बिष्णुपुर को सिर्फ मंदिरों का शहर ना समझ लीजिएगा। मंदिरों के आलावा बिष्णुपुर कला और संस्कृति के तीन अन्य पहलुओं के लिए भी चर्चित रहा है। पहले बात यहाँ की धरती पर पोषित पल्लवित हुए संगीत की। बिष्णुपुर की धरती पर कदम रख कर अगर आपने यहाँ के मशहूर बिष्णुपुर घराने के गायकों को नहीं सुना तो यहाँ के
सांस्कृतिक जीवन की अनमोल विरासत से आप अछूते रह जाएँगे। बिष्णुपुर घराना पश्चिम बंगाल में हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ध्रुपद गायन शैली का गढ़ रहा है। ये मेरा सौभाग्य था कि जिस दिन मैं बिष्णुपुर पहुँचा उस वक्त वहाँ के वार्षिक मेले में स्थानीय प्रशासन की ओर से इलाके के कुछ होनहार संगीतज्ञों को अपनी प्रस्तुति के लिए बुलाया गया था। दिन के भोजन के पश्चात यहाँ के संग्रहालय को देखते हुए मैं इस मेले तक जा पहुँचा।
छोटे से भोले भाले गणेश जी |
मेले में चहल पहल तो पाँच बजे के बाद ही शुरु हुई। मैदान की एक ओर एक स्टेज बना हुआ था जिसके सामने ज़मीन पर जनता जनार्दन के बैठने के लिए दरी बिछाई गयी थी। दिसंबर के आखिरी हफ्ते की हल्की ठंड के बीच पहले पकौड़ों के साथ चाय की तलब शांत की गयी और फिर पालथी मार मैं वहीं दरी पर आसीन हो गया। शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रमों में वैसे भी भीड़ ज्यादा नहीं होती। यहाँ भी नहीं थी पर युवा कलाकारों को अपने साज़ के साथ शास्त्रीय संगीत के सुरों को साधने का प्रयास ये साबित कर गया कि यहाँ की प्राचीन परंपरा आज के प्रतिकूल माहौल में भी फल फूल रही है।
पर संगीत की ये परंपरा यहाँ पनपी कैसे? मल्ल नरेशों ने टेराकोटा से जुड़ी
शैली को विकसित करने के साथ साथ कला के दूसरे आयामों को भी काफी
प्रश्रय दिया। इनमें संगीत भी एक था। ऍसा कहा जाता है कि बिष्णुपुर घराने की नींव तेरहवीं
शताब्दी में पड़ी पर इसका कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं हैं। इतिहासकारों ने
इस बात का उल्लेख जरूर किया है कि औरंगजेब के ज़माने में जब कलाकारों पर
सम्राट की तिरछी निगाहें पड़ीं तो उन्होंने आस पास के सूबों में जाकर शरण
ली। तानसेन के खानदान से जुड़े ध्रुपद गायक और वादक बहादुर खान भी ऐसे
संगीतज्ञों में एक थे। उन्होंने तब बिष्णुपुर के राजा
रघुनाथ सिंह द्वितीय के दरबार में शरण ली। उनकी ही शागिर्दी में बिष्णुपुर
घराना अपने अस्तित्व में आया।
संगीत का आनंद लेने के बाद यहाँ के हस्तशिल्प
कलाकारों की टोह लेने का मन हो आया। बिष्णुपुर के मंदिरों के बाद अगर किसी
बात के लिए ये शहर जाना जाता है तो वो है बांकुरा का घोड़ा। ये घोड़ा बांकुरा
जिले का ही नहीं पर समूचे पश्चिम बंगाल के प्रतीक के रूप में विख्यात है।
बंगाल या झारखंड में शायद ही किसी बंगाली का घर हो जिसे आप घोड़ों के इन
जोड़ों से अलग पाएँगे। हालांकि विगत कुछ दशकों में ये पहचान अपनी चमक खोती
जा रही है। एक समय टेराकोटा से बने इन घोड़ों का पूजा में भी प्रयोग होता था
पर अब ये ड्राइंगरूम की शोभा बढ़ाने का सामान भर रह गए हैं।
नारंगी और भूरे रंग में रँगे ये घोड़े यहाँ कुछ इंचों से होते हुए तीन चार फुट तक की ऊँचाई में मिलते हैं। अपने मुलायम भावों और सुराहीदार गर्दन लिए ये बाजार में हर जगह आपको टकटकी लगाए हुए दिख जाएँगे। इनकी बटननुमा आँखों को देखते देखते इनके सम्मोहन से बचे रहना आसान नहीं होता।
