे चढ़ाई की ओर ले जा रहा था। गाड़ी उधर मोड़ते ही पीछे से किसी के उड़िया में बुलाने का स्वर सुनाई दिया। हम उस पुकार को अनसुना कर इस रोमांचक रास्ते के घुमावदार मोड़ों को आनंद लेने लगे। अभी आधी चढ़ाई ही चढ़े होंगे कि गूगल की बहन जी ने उद्घोषणा की कि Your destination has arrived😇

अब उस सुनसान जंगल में शांति तो बहुत थी पर कोई गहरी घाटी दूर दूर तक नज़र नहीं आ रही थी। फोन में सिग्नल आना भी बंद हो चुका था इसलिए बहनजी ने चुप्पी साध ली थी। हम लोगों ने सोचा कि जब इतने ऊपर आ गए हैं तो थोड़ा और ऊपर तक बढ़ें ताकि घाटी का कोई नज़ारा तो मिले। आगे थोड़ी दूर पर उतरे तो कुछ देर बाद सामने से आते हुए एक सज्जन ने हमें बताया कि ये रास्ता तो पहाड़ के दूसरी तरफ बसे गाँव की ओर जाता है। आप लोग मंदासरू का रास्ता तो नीचे ही छोड़ आए हैं।



लौटते वक्त मोड़ पर वही व्यक्ति फिर मिला जिसने हमें पुकार लगाई थी। उसने बताया कि गूगल यहाँ आकर हमेशा लोगों को गुमराह कर देता है इसलिए हम आगाह कर देते हैं पर आप लोग तो रुके ही नहीं। ख़ैर मंदासरू की गहरी घाटी तक पहुँचाने वाले रास्ता वहाँ से ज्यादा दूर नहीं था। पर गूगल की गलतबयानी हमें एक अनजान मगर सुंदर रास्ते से रूबरू करा गयी।


मंदासरू नेचर कैंप के अंदर प्रकृति के सामीप्य में ठहरने और खाने पीने की व्यवस्था है। नेचर कैंप के रखरखाव और चलाने की जिम्मेदारी यहाँ की स्थानीय महिलाओं को सौंपी गयी है। यहाँ से आस पास के जंगलों में आप गाइड की सहायता से ट्रेक भी कर सकते हैं। नेचर कैंप में प्रवेश लेने का एक मामूली सा टिकट है। कैंप के अंदर बने व्यू प्वाइंट से आप ओडिशा की  इस शांत घाटी का मनमोहक नज़ारा देख सकते हैं।  प्रकृति के साथ इस सुकून भरी शांति को खलल देने के लिए सिर्फ दो ही आवाज़े हैं जो इस नीरवता के बीच मन में  मधुर सा भाव भरती हैं। सुबह में चिड़ियों का कलरव या फिर संकरी घाटी में बहती जलधारा की कलकलाहट।

नेचर कैंप से ठीक पहले बाएँ जाते रास्ते पर कुछ दूरी पर मंदासरू जलप्रपात है जहाँ तक जाने का रास्ता भी एक छोटे मोटे ट्रैक से कम नहीं है। मतलब ये कि आगर आपके पास समय हो और आप प्रकृति प्रेमी हों तो मंदासरू में एक या दो रातें मजे से गुजार सकते हैं।



मंदासरू की Silent Valley

झरनों की कमी तो दारिंगबाड़ी में भी नहीं है। पर इनमें से ज्यादातर छोटे-छोटे झरने हैं जिन तक पहुंचने के लिए आपको रोमांचकारी छोटी-मोटी ट्रैकिंग करनी पड़ेगी। मिदुबंदा और पांगली घाटी का रेनबो झरना ऐसे ही झरनों में है। समय के आभाव में मिदुबंदा तो हम नहीं गए पर रेनबो फाल तक की रोमांचक यात्रा हमने की।
जंगलों के अंदर से गुजरती जल राशियों के पास पहुंचने के लिए आपको यहां के स्थानीय आदिवासियों से बड़ी सहजता से मदद मिल जाती है। घुमावदार ऊंचे नीचे रास्तों के बीच लताओं को काटते हुए उन्होंने एक दुबला पतला रास्ता भी बना रखा था यहां के रेनबो फॉल तक पहुंचने का।

