पिछले हफ्ते मैंने आपको उड़ीसा के बौद्ध केंद्र रत्नागिरि की सैर कराई। आज चलते हैं उसके पास ही स्थित उदयगिरि और ललितगिरी के के प्राचीन बौद्ध स्थलों की तरफ। उदयगिरि, रत्नागिरि से पाँच किमी की दूरी पर स्थित है।
पहाड़ी के निचले हिस्से पर बना उदयगिरि का प्राचीन मठ सातवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच बना और उस काल में ये माधवपुरा महाविहार के नाम से विख्यात था। उदयगिरि में रत्नागिरि की तरह उत्खनन में दो बौद्ध मठों मिले हैं। एक की तो पूरी खुदाई हो चुकी है। उत्खनन से पता चला है कि मठ में कुल अठारह कक्ष थे। कक्ष में अब सिर्फ ईटों की बनी दीवारे रह गई हैं जो बारिश और नमी में फैलती काई से अपने आसपास के परिदृश्य की तरह ही हरी भरी हो गई हैं।
पर उदयगिरि की एक खास धरोहर है जो रत्नागिरि में नहीं है। वो है खांडोलाइट पत्थर को काट कर बनाया हुआ सीढ़ीनुमा कुआँ (Rock Cut Stepped Well)। कहा जाता है कि आज से करीब एक हजार वर्ष पूर्व इसे सोमवामसी वंश के राजाओं के शासनकाल में बनाया गया था।
कुआँ तो वर्गाकार है पर इसके पश्चिमी सिरे पर सम्मिलित सीढ़ियों के साथ इसे ऊपर से देखें तो ये आयताकार लगता है। साढ़े सात मीटर गहरे इस कुएँ के जल को आज भी आस पास के गाँव वाले पवित्र मानते हैं।
रत्नागिरि की तरह यहाँ भी छोटे बड़े स्तूपों की भरमार है। क्या आप जानते हैं कि ईंट और पत्थरों से बने इन गुम्बदों को इतना पूज्य क्यूँ माना जाता रहा? दरअसल जहाँ जहाँ बुद्ध के जीवन की मुख्य घटनाएँ हुई वहाँ इनका विवरण बोद्ध धार्मिक ग्रंथों में लिखा गया। इन धर्मग्रंथों को सुरक्षित रखने के ख्याल से इनके चारों और ईंट और पत्थरों की ये संरचना तैयार की गई जिन्हें हम 'स्तूप' के नाम से जानते हैं। कालांतर में श्रद्धालु इन बड़े स्तूपों के अगल बगल चढ़ावे के रूप में छोटे स्तूपों का निर्माण भी कराने लगे।
उदयगिरि की पहाड़ी के सर्पीलाकार रास्ते से नीचे उतरकर हम वापस राष्ट्रीय राजमार्ग पाँच पर पहुँच गए। पहाड़ियों को पीछे छोड़ते ही धान के हरे भरे खेतों का वो पुराना नज़ारा फिर से वापस आ गया।
अब हमारा लक्ष्य था इन तीनों बौद्ध केंद्रों में सबसे प्राचीन ललितगिरि की ओर कूच करने का। ललितगिरि चंडीखोल से पाराद्वीप जाने वाले राजमार्ग पर बादरेश्वर चौक से लगभग दो किमी दूर पर स्थित है।
ललितगिरि का उत्खनन 1985 में किया गया। ललितगिरि पहाड़ी के स्तूप के उत्खनन में पत्थर,चाँदी और सोने के संदूक भी मिले जिसमें पवित्र अभिलेख सुरक्षित रखे गए थे। कई इतिहासकार ऐसा मानते हैं कि चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने अभिलेखों में पहाड़ी के ऊपर बने हुए जिस स्तूप (पुष्पगिरि महाविहार) से दिव्य रोशनी निकलने की बात कही है वो ललितगिरि ही है। ललितगिरि के खंडहरों तक पहुँचने के लिए हरे भरे जंगलों के बीच से गुजरना पड़ता है।
बीच बीच में ईंटों से बने कई बौद्ध मठों के अवशेष दिखते हैं पर उदयगिरि की तरह ही ललितगिरि का भी अपना अलग पहचान चिन्ह है। ये चिन्ह है यहाँ का विशाल प्रार्थना कक्ष या 'चैत्य गृह'। चैत्य गृह की तीन दीवारें तो सीधी हैं पर जिस हिस्से में स्तूप था वो दीवार अर्धवृताकार हो जाती है। अंग्रेजी में प्रार्थना कक्ष की ऐसी बनावट को 'Apisidal Chaitya' कहते हैं। स्तूप का तो उत्खनन कर लिया गया है पर उसके चारों ओर के पत्थर के बनाए पथ को आप अभी भी देख सकते हैं। इस पथ को बौद्ध परिभाषाओं के अनुसार प्रदक्षिणा पथ कहा जाता था।
बौद्ध केंद्रों की इस ऐतिहासिक यात्रा के बाद 'मुसाफ़िर हूँ यारों' का अगला ठिकाना होगा हैदराबाद..आशा है आप साथ रहेंगे..
बुद्ध से जुडी जगहें अच्छी लगती हैं. और हम तो साथ रहेंगे ही. आप यूँही घुमाते रहिये.
जवाब देंहटाएंमस्त यात्रा लेकिन आपके कॉपीराइट लोगो की वजह से कई फोटो की शान खत्म हो रही है। कृपया या तो यह लोगो ना लगायें या फिर किसी कोने में डाल दें। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंनीरज, अगली बार से आपके सुझाव पर ध्यान दिया जाएगा।
जवाब देंहटाएंआपके साथ घूमने में आने वाले आनंद को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता...आप यकीनन ब्लॉग जगत के अलबेले घुमक्कड़ हैं...
जवाब देंहटाएंनीरज
On the copyright issue, have you considered compressing your pictures? Then they do not come out well in print.
जवाब देंहटाएंजाट देवता की राम-राम,
जवाब देंहटाएंआपके फोटो के साईज १०० के बी से ज्यादा होने के कारण देर से खुलते है।