नारंगी और भूरे रंग में रँगे ये घोड़े यहाँ कुछ इंचों से होते हुए तीन चार फुट तक की ऊँचाई में मिलते हैं। अपने मुलायम भावों और सुराहीदार गर्दन लिए ये बाजार में हर जगह आपको टकटकी लगाए हुए दिख जाएँगे। इनकी बटननुमा आँखों को देखते देखते इनके सम्मोहन से बचे रहना आसान नहीं होता।
थोड़ी सी मिट्टी गढ़ती कितने सजीले रूप ! |
टेराकोटा यानी पक्की हुई मिट्टी से खिलौने बनाने की ये कला बिष्णुपुर और
बांकुरा के आस पास के गाँवों में फैली पड़ी है। अगर समय रहे तो आप इन
खिलौंनों को पास के गाँवों में जाकर स्वयम् देख सकते हैं। घोड़ों के आलावा
टेराकोटा से गढ़े गणेश, पढ़ाई करती स्त्री, ढाक बजाते प्रौढ़, घर का काम करती
महिलाएँ आपको इन हस्तशिल्प की दुकानों से जगह जगह झाँकती मिल जाएँगी। मेले
में ग्रामीण इलाकों से आए इन शिल्पियों से इन कलाकृतियों को खरीद कर बड़ा
संतोष हुआ। इनकी कीमत भी आकार के हिसाब पचास से डेढ़ सौ के बीच ही दिखी जो
की बेहद वाज़िब लगी।
टेराकोटा की इन कलाकृतियों में एक बात गौर करने लायक थी। वो ये कि यहाँ के शिल्पी मानव शरीर को आकृति देते समय हाथ व पैर पतले तो बनाते हैं पर साथ ही इनकी लंबाई भी कुछ ज्यादा रखते हैं ।
यूँ तो शंख का उद्घोष तो हिंदू धर्म में आम है पर बंगाली संस्कृति का ये एक अभिन्न अंग है। धार्मिक अनुष्ठान हो या सामाजिक क्रियाकलाप बंगालियों में कोई शुभ अवसर बिना शंख बजाए पूरा नहीं होता। शादी के फेरों से लेकर माँ दुर्गा की अराधना में इसकी स्वरलहरी गूँजती रहती है। पर टेराकोटा के बने शंख पहली बार मुझे बिष्णुपुर में ही दिखाई पड़े।
इनकी चमक के क्या कहने ! |
जूट के रेशे से बनी गुड़िया |
इन्हें तो ऐसे ही देखना कितना अच्छा लग रहा है भला इनमें कोई क्या रखेगा? 😃 |
बालूचारी साड़ियाँ |
तसर पर बनी बालूचार साड़ियों की सबसे बड़ी विशेषता इन पर प्रतिबिंबित महाभारत और रामायण से लिए दृश्य हैं। बिष्णुपुर के मंदिर पर उकेरे चित्र आपको बालूचारी साड़ियों में दिख जाएँगे। वैसे बंगाल के नवाबों के शासन काल में उनकी जीवन शैली भी इन साड़ियों का हिस्सा बनी। साड़ियों की इन दुकानों में घंटे भर समय बिताने के बाद हम बिष्णुपुर से चल पड़े।
बिष्णुपुर से सटे गाँवों में साड़ियों को बनते आप देख सकते हैं। हथकरघों में लगातार हफ्ते भर काम करने पर एक साड़ी बनती है। साड़ियों के साथ ये इलाका हाथकरघे से बुने सूती के मुलायम तौलियों के लिए भी जाना जाता है। तीस चालीस रुपये के इन तौलियों में कारीगर को एक दिन की मजदूरी के सिर्फ बीस रुपये ही मिल पाते हैं। इस लिए बुनकरों का ये समुदाय धीरे धीरे सिकुड़ता जा रहा है और युवा रोजगार के दूसरे अवसरों की तलाश कर रहे हैं।
बांकुरा का गमछा |
बिष्णुपुर पुराण
वाह । एक नई जानकारी के साथ बढ़िया पोस्ट ।
जवाब देंहटाएंआलेख पसंद करने का शुक्रिया !
हटाएंउम्दा लेख।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया !
हटाएंबहुत बढ़िया जानकारी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद, जानकर खुशी हुई कि आपको ये यात्रा लेख पसंद आया।
हटाएंबहुत बढ़िया पोस्ट...कला एयर घुमक्कडी का संगम है बिष्णुपुर
जवाब देंहटाएंहाँ वो तो है। :)
हटाएंBachpan say in Ghodon ko dekhte aaye hain aaj pata laga kahan kee den hain yen... :)
जवाब देंहटाएंऐसा क्या ! खुशी हुई जानकर :)
हटाएंबहुत सुंदर, हमेशा की तरह।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर !
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