दुर्गापुर मेरे लिए कोई नया शहर नहीं है। पिछले दो दशकों में यहाँ दर्जनों बार काम के सिलसिले में आना जाना हुआ है। शहर का केंद्र यहाँ का सिटी सेंटर है जिसके आस पास इस शहर के सबसे बेहतरीन होटल हैं और यही जगह हमारे रहने का अड्डा हुआ करती है। शहर के कल कारखानों के साथ जबसे यहाँ इंजीनियरिंग, मेडिकल व होटल मैंनेंजमेंट के कॉलेज खुले हैं तबसे ये इलाका काफी विकसित हुआ है।
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चतुरंग और चाँद |
वैसे दिल्ली से हावड़ा को जाती ग्रैंड ट्रंक रोड के किनारे बसा दुर्गापुर एक छोटा सा ही शहर है । रोड के एक ओर तो इस्पात के दो संयंत्र है तो दूसरी तरफ बेनाचिट्टी, भिरंगी, सिटी सेंटर और विधान नगर के इलाक़े हैं । इन बीस सालों में इस शांत से शहर की काया बिल्कुल बदल गयी है और आज कोलकाता की भीड़ भाड़ से दूर ये बंगाल में रहने के लिए एक वैकल्पिक शहर के रूप में उभर रहा है।
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विधान नगर का एक पंडाल जहाँ बारिश की वज़ह से पसरा था सन्नाटा |
कोलकाता की दुर्गा पूजा तो मैं पहले देख चुका था तो इस बार मैंने सोचा
कि क्यूँ ना पूजा की छुट्टियों में दुर्गापुर की पूजा भी देख ली जाए और साथ
ही यहाँ के विश्वप्रसिद्ध शैक्षणिक केंद्र शांतिनिकेतन के भी दर्शन कर लिए
जाएँ। नवमी के लिए जब मैं राँची से दुर्गापुर की ओर निकला तो रास्ते में
पता चला कि दुर्गापुर में तो फिलहाल भारी बारिश हो रही है।
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दुर्गापूर का मशहूर सेन्टोज क्लब |
छः
घंटे के सफ़र के बाद शाम जब मैं अपने परिवार के साथ दुर्गापुर पहुँचा तो बारिश थम चुकी थी पर
शहर दो दिन की लगातार बारिश से पूरी तरह नहाया हुआ था। भोजन के पश्चात
हमारा कुनबा पंडाल परिक्रमा के लिए विधान नगर के रिहाइशी इलाके में निकला।
अलग अलग सेक्टर में बँटे विधाननगर का सबसे मशहूर पंडाल
सेन्टोज क्लब और
सेक्टर 2C में लगता है।
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सेन्टोज क्लब में रंगों की अद्भुत छटा। |
दुर्गापुर के कुछ क्लबों के नाम सुनकर ऍसा लगेगा कि आप इटली या स्पेन में विचरण कर रहे हैं। अब सेन्टोस क्लब हो या मारकोनी ये दोनों ही अपने पूजा पंडालों के लिए खासे चर्चित रहे हैं। वैसे इन क्लबों से जुड़े जिन मैदानों में यहाँ के पंडाल सजते हैं वहाँ सारे साल खेल कूद की गतिविधियाँ ज़ारी रहती हैं। बंगाल के लोग जिस तरह फुटबाल के दीवाने हैं मुझे तो लगता है ये नाम यूरोपीय फुटबॉल खिलाड़ियों से ही प्रेरित होंगे।
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पंडाल के अंदर दीवार की सजावट |
सेन्टोज क्लब का मैदान बारिश की वज़ह से कीचड़ से पूर्णतः लथपथ हो चुका था। पर यहाँ श्रद्धालु बारिश छूटते ही उमड़ने लगे थे। दुर्गा पूजा का ही समय बंगाल में साहित्य और संगीत के सृजन का भी होता है। बंगाल के नए पुराने उपन्यासों में इस बात का हमेशा उल्लेख होता रहा कि पूजा के समय विभिन्न पत्र पत्रिकाओं के वृहतर विशेषांकों का पाठक बेसब्री से इंतज़ार किया करते थे। वहीं संगीत निर्देशक अपनी साल भर की धुनों को सँजो कर इसी अवसर पर अपने एलबम रिलीज़ करते थे। अब ये होता है या नहीं ये तो मेरे बंगाल के मित्र ही बताएँगे पर एक बात मैंने देखी कि पंडाल में हर जगह जो संगीत बज रहा था उसमें पुरानी आवाजों और संगीत की सुगंध थी जो पूजा के माहौल में खूब फब रही थी।
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मुख्य पंडाल के अंदर का मोहक झाड़फानूस |
सेन्टोस के पंडाल से थोड़ी ही दूर में बिधाननगर के सेक्टर 2 C का पंडाल था जो माँ दुर्गा को जहाज की यात्रा करा रहा था।