पांगली घाटी और रेनबो फॉल 

दारिंगबाड़ी में यूं तो देखने को कई उद्यान हैं: कॉफी गार्डन, नेचर पार्क, एमू पार्क और हिल व्यू पार्क पर समय की कमी की वज़ह से हम सिर्फ हिल व्यू और कॉफी गार्डन में ही जा सके। इनमें हिल व्यू का View सबसे शानदार लगा। मुख्य शहर से मात्र दो किमी दूर ये वाटिका यहीं के प्रकृति उद्यान के बराबर बनी हुई है। इसके view point तक पहुंचने के लिए पैरों को ज्यादा मशक्कत भी नहीं करनी पड़ती।
यहां से एक ओर तो पूर्वी घाट की पहाड़ियों का सुंदर नज़ारा मिलता है तो दूसरी ओर चीड़ के जंगल एकदम से हाथ थाम लेते हैं। भारत में चीड़ के जंगल 900 से 1500 मीटर की ऊंचाई के बीच अक्सर दिख जाते हैं। वैसे तो दारिंगबाड़ी भी समुद्र तल से 915 मीटर की ऊंचाई पर है पर मुझे यहां इस तरह के जंगल दिखने की उम्मीद न थी। इससे पहले नेतरहाट जो कि छोटानागपुर के पठारों की शान है, में ऐसे ही जंगलों से मुलाकात हुई थी पर वो इससे कहीं ज्यादा ऊंचाई पर स्थित है।
दूर तक फैले हुए चीड़ के पेड़ों पर नज़र जमाई ही थी कि जंगलों में सफेद काली आकृति हिलती दिखाई दी । कैमरे से फोकस किया तो समझ आया कि ये तो काले मुंह वाले लंगूर महाशय हैं जो चीड़ की पत्तियों का स्वाद ले रहे हैं।
पहाड़ियों की शृंखला के ऊपर हल्के फुल्के बादल धूप छांव का खेल खेल रहे थे जो आंखों को तृप्त किए दे रहा था। पार्क में ज्यादा लोग नहीं थे न ही दिसंबर लायक ठंड थी। कुछ कन्याएं जरूर एक फोटोग्राफर के साथ पहुंची थीं जो तरह तरह की मुद्राओं में बारी बारी से उनकी फोटो लेते हुए ज़रा भी उकता नहीं रहा था।
वहीं की कुछ तस्वीरें


दारिंगबाड़ी में कॉफी के पौधों का एक उद्यान भी है जहाँ आप कॉफी के साथ साथ काली मिर्च की लताओं से भी उलझ सकते हैं। मुन्नार में ये सब मैं पहले ही देख चुका था पर दारिंगबाड़ी जैसी कम ऊँची जगह में इतना बड़े क्षेत्र में फैले इस बगीचे को देख आश्चर्य जरूर हुआ।


दारिंगबाड़ी का प्रचार ओडिशा के कश्मीर की तरह किया जाता है। एक  ज़माने में यहाँ बर्फबारी भी होती थी। पर हजार मीटर से कम ऊँचे इस हिल स्टेशन में कश्मीर जैसी आबो हवा समझ कर आने की भूल ना करें। दिसंबर के महीने में भी यहाँ हमें तो सामान्य सी ठंड ही महसूस हुई। कम प्रचलित होने की वज़ह से इस पहाड़ी स्थल का नैसर्गिक सौंदर्य अभी भी अछूता है। अगर आप गन्तव्य से ज्यादा रास्ते की सुंदरता पर ध्यान देते हैं तो ये जगह आपको बिल्कुल निराश नहीं करेगी। सप्ताहांत में जब भी यहाँ आए दो दिन रुकने का कार्यक्रम अवश्य बनाएँ।  

आप यहाँ ब्रह्मपुर रेलवे स्टेशन से टैक्सी या बस की यात्रा कर बड़े आराम से पहुँच सकते हैं या फिर हमारी तरह संबलपुर होते हुए सड़क के रास्ते यहाँ पहुँच सकते हैं। एक दिन मंदासरू और उसके आसपास वाले इलाके में तो दूसरा दिन दारिंगबाड़ी से पांगली घाटी होते हुए मधुवंदा तक। 

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