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बिधाननगर के सेक्टर 2 C का पंडाल |
रात के बारह बजने वाले थे। अब तक जो भीड़ मिली थी वो बारिश की वज़ह से अपेक्षाकृत कम थी। हमें ऍसा लगा कि यही अच्छा समय रहेगा दुर्गापुर के तीन प्रमुख पूजा पंडालों में से एक फुलझोड़ को देखने का। फुलझोड़ की स्थिति दुर्गापुर के बिधाननगर व सिटी सेंटर के बीच की है। हमारी आशाओं पर तब पानी फिर गया जब पंडाल के आधा किमी पहले से ही गाड़ियों का ऐसा जाम मिला कि हमें पैदल उतरकर पंडाल का रुख करना पड़ा। पंडाल के पास पहुँचे तो देखा कि भीड़ एक रेले की तरह आगे बढ़ रही है। दो सौ मीटर लंबे इस रेले में एक बार गर घुस गए तो बीच से बाहर निकलना नामुमकिन था।
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दुर्गा माता के मंडप की शोभा बढ़ा रहा था ये दैत्याकार चेहरा |
साथ आए कुछ लोगों की हिम्मत जवाब दे गयी पर मैंने कहा जब इतनी दूर चल कर आए
हैं तो थोड़ी देर इस भीड़ में भी पिस लेते हैं। शुरु के कुछ मिनट राम राम
करते गुजरे क्यूँकि भीड़ इतनी थी कि जरा सा भी गड़बड़ होने से भगदड़ मचने के
पूरे आसार थे। जहाँ हम भय से मन में राम राम कह रहे थे वहीं जनता अति उत्साह में जय श्री राम के नारे लगा रही थी। बहरहाल पंडाल के मुख्य द्वार तक पहुँच कर हमारी जान में जान
आई।
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जानवरों के सिर, पारंपरिक हथियारों और मुखौटों से सजी थी दीवारें |
पंडाल को देखकर ऐसा लगा कि मैं वापस अपने राज्य झारखंड पहुँच गया हूँ। पंडाल की थीम झारखंड की आदिवासी जनजाति संथालों की जीवन शैली पर आधारित थी। झारखंड का संथाल परगना जिला संथालों का गढ़ है। बंगाल की सीमा इस जिले से सटी हुई है और बंगाल के वीरभूमि जिले में भी संथाली संस्कृति की छाप स्पष्ट देखी जा सकती है।
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पंडाल की बाहरी हिस्सा |
पंडाल की बाहरी दीवारों पर आदिवासी योद्धाओं और उनके पर्व त्योहारों का चित्रण था, जबकि अंदर पत्थरों पर उकेरी जाने वाली चित्रकला के नमूने दीवारों पर सजाए गए थे। सरहुल और करम जैसे अदिवासी उत्सवों में सामूहिक नृत्यों का अत्याधिक महत्त्व है। ऐसा ही एक नृत्य माता की प्रतिमा के सामने भी चल रहा था जिससे पंडाल की आंचलिक गरिमा निखर कर आ रही थी।
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आदिवासी नवयुवतियों का सामूहिक नृत्य |
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फुलझोड़ की दुर्गा ! |
फुलझोड़ से लौटते हुए रात के दो बज गए तो पहले दिन की परिक्रमा को हमने यहीं विश्राम दिया। रात की भीड़ का अनुभव देखते हुए बेनाचिट्टी में अग्रणी पूजा समिति के पंडाल को हमने दिन में देखना श्रेयस्कर समझा। बेनाचिट्टी शहर के उन पुराने इलाकों में है जो कभी पुराने दुर्गापुर के बाजार और व्यवसायिक गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था। इस बार यहाँ बाहुबली का जलवा था।
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बेनाचिट्टी में थी बाहुबली की धूम |
पिछले साल इस फिल्म की सफलता में एक बड़ा हाथ इसके भव्य सेटों का था। जनता
जनार्दन के मन में महाष्मिति राज्य का वैभव इस क़दर बस गया कि कारीगरों के
माध्यम से वो पंडालों में उतर आया। क्या कोलकाता, क्या बोकारो और क्या
दुर्गापुर, हर जगह इस साल बाहुबली के पंडालों की धूम थी।
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महिष्मति के साम्राज्य का वैभव निहारती जनता |
बेनाचिट्टी के चौराहे से करीब दो से तीन किमी लोग चल कर यहाँ पहुँच रहे थे। इस विशाल पंडाल में दिन के समय भी लोगों का ताँता लगा हुआ था। पंडाल का मुख्य द्वार अपेक्षाकृत संकरा था। इसलिए वहाँ से आगे बढ़ने कि लिए बिना धक्का मुक्की गुजारा नहीं था। पंडाल का आंतरिक बाहरी स्वरूप की तुलना में फीका था।
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बाहुबली के रथ के घोड़े |
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महिष्मति का मुख्य द्वार |
बेनाचट्टी से हम पहुँचे सिटी सेंटर के इलाके में जिसका शुरुवात में मैंने आपसे जिक्र किया था। ये दुर्गापुर का सबसे विकसित इलाका है जहाँ बिग बाजार से लेकर जंक्शन मॉल तक हर बड़े ब्रांड की दुकानें, होटल और मल्टीप्लेक्स हैं। मेरा आना जाना इस इलाके में होता रहा है इसलिए कभी कभी पहले भी यहाँ के पंडालों की झलक मैंने देखी है।
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मैंने तो पहली बार देखा सिटी सेंटर में घड़ी की शक़्ल का पंडाल ! |
पर दुर्गापुर के सारे पंडालों में सबसे बेहतरीन लगा मुझे सिटी सेंटर के पास स्थिय चतुरंग मैदान का पंडाल। यहाँ पर मिश्र के एक मंदिर की परिकल्पना बनाई गयी थी। मिट्टी के रंग की दीवारों पर जो आकृतियाँ उभारी गयी थीं वो बिल्कुल प्राचीन मिश्र की नील घाटी की सभ्यता में पाए अवशेषों के अनुरूप थीं।
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चतुरंग में था प्राचीन मिश्र की सभ्यता का रंग |
मटमैले पंडाल में रंग भरने के लिए कैनवास पर शोख रंगों में चित्र बनाए गए थे जो मिस्र की संस्कृति का परिचय तो दे ही रहे थे साथ ही साथ पंडाल के हल्के रंग के बीच खूब खिल रहे थे।
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दीवारों की साज सज्जा |
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रोशनी में नहाया हुआ मिश्र का मंदिर |
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माता का मनमोहक रूप |
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ऊपर चाँदनी रात थी और नीचे रंगों की ये आभा |
सच चतुरंग की इस कलात्मकता ने मुझे तो दंग कर दिया। वैसे आपको कैसी लगी दुर्गापुर की पंडाल परिक्रमा। इस साल की ये परिक्रमा तो यहीं समाप्त होती है। आगले साल फिर हाज़िर होंगे कि कारीगरों के हुनर को आप सब के सामने प्रस्तुत करने।
जियो रे बाहुबली मजा आ गया
जवाब देंहटाएंहा हा शुक्रिया जय महिष्मिति !
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (15-10-2017) को
जवाब देंहटाएं"मिट्टी के ही दिये जलाना" (चर्चा अंक 2758)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हार्दिक आभार !
हटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, दुर्गा भाभी की १८ वीं पुण्यतिथि “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंशुक्रिया !
हटाएंमिस्र की झांकी विशेष पसन्द आयी..बाकी तस्वीरें भी बेहतरीन हैं।
जवाब देंहटाएंमुझे भी सबसे सुंदर चतुरंग का पंडाल लगा। फुलझोड़ में भीड़ की वज़ह से ढंग से तस्वीरें लेना मुश्किल था।
हटाएंबेहतरीन पंडाल घुमक्कड़ी आजकल थीम झांकी का हर त्योहार में एक विशेष महत्व सा हो गया है....
जवाब देंहटाएंबंगाल और उसे सटे इलाकों में दुर्गा पूजा के साथ पंडाल की कलाकारी दशकों से चलती आ रही है। धीरे धीरे अन्य उत्सवो जैसे गणेश उत्सव में भी ये प्रवृति देखने को मिल रही है।
हटाएंमहिष्मती का ये पाँडाल है या महल या मन्दिर? जिसके आगे भीड़ इक्कठी हो र खी है। ये नजारा ऐसा लग रहा है जैसे प्रातःकालीन या सांयकालीन सा।
जवाब देंहटाएंये सारे चित्र पंडाल के ही हैं. समय शाम का है.
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